प्रश्न की मुख्य माँग
- समझाइए कि किस प्रकार कॉलेजियम प्रणाली न्यायिक स्वतंत्रता और कार्यकारी निगरानी के मध्य जटिल अंतर्संबंध का प्रतिनिधित्व करती है।
- हाल के सुधारों की कमियों का परीक्षण कीजिए।
- भारत के संवैधानिक लोकतंत्र, प्रशासनिक दक्षता और न्यायिक नियुक्तियों से संबंधित व्यापक चर्चा पर इन चुनौतियों के प्रभाव का विश्लेषण कीजिए।
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उत्तर
कॉलेजियम प्रणाली भारत में न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण को नियंत्रित करती है, और कार्यकारी प्रभाव को सीमित करके न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करती है। हालाँकि, पारदर्शिता, जवाबदेही और कार्यकारी-न्यायपालिका तनाव से संबंधित चिंताएँ अभी भी बनी हुई हैं। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग जैसी रिपोर्ट और NJAC केस (2015) जैसे निर्णय न्यायिक स्वायत्तता को सार्वजनिक जवाबदेही के साथ संतुलित करने की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हैं, जो भारत के संवैधानिक लोकतंत्र की सुरक्षा और प्रशासनिक दक्षता के लिए महत्त्वपूर्ण है।
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कॉलेजियम प्रणाली और न्यायिक स्वतंत्रता व कार्यकारी निगरानी के बीच अंतर्संबंध
- न्यायिक प्रधानता: कॉलेजियम प्रणाली न्यायाधीशों को नियुक्तियों की सिफारिश करने का अधिकार देकर न्यायपालिका की स्वायत्तता सुनिश्चित करती है, जिससे इसे अत्यधिक कार्यकारी हस्तक्षेप से बचाया जा सके।
- उदाहरण के लिए: द्वितीय न्यायाधीश मामला (1993) में “परामर्श” की व्याख्या “आपसी सहमति” के रूप में की गई, जिसमें नियुक्तियों में न्यायपालिका की सर्वोच्चता पर बल दिया गया।
- कार्यकारी प्रतिरोध: सरकार बिना किसी स्पष्ट औचित्य के सिफारिशों को अस्वीकार कर सकती है, जिससे न्यायिक स्वतंत्रता कमजोर होती है और शाखाओं के बीच संघर्ष उत्पन्न होता है।
- उदाहरण के लिए: वर्ष 2018 में जस्टिस K.M.Joseph की नियुक्ति में लंबे समय तक की गई देरी ने कार्यकारी अनिच्छा को उजागर किया।
- अपारदर्शी प्रक्रियाएँ: कॉलेजियम विचार-विमर्श में अक्सर पारदर्शिता का अभाव होता है, जिससे बाह्य जवाबदेही बाधित होती है, तथा प्रक्रियात्मक आधार पर कार्यकारी आलोचना की गुंजाइश बनी रहती है।
- सहयोगात्मक क्षमता: परामर्श तंत्र के लिए न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच सहयोग की आवश्यकता होती है, जो नियंत्रण और संतुलन के सिद्धांत को मजबूत करती है, परंतु यह अक्सर गतिरोध का कारण भी बनती है।
- न्यायिक स्वतंत्रता बनाम जवाबदेही: जबकि कॉलेजियम न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करता है, जवाबदेही तंत्र की कमी समावेशिता और प्रणालीगत सुधार के संबंध में सवाल उठाती है।
हालिया सुधारों की कमियाँ
- साक्षात्कार प्रस्ताव: साक्षात्कार से अभ्यर्थियों की निगरानी बढ़ सकती है, परंतु मेमोरेंडम ऑफ प्रोसीजर में इसे औपचारिक रूप नहीं दिया गया है, जिससे भविष्य में इसका कार्यान्वयन अनिश्चित हो जाता है।
