Q. बिरसा मुंडा के उलगुलान आंदोलन ने औपनिवेशिक भारत में आदिवासी प्रतिरोध और स्वशासन की माँग की प्रारंभिक रूपरेखा को किस प्रकार आकार दिया? (10 अंक, 150 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • आदिवासी प्रतिरोध को आकार देना
  • स्व-शासन की मांग को आकार देना

उत्तर

19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश भूमिनीतियों और मिशनरी गतिविधियों ने छोटानागपुर की पारंपरिक जनजातीय व्यवस्था को गंभीर रूप से प्रभावित किया। इसी संदर्भ में बिरसा मुंडा ने उलगुलान आंदोलन का नेतृत्व किया, जिसने औपनिवेशिक शोषण के विरुद्ध जनजातियों को संगठित किया और भारत में संगठित जनजातीय प्रतिरोध तथा स्वशासन की प्रारंभिक रूपरेखा को आकार दिया।

जनजातीय प्रतिरोध को आकार देने वाले तत्व

  • जनजातीय पहचान की पुनःस्थापना: आदिवासी संस्कृति, धर्म और भूमि अधिकारों पर गर्व को पुनः स्थापित किया तथा ब्रिटिश शोषण के विरुद्ध सामूहिक चेतना को मजबूत किया।
    • उदाहरण: “जल, जंगल, जमीन” का आह्वान मुंडा समुदाय को स्वदेशी अधिकारों के लिए एकजुट करने का आधार बना।
  • औपनिवेशिक भूमिनीतियों के विरुद्ध विद्रोह: ब्रिटिशों द्वारा थोपे गए शोषणकारी जमींदारी और बेगारी प्रथाओं का विरोध किया।
    • उदाहरण: दिकुओं (बाहरी शोषकों) पर मुंडा हमले आर्थिक और सामाजिक प्रतिरोध के प्रतीक बने।
  • संगठित प्रतिरोध की आधारशिला: बिखरी हुई जनजातीय असंतोष की अभिव्यक्तियों को एक संगठित सशस्त्र आंदोलन में परिवर्तित किया।
    • उदाहरण: उलगुलान (वर्ष 1899–1900) ने हजारों को एक राजनीतिक और आध्यात्मिक नेतृत्व के तहत संगठित किया।
  • आध्यात्मिक–राजनीतिक एकता: धार्मिक पुनरुत्थान को राजनीतिक शक्ति से जोड़ा जिससे आंदोलन को नैतिक वैधता मिली।
    • उदाहरण: बिरसा का ‘धरती आबा’ के रूप में उद्भव न्याय और स्वतंत्रता के लिए दैवीय समर्थन का प्रतीक बना।
  • पैन-ट्राइबल चेतना का उदय: स्थानीय संघर्षों को व्यापक जनजातीय पहचान से जोड़ा, जिसने आगे चलकर संथाल, भील और गोंड विद्रोह जैसे आंदोलनों को प्रेरित किया।

स्वशासन की मांग को आकार देने वाले तत्व

  • “अबुआ राज, अबुआ दिसुम” (हमारा राज, हमारी जमीन): एक स्वदेशी शासन-दृष्टि प्रस्तुत की जिसने बाहरी सत्ता को अस्वीकार किया और स्थानीय स्वायत्तता की मांग को सुदृढ़ किया।
  • प्रोटो-राष्ट्रवादी चेतना:  जनजातीय स्वतंत्रता की आकांक्षा को व्यापक औपनिवेशिक-विरोधी भावनाओं से जोड़ा।
    • उदाहरण: स्वतंत्रता सेनानियों ने उलगुलान को स्वराज की प्रारंभिक अभिव्यक्ति के रूप में स्वीकार किया।
  • राष्ट्रवादी विमर्श पर प्रभाव: जनजातीय संघर्षों को भारत के स्वतंत्रता-चिंतन में स्थान दिलाया।
    • उदाहरण: गांधीजी सहित कई नेताओं ने सम्मान और न्याय के जनजातीय मूल्यों से प्रेरणा ली।
  • संवैधानिक सम्मिलन की प्रेरणा: इस आंदोलन ने स्वतंत्रता के बाद जनजातीय सुरक्षा उपायों की नींव रखी—निर्धारित जनजातियों की मान्यता तथा झारखंड राज्य के निर्माण में इसकी ऐतिहासिक भूमिका रही।
  • प्रकृति–आधारित नैतिक शासनदृष्टि: स्वशासन की ऐसी अवधारणा प्रस्तुत की जो प्रकृति के साथ संतुलन और सह-अस्तित्व पर आधारित हो।

निष्कर्ष

बिरसा मुंडा का उलगुलान मात्र एक विद्रोह नहीं था, बल्कि जनजातीय आत्म-स्वीकृति और स्वाधिकार का उद्घोष था। इसने प्रतिरोध को राजनीतिक तथा सांस्कृतिक दोनों रूपों में पुनर्परिभाषित किया और स्वतंत्रता की अवधारणा को पहचान तथा स्वायत्तता से जोड़ दिया। “अबुआ राज, अबुआ दिसुम” की उनकी दृष्टि आगे चलकर भारत के लोकतांत्रिक और संवैधानिक ढांचे में जनजातीय अधिकारों की मान्यता के रूप में प्रतिध्वनित हुई।

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