Q. विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्त की चुनौतियों एवं आवश्यकताओं का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिये। इस संदर्भ में *‘साझा और विभेदित जिम्मेदारियों’ की अवधारणा कैसे लागू होती है? भारत जैसे देशों के लिए जलवायु वित्त अंतर को पाटने पर नए सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (NCQG) के संभावित प्रभाव पर चर्चा कीजिये। (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्त की आवश्यकताओं पर प्रकाश डालिये।
  • विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्त की चुनौतियों का विश्लेषण कीजिए।
  • परीक्षण कीजिए कि जलवायु वित्त के संदर्भ में ‘सामान्य और विभेदित जिम्मेदारियों’ की संकल्पना कैसे लागू होती है।
  • भारत जैसे देशों के लिए जलवायु वित्त अंतर को कम करने पर नए सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (NCQG) के संभावित प्रभाव पर चर्चा कीजिए।

उत्तर

जलवायु वित्त का तात्पर्य, जलवायु परिवर्तन से निपटने में विकासशील देशों की सहायता के लिए जुटाए गए वित्तीय संसाधनों से है, जो शमन और अनुकूलन दोनों प्रयासों को सुविधाजनक बनाते हैं। पेरिस समझौते का उद्देश्य ग्लोबल वार्मिंग को रोकना है। इस लक्ष्य के एक हिस्से के रूप में, विकसित देशों ने वर्ष 2020 तक सालाना 100 बिलियन अमरीकी डालर जुटाने की प्रतिबद्धता जताई है, हालाँकि यह लक्ष्य अभी तक पूरा नहीं हुआ है। निम्न कार्बन और जलवायु-प्रतिरोधी भविष्य को प्राप्त करने के लिए जलवायु वित्त महत्त्वपूर्ण है।

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विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्त की आवश्यकताएँ

  • अनुकूलन परियोजनाओं के लिए पर्याप्त वित्तपोषण: विकासशील देशों को जलवायु-प्रतिरोधी बुनियादी ढाँचे के निर्माण और जलवायु प्रभावों के प्रति संवेदनशीलता को कम करने के लिए पर्याप्त वित्तपोषण की आवश्यकता होती है। 
    • उदाहरण के लिए: मालदीव जैसे तटीय देशों को बढ़ते समुद्री स्तर और विनाशकारी तूफानों से अपने बुनियादी ढाँचे की रक्षा करने के लिए व्यापक वित्तपोषण की आवश्यकता पड़ती है।
  • हरित प्रौद्योगिकियों तक पहुँच: विकासशील देशों को कार्बन उत्सर्जन को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली स्वच्छ ऊर्जा प्रौद्योगिकियों को प्राप्त करने और उन्हें विकसित करने के लिए वित्तीय सहायता की आवश्यकता है। 
    • उदाहरण के लिए: इलेक्ट्रिक मोबिलिटी के लिए भारत के प्रयासों को गति प्रदान करने के लिए इलेक्ट्रिक वाहनों के चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर और प्रौद्योगिकी विकसित करने हेतु धन की आवश्यकता है।
  • क्षमता निर्माण और प्रशासन: जलवायु वित्त को संस्थागत क्षमता निर्माण में भी सहायता करनी चाहिए ताकि देश प्रभावी जलवायु रणनीतियों को लागू कर सकें। 
    • उदाहरण के लिए: अफ्रीकी देशों को जलवायु वित्त संसाधनों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित और वितरित करने के लिए क्षमता निर्माण सहायता की आवश्यकता है।
  • दीर्घकालिक वित्तीय प्रतिबद्धता: विकासशील देशों को दीर्घकालिक जलवायु परियोजनाओं की योजना बनाने और उन्हें लागू करने के लिए निरंतर और पूर्वानुमानित वित्तपोषण की आवश्यकता होती है। 
    • उदाहरण के लिए: प्रशांत द्वीप समूह के देशों को बढ़ते समुद्री स्तरों से दीर्घकालिक जोखिम का सामना करना पड़ता है और शमन रणनीतियों की योजना बनाने के लिए बहु-वर्षीय वित्तीय प्रतिबद्धताओं की आवश्यकता होती है।
  • जलवायु-प्रेरित विस्थापन को संबोधित करना: बाढ़, सूखे और बढ़ते समुद्री स्तर जैसे जलवायु प्रभावों के कारण होने वाले प्रवास और विस्थापन को प्रबंधित करने के लिए जलवायु वित्त की आवश्यकता होती है। 
    • उदाहरण के लिए: निरंतर बाढ़ की घटनाओं के कारण विकासशील देशों में समुदायों के विस्थापन को प्रबंधित करने के लिए धन की आवश्यकता होती है।

