Q. लोकतंत्र में विश्वविद्यालयों की ‘सार्वजनिक बौद्धिक स्थलों’ के रूप में भूमिका पर टिप्पणी कीजिए। उनकी स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाने से सार्वजनिक संवाद और शासन की जवाबदेही पर क्या प्रभाव पड़ता है? (10 अंक, 150 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • लोकतंत्र में ‘सार्वजनिक बौद्धिक स्थल’ के रूप में विश्वविद्यालयों की भूमिका का उल्लेख कीजिए।
  • सार्वजनिक विमर्श और शासन जवाबदेही पर विश्वविद्यालय की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने के प्रभाव का उल्लेख कीजिये।

उत्तर

संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) और 51A(h) की भावना के अंतर्गत, विश्वविद्यालय ‘सार्वजनिक बौद्धिक स्थल’ के रूप में कार्य करते हुए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास की रक्षा करते हैं। वे लोकतंत्र की नॉलेज इकोनॉमी, सामाजिक चेतना और राजनीतिक जवाबदेही के लिए आवश्यक आलोचनात्मक चिंतन का पोषण करते हैं।

लोकतंत्र में सार्वजनिक बौद्धिक स्थलों के रूप में विश्वविद्यालयों की भूमिका

  • आलोचनात्मक जिज्ञासा को बढ़ावा देना: विश्वविद्यालयों में परंपरागत रूप से प्राप्त ज्ञान पर प्रश्न उठाए जाते हैं, जिससे खुले विमर्श और विचार-विनिमय के माध्यम से उत्कृष्टता की खोज संभव होती है।
    • उदाहरण: अर्थशास्त्र, राजनीति या विज्ञान में प्रमुख धारणाओं पर सवाल उठाने वाले शिक्षक और छात्र, सार्वजनिक नीति और प्रौद्योगिकी में नवाचारों को बढ़ावा देते हैं।
  • शैक्षणिक स्वतंत्रता की सुरक्षा: शैक्षणिक स्वतंत्रता विश्वविद्यालयों को पाठ्यक्रम निर्धारित करने, पाठ्य सामग्री तय करने तथा राजनीतिक हस्तक्षेप के बिना विविध वक्ताओं को आमंत्रित करने की अनुमति देती है।
  • ज्ञान सृजन के उत्प्रेरक: अनुसंधान स्वायत्तता मौलिक और अनुप्रयुक्त अनुसंधान को बढ़ावा देती है, जो विज्ञान, प्रौद्योगिकी और सामाजिक-आर्थिक नीतियों को आकार देता है।
    • उदाहरण: AI या जलवायु नीति में सहकर्मी-समीक्षित अनुसंधान प्राथमिकताएँ, अप्रतिबंधित शैक्षणिक वातावरण से उत्पन्न होती हैं।
  • लोकतांत्रिक नागरिकता के लिए प्रशिक्षण स्थल: विश्वविद्यालय राजनीतिक, सामाजिक और नैतिक मुद्दों पर संवाद को प्रोत्साहित करके जागरूक, सहभागी नागरिकों का निर्माण करते हैं।
  • विविधता और बहुलवाद के स्थल: स्वतंत्र परिसर बहुविध दृष्टिकोणों को अपनाते हैं, जो लोकतांत्रिक समाजों में रचनात्मकता और प्रत्यास्थता के लिए आवश्यक है।
    • उदाहरण: अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र और साहित्य को जोड़ने वाले अंतर्विषयक सेमिनार, सामाजिक समस्याओं के समावेशी समाधान प्रस्तुत करते हैं।
  • वैश्विक प्रतिष्ठा और सॉफ्ट पावर: स्वायत्त विश्वविद्यालय किसी राष्ट्र की शैक्षणिक प्रतिष्ठा और सांस्कृतिक प्रभाव को वैश्विक स्तर पर बढ़ाते हैं।
    • उदाहरण: अंतरराष्ट्रीय शिक्षक और छात्रों को आकर्षित करने वाले भारतीय विश्वविद्यालय भारत की उच्च शिक्षा रैंकिंग को सुधारते हैं।

विश्वविद्यालय की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने का सार्वजनिक विमर्श और शासन जवाबदेही पर प्रभाव

सार्वजनिक विमर्श पर प्रभाव

  • आलोचनात्मक चिंतन पर अवरोध: प्रतिबंध प्रश्न पूछने की इच्छा को दबा देते हैं और इस तरह से वे बौद्धिक विविधता और समस्या-समाधान क्षमता को विकसित होने से रोकते हैं।
    • उदाहरण: राजनीति विज्ञान में कुछ पठन सामग्री को छोड़ देने से छात्रों की विश्लेषणात्मक क्षमता सीमित हो जाती है।
  • सार्वजनिक विमर्श पर नकारात्मक प्रभाव: दंडात्मक कार्रवाई का भय परिसर में होने वाली बहसों को सीमित कर देता है, तथा विचारों के लोकतांत्रिक प्रसार को रोक देता है।
  • शासन की जवाबदेही कमजोर होना: कुछ विश्वविद्यालय नीतियों की जाँच नहीं कर सकते, जिससे सार्वजनिक निगरानी कम हो जाती है।
    • उदाहरण: सरकारी नीतियों की आलोचना करने वाले शिक्षकों को दंडित करना, लोकहित संबंधित अनुसंधान में ‘व्हिसल ब्लोइंग’ को हतोत्साहित करता है।
  • वैचारिक अनुरूपता का जोखिम: असहमति को दबाने से एकरूपता को बढ़ावा मिलता है, जो रचनात्मकता और नवाचार को नुकसान पहुँचाता है।
    • उदाहरण: प्रतिशोध के भय से संवेदनशील राजनीतिक विषयों से बचने वाला समाजशास्त्रीय शोध, नीतिगत विविधता को घटा देता है।

शासन संबंधी जवाबदेही पर प्रभाव

  • शोध गुणवत्ता में गिरावट: राजनीतिक रूप से प्रभावित वित्तपोषण और सेंसरशिप, शोध की मौलिकता को कम कर देते हैं।
    • उदाहरण: भारत के विश्वविद्यालयों में नोबेल पुरस्कार विजेताओं का न‌ होना, नवोन्मेषी छात्रवृत्ति पर व्यवस्थित अंकुश को दर्शाता है।
  • शैक्षणिक नियंत्रण का केंद्रीकरण: पाठ्यक्रम, अनुसंधान और नियुक्तियों पर सरकार का प्रभुत्व संस्थागत स्वायत्तता को कमजोर करता है।

निष्कर्ष

विश्वविद्यालय लोकतंत्र की बौद्धिक जीवंतता के केंद्र होते हैं जो आलोचनात्मक चिंतन, नीतिगत नवाचार और सार्वजनिक जवाबदेही के लिए आवश्यक हैं। उनकी स्वायत्तता को कानूनी, संस्थागत और सांस्कृतिक साधनों से सुरक्षित करना न केवल शासन की पारदर्शिता को मजबूत करेगा, बल्कि भारत को ज्ञान-सृजन और वैचारिक नेतृत्व में वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा करने योग्य भी बनाएगा।

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