प्रश्न की मुख्य माँग
- भारत में हरित क्रांति के महत्त्व का उल्लेख कीजिए जिसने कृषि उत्पादन में वृद्धि के माध्यम से खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की है।
- विकसित भारत 2047 के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कृषि क्षेत्र में प्रमुख चुनौतियों पर चर्चा कीजिए।
- चुनौतियों पर विजय पाने के लिए प्रमुख रणनीतियों का उल्लेख कीजिये।
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उत्तर
भारत ने वर्ष 1960 के दशक की खाद्यान्न संकट की स्थिति से बाहर निकलते हुए वर्ष 2024–25 में 353.96 मिलियन टन खाद्यान्न उत्पादन प्राप्त कर वैश्विक कृषि शक्ति के रूप में उभर कर “माल्थसियन अकाल सिद्धांत” को गलत सिद्ध किया। किंतु विकसित भारत 2047 के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु कृषि क्षेत्र को अनेक संरचनात्मक चुनौतियों का समाधान करना होगा।
भारत में हरित क्रांति का महत्त्व
- खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि: हरित क्रांति ने खाद्यान्न उत्पादन को वर्ष 1966-67 में 74 मीट्रिक टन से बढ़ाकर वर्ष 1979-80 तक 130 मीट्रिक टन कर दिया जिससे खाद्यान्न आत्मनिर्भरता आई।
- संबद्ध क्षेत्रों में विविधीकरण: श्वेत और नीली क्रांतियों ने दुग्ध (20 मीट्रिक टन (वर्ष 1970) से 239 मीट्रिक टन (2024-25)) और मत्स्य उत्पादन (2.4 मीट्रिक टन (वर्ष 1980) से 19.5 मीट्रिक टन (वर्ष 2024-25) को महत्त्वपूर्ण रूप से बढ़ावा दिया, जिससे खाद्य और आय सुरक्षा मजबूत हुई।
- उदाहरण: अण्डे का उत्पादन 10 बिलियन से बढ़कर 143 बिलियन हो गया जबकि पोल्ट्री मांस का उत्पादन 5 मिलियन टन हो गया।
- बागवानी विकास: बागवानी उत्पादन वर्ष 1960 के दशक में 40 मीट्रिक टन से बढ़कर वर्ष 2024-25 में 334 मीट्रिक टन हो गया जो उच्च मूल्य वाली फसलों में भारत की सफलता को दर्शाता है।
- उदाहरण: 7.5 मिलियन टन की वार्षिक वृद्धि अब अनाज से भी अधिक हो गई है।
- तकनीकी उन्नति: तनाव-सहिष्णु किस्मों और प्रत्यास्थ प्रथाओं के विकास ने फसल उत्पादन को स्थिर कर दिया है।
- उदाहरण: ICAR द्वारा किए गए शोध से पता चलता है कि कृषि अनुसंधान एवं विकास पर खर्च किए गए प्रति 1 रुपए पर 13.85 रुपए का रिटर्न मिलता है।
विकसित भारत 2047 के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए कृषि में प्रमुख चुनौतियाँ
- जलवायु परिवर्तन और फसल की संवेदनशीलता: अनियमित मौसम, तापमान में वृद्धि और वर्षा के बदलते पैटर्न से उपज की स्थिरता और किसानों की आय को खतरा है।
- उदाहरण: तनाव-सहिष्णु फसल किस्मों के बावजूद, जलवायु के प्रतिकूल प्रभाव अभी भी संधारणीयता और ग्रामीण आजीविका को खतरे में डालते हैं।
- कृषि भूमि में कमी और भूमि विखंडन: शहरीकरण और औद्योगिकीकरण के कारण कृषि योग्य भूमि 180 मिलियन हेक्टेयर से घटकर 176 मिलियन हेक्टेयर रह गई है, जिससे औसत भूमि जोत घटकर 0.6 हेक्टेयर रह गई है।
- उदाहरण: छोटी जोतों के कारण बड़े पैमाने पर उत्पादन, मशीनीकरण की संभावना और उत्पादकता को कम करती हैं।
- जल संकट और अस्थायी सिंचाई प्रणाली: भूजल का अत्यधिक दोहन और जल-गहन फसलें दीर्घकालिक स्थिरता के लिए खतरा हैं।
- उदाहरण: भारत प्रतिवर्ष 20 मीट्रिक टन जल-गहन चावल का निर्यात करता है, जिससे भूजल स्तर में कमी का खतरा है।
- अनाज पर अत्यधिक निर्भरता और आयात पर आश्रय: जहाँ अनाज की माँग स्थिर है, वहीं दलहन और तिलहन की माँग बढ़ रही है, परंतु भारत इनका भारी मात्रा में आयात करता है।
- उदाहरण: दलहन/तिलहन के लिए 12 मिलियन हेक्टेयर धान की परती भूमि उपलब्ध होने के बावजूद, तिलहन में 18–40% और दलहन में 31–37% उत्पादकता अंतर अब भी बना हुआ है।