- सगे–संबंधियों के अपवर्जन से संबंधित नियम: न्यायिक पदों पर आसीन रिश्तेदारों वाले उम्मीदवारों का अपवर्जन करने से योग्यता-आधारित चयनों को कमजोर करने और योग्य व्यक्तियों को अवसरों से वंचित करने का जोखिम होता है, जिससे विविधता लाभ कम हो जाते हैं।
- उदाहरण के लिए: न्यायिक सेवाओं से जुड़े परिवारों के प्रतिभाशाली उम्मीदवारों को योग्यता के बावजूद अस्वीकृति का सामना करना पड़ सकता है।
- सुधारों में तदर्थवाद: औपचारिक विधायी ढाँचे का अभाव सुधारों के संस्थागतकरण को सीमित करता है, जिससे ये परिवर्तन अस्थायी और असंगत हो जाते हैं।
- सरकारी असहयोग: पुनः-सिफारिशों को मंजूरी देने में कार्यकारी विलम्ब से सुधारों की प्रभावशीलता में बाधा आती है, तथा कॉलेजियम की प्राथमिकता और प्रक्रियागत अनुपालन कमजोर होता है।
- अपर्याप्त कार्यान्वयन फोकस: सुधारों में सरकार या न्यायपालिका द्वारा अनुपालन को लागू करने के लिए तंत्र का अभाव है, जिसके परिणामस्वरूप असंगत परिणाम सामने आ सकते हैं और प्रणालीगत विश्वसनीयता कम हो सकती है।
भारत के संवैधानिक लोकतंत्र पर प्रभाव
- न्यायिक स्वतंत्रता का क्षरण: सरकारी देरी और पारदर्शिता की कमी जैसी चुनौतियाँ न्यायपालिका की स्वायत्तता को कमजोर करती हैं, जिससे राज्य के अंगों के बीच शक्ति संतुलन प्रभावित होता है।
- उदाहरण के लिए: कॉलेजियम की सिफारिशों को मंजूरी देने में सरकार द्वारा की जाने वाली देरी, न्यायपालिका की बहुसंख्यकवादी संस्था के रूप में कार्य करने की क्षमता को कमज़ोर करती है।
- विधि के शासन को कमजोर करना: कॉलेजियम के निर्णयों का कार्यपालिका द्वारा अनुपालन न करने से कानूनी प्रक्रिया में जनता का विश्वास कम होता है तथा न्यायिक निर्णयों की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगता है।
- लोकतांत्रिक जवाबदेही के मुद्दे: निर्णय लेने में कॉलेजियम की अस्पष्टता सार्वजनिक जांच को सीमित करती है, जिससे न्यायपालिका की कार्यप्रणाली और लोकतांत्रिक सिद्धांतों के साथ उसके संरेखण में विश्वास कम होता है।
- न्यायपालिका और कार्यपालिका का ध्रुवीकरण: नियुक्तियों को लेकर न्यायपालिका और सरकार के बीच होने वाला संघर्ष, सहकारी कामकाज में बाधा डालता है और संवैधानिक शासन पर दबाव डालता है।
- संवैधानिक आकांक्षाओं के लिए खतरा: न्यायिक स्वतंत्रता को बनाए रखने में विफलता संविधान निर्माताओं की अलग-अलग शक्तियों वाले संतुलित राज्य की आकांक्षा को कमजोर करती है।
- उदाहरण के लिए: 75 वें संविधान दिवस में कार्यपालिका के हस्तक्षेप के बीच न्यायपालिका की स्वायत्तता बनाए रखने में असमर्थता पर चिंता व्यक्त की गई।
प्रशासनिक दक्षता पर प्रभाव
- न्यायिक रिक्तियां और लंबित मामले: नियुक्तियों में निरंतर होने वाली देरी से अदालतों में लंबित मामलों की संख्या बढ़ती है, जिससे समग्र प्रशासनिक दक्षता कम होती है।
- उदाहरण के लिए: उच्च न्यायालय में 40% से अधिक पद रिक्त रहते हैं, जिससे मामलों के समाधान में देरी होती है।