विकासशील देशों के लिए जलवायु वित्त की चुनौतियाँ

  • अपर्याप्त वित्तपोषण: 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर का वार्षिक लक्ष्य अभी पूरी तरह से पूरा नहीं हो पाया है, जिससे विकासशील देशों के पास जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं हैं। 
    • उदाहरण के लिए: कई अफ्रीकी देशों को उनके अनुकूलन और शमन प्रयासों का समर्थन करने के लिए पर्याप्त जलवायु वित्त नहीं मिला है।
  • जटिल पहुँच तंत्र: जलवायु वित्त तक पहुँच की प्रक्रिया अक्सर प्रशासनिक और समय लेने वाली होती है, जिससे विकासशील देशों के लिए धन का उपयोग करना मुश्किल हो जाता है।
    • उदाहरण के लिए: कैरिबियन में छोटे द्वीप राष्ट्रों को सीमित संस्थागत क्षमता के कारण अंतर्राष्ट्रीय वित्तपोषण तंत्र तक पहुँचने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
  • उच्च ऋण भार: जलवायु वित्त अक्सर ऋण के रूप में आता है, जिससे विकासशील देशों का ऋण भार और बढ़ जाता है। 
    • उदाहरण के लिए: श्रीलंका जैसे देशों को जलवायु परियोजनाओं के लिए अतिरिक्त धन उधार लेने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है क्योंकि उनके पास पहले से ही उच्च स्तर का बाहरी ऋण विद्यमान है।
  • निजी क्षेत्र की भागीदारी का अभाव: जलवायु वित्त में निजी क्षेत्र की भूमिका सीमित बनी हुई है, जिससे पर्याप्त संसाधन जुटाने में बाधा आ रही है। 
    • उदाहरण के लिए: हालाँकि भारत की जलवायु पहलों को सार्वजनिक निधियों द्वारा सहायता प्राप्त होती है परंतु नवीकरणीय ऊर्जा अपनाने के लिए निजी क्षेत्र के अधिक निवेश की आवश्यकता है।
  • अनुकूलन पर अपर्याप्त ध्यान: जलवायु वित्त का एक बड़ा हिस्सा, शमन की ओर निर्देशित होता है। इसके परिणामस्वरूप अनुकूलन परियोजनाओं को कम निधि प्राप्त होती है, जबकि सुभेद्य देशों को इस निधि की तत्काल आवश्यकता होती हैं। 
    • उदाहरण के लिए: कई अफ्रीकी देशों को सूखे जैसे जलवायु प्रभावों के अनुकूलन के लिए अधिक धन की आवश्यकता होती है परंतु अधिकांश धन अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं की ओर निर्देशित होता है।

जलवायु वित्त में ‘सामान्य और विभेदित जिम्मेदारियाँ’

  • ऐतिहासिक जिम्मेदारियों को मान्यता: उनके ऐतिहासिक उत्सर्जन के कारण विकसित देशों के ऊपर जलवायु वित्त प्रदान करने की अधिक जिम्मेदारी होती है। 
    • उदाहरण के लिए: उनके उच्च ऐतिहासिक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारण, अमेरिका और यूरोपीय संघ से वैश्विक जलवायु वित्त में अधिक योगदान करने की अपेक्षा की जाती है।
  • जलवायु कार्रवाई में समानता का समर्थन: यह सिद्धांत विकासशील देशों की विकासात्मक आवश्यकताओं को स्वीकार करते हुए यह सुनिश्चित करता है कि विकासशील देशों पर समान स्तर की जिम्मेदारियों का बोझ न डाला जाए। 
    • उदाहरण के लिए: भारत की जलवायु वित्त आवश्यकताएँ अनुकूलन पर अधिक ध्यान केंद्रित करती हैं, जो इसके आर्थिक विकास को समर्थन देती हैं।
  • विभेदित प्रतिबद्धताएँ: विकसित देशों को वित्तीय संसाधन जुटाने की आवश्यकता होती है, जबकि विकासशील देश इन निधियों का उपयोग करके परियोजनाओं के कार्यान्वयन पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
  • विकसित राष्ट्रों के लिए जवाबदेही में वृद्धि: विकसित राष्ट्रों को अपनी वित्तीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए जवाबदेह बनाया जाता है, जिससे वैश्विक जलवायु मुद्दों के समाधान में निष्पक्षता को बढ़ावा मिलता है।
  • वैश्विक सहयोग को सुविधाजनक बनाना: साझा परंतु विभेदित जिम्मेदारियों का सिद्धांत अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देता है, जिससे देश अपनी क्षमताओं के आधार पर जलवायु कार्रवाई पर मिलकर कार्य करने में सक्षम होते हैं।