- कृषि अनुसंधान एवं विकास में कम निवेश: अनुसंधान एवं विकास के लिए मात्र ₹11,600 करोड़ (कृषि-GDP का 0.5%) का अपर्याप्त वित्तपोषण उपलब्ध है, जिससे नवाचार और जलवायु-अनुकूल प्रौद्योगिकियों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
- पोषण और बाजार में बदलाव: भारत की माँग अब उच्च-मूल्य वाली फसलें जैसे फल, सब्जियाँ, दुग्ध और पोल्ट्री की ओर बढ़ रही है, किंतु नीतियाँ और अवसंरचना अभी भी बहुत पीछे हैं।
- ज्ञान और विस्तार सेवाओं में कमी: कमजोर कृषि विस्तार प्रणालियों के कारण कई किसानों को वैज्ञानिक जानकारी और सर्वोत्तम प्रथाओं तक पहुँच का अभाव है।
- उदाहरण: विकसित कृषि संकल्प अभियान (VKSA अभियान) अब तक 1.35 करोड़ किसानों तक पहुँच चुका है।
चुनौतियों पर विजय पाने की प्रमुख रणनीतियाँ
- फसल विविधीकरण और कुशल नियोजन: चावल-गेहूं प्रधान कृषि से हटकर जल-कुशल, उच्च मूल्य वाली फसलों जैसे दलहन और तिलहन पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
- उदाहरण: सरकार के मिशन-मोड कार्यक्रम आयात निर्भरता को कम करने के लिए दलहन, तिलहन (NMEO-तिलहन) और कपास के लिए उन्नत बीजों को बढ़ावा देते हैं।
- जलवायु-प्रत्यास्थ कृषि पद्धतियाँ: तनाव-सहिष्णु फसल किस्मों, सतत कृषि पद्धतियों और एकीकृत संसाधन प्रबंधन को अपनाना चाहिए।
- उदाहरण: जलवायु प्रतिकूल परिस्थितियों के दौरान उत्पादन में स्थिरता प्रत्यास्थ कृषि पद्धतियों की सफलता को दर्शाती है।
- सिंचाई और जल संसाधन प्रबंधन: प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना (PMKSY) के माध्यम से सूक्ष्म सिंचाई, वाटरशेड विकास को बढ़ावा देना और जल उपयोग को अनुकूलित करना चाहिए।
- उदाहरण: PMKSY “प्रति बूंद अधिक फसल” को बढ़ावा देता है, जिसका उद्देश्य जल-गहन कृषि को कम करना और कुशल सिंचाई को बढ़ावा देना है।
- परती भूमि का उपयोग बढ़ाना और उपज के अंतर को कम करना: 12 मिलियन हेक्टेयर धान-परती भूमि का उपयोग करना और तकनीक आधारित उपायों से उपज अंतर को कम करना चाहिए।
- अनुसंधान एवं विकास तथा प्रौद्योगिकी अंगीकरण में वृद्धि: कृषि अनुसंधान में निवेश को दोगुना करना चाहिए तथा AI, डेटा एनालिटिक्स व रियलटाइम निर्णय उपकरणों का लाभ उठाना चाहिए।
- उदाहरण: आधुनिक उपकरण वैश्विक स्तर पर कृषि अनुसंधान को बदल रहे हैं, भारत अनुसंधान एवं विकास निधि को वर्तमान ₹11,600 करोड़ से आगे बढ़ाने की योजना बना रहा है।
- कृषि विस्तार और किसान-वैज्ञानिक संवाद को सशक्त बनाना: कृषि विज्ञान केंद्रों (KVK) की भूमिका को मजबूत करना चाहिए और राज्य समन्वय के लिए एक राष्ट्र, एक कृषि, एक टीम मॉडल का उपयोग करना चाहिए।
- उदाहरण: ICAR के अनुसार कृषि विस्तार सेवाओं पर खर्च किए गए 1 रुपये के बदले में लगभग 7 रुपये मिलते हैं।
- आय वृद्धि के लिए संबद्ध क्षेत्रों का लाभ उठाना: आय और पोषण सुरक्षा बढ़ाने के लिए डेयरी, मुर्गीपालन और मत्स्यपालन को बढ़ावा देना चाहिए।
वर्ष 1966–67 में 74 मिलियन टन से वर्ष 2024–25 में 353.96 मिलियन टन तक भारत की कृषि विकास यात्रा सुधारों, तकनीक और नीतियों की सफलता को दर्शाती है। फिर भी, विकसित भारत 2047 के लक्ष्य को साकार करने के लिए, इस क्षेत्र को पुनर्गठित रणनीतियों, नवाचार और समावेशी नीतियों के माध्यम से जलवायु जोखिमों, जल संकट, भूमि की कमी और पोषण परिवर्तन का समाधान करना होगा। एक प्रत्यास्थ, विविध और प्रौद्योगिकी-प्रेरित कृषि प्रणाली ही एक विकसित भारत की आधारशिला बनेगी।
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