- सुधारों का असंगत कार्यान्वयन: कॉलेजियम निर्णयों के लिए स्पष्ट, बाध्यकारी नियमों की कमी से न्यायिक प्रशासन में प्रक्रियागत देरी और अकुशलताएं उत्पन्न होती हैं।
- न्यायपालिका में विविधता में कमी: चयन प्रक्रिया से रिश्तेदारों को बाहर रखने जैसे सुधारों को लागू करने में चुनौतियां समावेशिता में बाधा डालती हैं, जिससे न्यायिक पीठों में प्रतिनिधित्व प्रभावित होता है।
- न्यायिक विश्वसनीयता में कमी: तदर्थ कार्यप्रणाली और देरी से होने वाली नियुक्तिया, न्यायपालिका की समय पर न्याय देने की क्षमता को प्रभावित करती हैं, जिससे न्यायालयों में प्रशासनिक विश्वास कम होता है।
- उदाहरण के लिए: कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित तबादलों को मंजूरी देने में कार्यपालिका की देरी, कुशल न्यायिक प्रबंधन को बाधित करती है।
- प्रशासनिक बोझ में वृद्धि: नियुक्तियों और अस्वीकृतियों से संबंधित विवादों में न्यायिक संसाधन का अधिक उपयोग होता है, जिससे महत्त्वपूर्ण प्रशासनिक कार्यों से ध्यान हट जाता है।
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न्यायिक नियुक्तियों से संबंधित व्यापक चर्चा पर प्रभाव
- सुधार बनाम यथास्थिति पर बहस: कॉलेजियम प्रणाली की चुनौतियों ने पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए इसे राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) के साथ प्रतिस्थापित करने पर बहस छेड़ दी है।
- भाई-भतीजावाद के बारे में सार्वजनिक धारणा: रिश्तेदारी आधारित अपवर्जन में सुधार के प्रति प्रतिरोध, न्यायिक नियुक्तियों में योग्यता के बारे में संदेह उत्पन्न करता है।
- संस्थागत गतिशीलता में बदलाव: न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच प्रधानता को लेकर मौजूद तनाव, नियुक्तियों के लिए संवैधानिक ढाँचे पर चर्चा को प्रभावित करता है।
- उदाहरण के लिए: चौथे न्यायाधीश वाद में न्यायिक प्रधानता पर बल दिया गया, लेकिन इसने कार्यकारी प्रतिरोध को समाप्त नहीं किया।
- प्रणालियों की वैश्विक तुलना: भारतीय न्यायिक नियुक्तियों पर हो रही चर्चा के कारण U.K. और U S. की प्रणालियों के साथ भी इसकी तुलना की जाती है, जिससे सर्वोत्तम प्रथाओं पर चर्चा को बढ़ावा मिलता है।
- उदाहरण के लिए: U.K में अक्सर संरचित और पारदर्शी प्रक्रियाओं के लिए न्यायिक नियुक्ति आयोग को उद्धृत किया जाता है।
- जवाबदेही और पारदर्शिता की माँग: कॉलेजियम निर्णयों पर बढ़ती जांच ने न्यायिक नियुक्तियों में संहिताबद्ध, जवाबदेह और पारदर्शी प्रक्रियाओं की माँग को बढ़ा दिया है।
कॉलेजियम प्रणाली में सुधार के लिए न्यायिक स्वतंत्रता को बनाए रखते हुए पारदर्शिता और संस्थागत नियंत्रण को बढ़ाने की आवश्यकता है। नियुक्तियों के लिए संरचित मानदंड, अधिक परामर्श तंत्र और सीमाओं के भीतर संसदीय निगरानी शुरू करने से संतुलित दृष्टिकोण सुनिश्चित हो सकता है। लोकतांत्रिक आदर्शों को बनाए रखने, प्रशासनिक दक्षता में सुधार करने और न्यायिक प्रक्रियाओं में जनता के विश्वास को बढ़ावा देने के लिए ऐसे सुधार अति महत्त्वपूर्ण हैं।
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