Q. निवारक निरोध, जिसे सामान्यत: 'आवश्यक बुराई' कहा जाता है, एक कंस्टीट्यूशनल बरमूडा ट्रायंगल का निर्माण करता है जहाँ 'गोल्डन ट्रायंगल' (अनुच्छेद 14, 19 और 21) के मौलिक अधिकार लुप्त होते प्रतीत होते हैं। इस वक्तव्य और हाल के न्यायिक निर्णयों के आलोक में, भारत में निवारक निरोध कानूनों द्वारा व्यक्तिगत स्वतंत्रता के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए। (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • भारत में निवारक निरोध कानूनों द्वारा व्यक्तिगत स्वतंत्रता के लिए उत्पन्न चुनौतियाँ।
  • भारत में निवारक निरोध कानूनों की आवश्यकता
  • इसे अल्पतम करने के उपाय

उत्तर

निवारक निरोध, जिसे “आवश्यक बुराई” कहा जाता है, बढ़ती सुरक्षा चुनौतियों के बीच लोक व्यवस्था बनाए रखने का प्रयास करता है, साथ ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता के साथ संतुलन बनाता है।
किंतु बिना मुकदमे के हिरासत की अनुमति देकर, यह प्रायः संविधान के अनुच्छेद-14, 19 और 21 के अंतर्गत समानता, स्वतंत्रता और जीवन के संवैधानिक संरक्षणों को दरकिनार कर देता है — जिससे एक कानूनी शून्य (legal void) उत्पन्न होता है, जो भारत की लोकतांत्रिक चेतना की परीक्षा लेता है।

भारत में निवारक निरोध कानूनों से व्यक्तिगत स्वतंत्रता को उत्पन्न चुनौतियाँ

  • “लोक व्यवस्था” की परिभाषा में अस्पष्टता: निवारक निरोध कानून जैसे KAAPA “गुंडा” (Goonda) और “रोडी” (Rowdy) जैसे शब्दों को व्यापक रूप से परिभाषित करते हैं, जिससे गंभीर सार्वजनिक खतरे की बजाय मामूली कानून-व्यवस्था के मामलों में भी निरोध किया जा सकता है।
    • उदाहरण: S.K. नाजनीन बनाम तेलंगाना राज्य (वर्ष 2023) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि केवल कानून-व्यवस्था बनाए रखने के लिए निवारक निरोध उचित नहीं है।
  • प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों का उल्लंघन: अनुच्छेद-22 नियमित मुकदमे के बिना निवारक निरोध की अनुमति देता है, जिससे अनुच्छेद-14 और 21 के अंतर्गत निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार सीमित हो जाता है।
    • उदाहरण: ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (वर्ष 1950) में न्यायालय ने न्यायिक समीक्षा के अभाव में भी निवारक निरोध को बरकरार रखा, जो विधिवत प्रक्रिया (due process) की अनुपस्थिति को दर्शाता है।
  • कार्यपालिका की अति-शक्ति और व्यक्तिपरकता: निरोध आदेश प्रशासनिक अधिकारियों की “व्यक्तिगत संतुष्टि” पर निर्भर होते हैं, जिन पर न्यायिक नियंत्रण सीमित है — जिससे दुरुपयोग की संभावना बढ़ जाती है।
    • उदाहरण: धन्य एम. बनाम केरल राज्य (2025) में सर्वोच्च न्यायालय ने इस शक्ति के “संयमित उपयोग” की आवश्यकता पर जोर दिया, फिर भी कई मामलों में कार्यपालिका की शक्ति अनियंत्रित बनी रहती है।
  • गुण-दोष पर न्यायिक समीक्षा का अभाव:  न्यायालय केवल प्रक्रियात्मक अनुपालन की जाँच करते हैं, न कि निरोध के वास्तविक कारणों की जिससे यह मौलिक अधिकारों के “गोल्डन ट्रायंगल” (अनुछेद -14, 19, 21) से पृथक हो जाता है।
    • उदाहरण: ए.के. रॉय बनाम भारत संघ (वर्ष 1982) में न्यायालय ने निवारक निरोध कानूनों की इन अनुच्छेदों के विरुद्ध परीक्षण से इनकार किया।
  • राजनीतिक दुरुपयोग की संभावना: निवारक निरोध को असहमति, विरोध प्रदर्शन या विपक्षी राजनीतिक गतिविधियों को “लोक व्यवस्था” के नाम पर दबाने के लिए उपयोग किया जा सकता है।