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जलवायु वित्त अंतर को कम करने में NCQG का संभावित प्रभाव

  • वित्तीय सहायता में वृद्धि: नए सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (NCQG) का उद्देश्य विकासशील देशों को प्रदान किये जाने वाले वित्तीय संसाधनों को बढ़ाना है, जिससे जलवायु कार्रवाई को लागू करने की उनकी क्षमता में सुधार हो। 
    • उदाहरण के लिए: भारत NCQG के माध्यम से अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं के लिए अधिक धन प्राप्त कर सकता है, जिससे उसके हरित ऊर्जा संक्रमण में तेजी आएगी।
  • लक्षित अनुकूलन निधि: NCQG अनुकूलन परियोजनाओं के वित्तपोषण पर अधिक बल देता है , जिससे विकासशील देशों को जलवायु प्रतिरोधी बनाने में मदद मिल सके। 
    • उदाहरण के लिए: सूखे से ग्रस्त अफ्रीकी देश अपनी कृषि की सुरक्षा के लिए उन्नत अनुकूलन निधि से लाभ उठा सकते हैं।
  • निजी क्षेत्र के निवेश को बढ़ावा देना: NCQG से निजी क्षेत्र के निवेश को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है, जिससे विकासशील देशों में जलवायु परियोजनाओं के लिए अतिरिक्त पूँजी उपलब्ध होगी। 
    • उदाहरण के लिए: NCQG ढाँचे के तहत भारत की सौर ऊर्जा परियोजनाएँ निजी क्षेत्र के निवेश को बढ़ा सकती हैं।
  • दीर्घकालिक प्रतिबद्धताएँ: NCQG दीर्घकालिक वित्तीय प्रतिबद्धताएँ प्रदान करेगा, जिससे देश बहु-वर्षीय जलवायु कार्य योजनाओं को लागू करने में सक्षम होंगे। 
    • उदाहरण के लिए: वर्ष 2070 तक नेट जीरो उत्सर्जन प्राप्त करने के भारत के लक्ष्य को NCQG के माध्यम से निरंतर वित्तीय सहायता से लाभ होगा।
  • वैश्विक जवाबदेही को मजबूत करना: NCQG विकसित देशों को उनकी वित्तीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करने के लिए जवाबदेह बनाएगा और यह सुनिश्चित करेगा कि धन जुटाया जाए और प्रभावी ढंग से वितरित किया जाए। 
    • उदाहरण के लिए: NCQG ढाँचा विकसित देशों को अपनी वित्तीय प्रतिज्ञाओं को पूरा करने के लिए प्रोत्साहित करेगा, जिससे 100 बिलियन अमरीकी डॉलर के लक्ष्य वाली जलवायु वित्त की कमी को रोका जा सकेगा।

अनुकूलन और शमन के माध्यम से जलवायु परिवर्तन की समस्या को संबोधित करने के लिए विकासशील देशों को सक्षम बनाने में जलवायु वित्त एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जबकि अपर्याप्त वित्तपोषण और जटिल पहुँच तंत्र जैसी चुनौतियाँ अभी भी बनी हुई हैं, नया सामूहिक परिमाणित लक्ष्य (NCQG) जलवायु वित्त अंतर को कम करने की उम्मीद देता है। जवाबदेही सुनिश्चित करके और दीर्घकालिक, समावेशी जलवायु समाधानों पर ध्यान केंद्रित करके, भारत जैसे देश एक संधारणीय भविष्य के निर्माण में अग्रणी भूमिका निभा सकते हैं।

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