भारत में निवारक निरोध कानूनों की आवश्यकता 

  • राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षा:  निवारक निरोध से आतंकवाद या विद्रोह जैसे खतरों को उनके घटित होने से पहले ही रोक सकते हैं।
    • उदाहरण: राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (NSA), 1980 के अंतर्गत हिंसक कृत्यों को रोकने हेतु संदिग्धों को निरुद्ध किया जा सकता है।
  • संकट के समय त्वरित प्रतिक्रिया: दंगों या आपातकालीन स्थितियों में, जब सामान्य कानूनी प्रक्रिया बहुत धीमी हो, तब यह त्वरित कार्रवाई संभव बनाता है।
    • उदाहरण: अचानक भड़कने वाले सांप्रदायिक दंगों या हिंसक प्रदर्शनों को बढ़ने से पहले नियंत्रित करने हेतु उपयोग।
  •  आर्थिक स्थिरता: यह तस्करी या जमाखोरी जैसे अपराधों को रोकने में मदद करता है, जो राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुँचा सकते हैं।
    • उदाहरण: COFEPOSA अधिनियम (वर्ष 1974) आदतन तस्करों और काला बाजारियों को लक्षित करता है।
  • लोक व्यवस्था का संरक्षण: यह आदतन अपराधियों को समाज की शांति और सामुदायिक जीवन को बाधित करने से रोकता है।
    • उदाहरण: केरल असामाजिक गतिविधियाँ (निवारण) अधिनियम, 2007 दोहराने वाले असामाजिक तत्त्वों के निरोध की अनुमति देता है।
  • खुफिया-आधारित रोकथाम:  विश्वसनीय खुफिया जानकारी पर कार्यवाही करते हुए अपराधों जैसे- तोड़फोड़, हथियारों की तस्करी आदि को उनके निष्पादन से पहले ही रोका जा सकता है।

निवारक निरोध के दुरुपयोग को कम करने के उपाय

  • परिभाषाओं की स्पष्टता और संकीर्णता:  विधायिका को “लोक व्यवस्था” की स्पष्ट और सीमित परिभाषा करनी चाहिए ताकि मनमाने रूप से निरोध को रोका जा सके।
    • उदाहरण: KAAPA में संशोधन कर “लोक व्यवस्था” और “कानून व्यवस्था” के बीच स्पष्ट अंतर किया जाए।
  • प्रक्रियात्मक सुरक्षा को सुदृढ़ बनाना: निवारक निरोध आदेशों की अनिवार्य न्यायिक समीक्षा सुनिश्चित की जाए ताकि निष्पक्ष प्रक्रिया का पालन हो सके।
    • उदाहरण: मेनका गांधी बनाम भारत संघ (वर्ष 1978) की तर्ज पर प्रत्येक निरोध पर आनुपातिकता परीक्षण लागू किया जाए।
  • कार्यपालिका के विवेक को सीमित करना: स्वतंत्र समीक्षा समितियों की स्थापना की जाए, जो निरोध आदेशों की वास्तविक आवश्यकता का मूल्यांकन करें।
    • उदाहरण: ऐसा वैधानिक प्रावधान हो, जहाँ निरोध आदेश के लिए निरोधक अधिकारी से उच्च-स्तरीय स्वीकृति अनिवार्य हो।
  •  गुण-दोष पर न्यायिक समीक्षा की अनुमति: न्यायालयों को केवल प्रक्रियात्मक ही नहीं, बल्कि निरोध के वास्तविक आधारों की भी जाँच करने का अधिकार दिया जाए।
    • उदाहरण: अनुच्छेद-21 के सिद्धांतों को शामिल कर निवारक निरोध को उचित प्रक्रिया और अनुपातिकता मानकों  के अधीन लाया जाए।
  • राजनीतिक दुरुपयोग पर रोक:  निवारक निरोध को केवल गंभीर खतरों — जैसे आतंकवाद, संगठित अपराध या बड़े पैमाने की हिंसा तक सीमित रखा जाए।
    • उदाहरण: राजनीतिक विरोध या असहमति को “लोक व्यवस्था” के अंतर्गत तभी लाया जाए, जब यह वास्तव में सार्वजनिक सुरक्षा के लिए सिद्ध खतरा उत्पन्न करे।

निष्कर्ष

यद्यपि निवारक निरोध राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक है, परंतु इसका बार-बार दुरुपयोग संवैधानिक नैतिकता और न्याय व्यवस्था में जनविश्वास को कमजोर करता है। अतः पारदर्शिता, आनुपातिकता और न्यायिक जवाबदेही पर आधारित सुधार आवश्यक हैं ताकि यह शक्ति लोकतंत्र की रक्षा करे, न कि उन्हीं स्वतंत्रताओं को सीमित करे, जिनकी रक्षा का यह दावा करती है।

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