प्रश्न की मुख्य माँग
- चर्चा कीजिए कि किस प्रकार ‘संवैधानिक नैतिकता’ संविधान में निहित है तथा इसके आवश्यक पहलुओं पर आधारित है।
- प्रासंगिक न्यायिक निर्णयों की सहायता से संवैधानिक नैतिकता के सिद्धांत की व्याख्या कीजिए।
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उत्तर
संवैधानिक नैतिकता का तात्पर्य संविधान में निहित मूल सिद्धांतों और मूल्यों जैसे न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और कानून के शासन के प्रति पालन से है। यह कानूनी प्रावधानों की मात्र शाब्दिक व्याख्या से परे है और संविधान की भावना के अनुरूप शासन चलाने का आह्वान करता है।
संवैधानिक नैतिकता भारतीय संविधान में कैसे निहित है
- संविधान की सर्वोच्चता (अनुच्छेद 13, 32 और 226): यह सुनिश्चित करता है कि कानून संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप हों, तथा अधिकारों की रक्षा के लिए न्यायालयों को सशक्त बनाता हो।
- विधि का शासन (अनुच्छेद 14 और 141): मनमानी को रोकने के लिए कानून के समक्ष समानता और न्यायिक निगरानी की गारंटी देता है।
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण (अनुच्छेद 19 और 21): राज्य के अतिक्रमण के विरुद्ध भाषण और व्यक्तिगत स्वतंत्रता जैसी स्वतंत्रता को बरकरार रखता है।
- सामाजिक न्याय और सम्मान (अनुच्छेद 15, 16, 17, 39A): भेदभाव, अस्पृश्यता और लैंगिक आधारित बहिष्कार का निषेध करता है व समान न्याय और सकारात्मक कार्रवाई को मजबूत करता है।
- लोकतांत्रिक शासन (अनुच्छेद 51A, 75 और 164): सरकार की जवाबदेही और नागरिक जिम्मेदारियों को अनिवार्य बनाता है।
- धर्मनिरपेक्षता और बहुलवाद (प्रस्तावना, अनुच्छेद 25-30): धार्मिक स्वतंत्रता, अल्पसंख्यक अधिकारों को सुनिश्चित करता है और बहुसंख्यक प्रभुत्व को रोकता है।
- DPSP (भाग IV-अनुच्छेद 38, 39, 41): सामाजिक न्याय, आर्थिक समानता और कल्याण को बढ़ावा देता है और यह सुनिश्चित करता है कि शासन संवैधानिक नैतिकता के अनुरूप हो।
- शक्तियों का पृथक्करण (अनुच्छेद 50, 121, 211): शक्ति के संकेन्द्रण को रोकने के लिए विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच नियंत्रण और संतुलन हो।
- लोकतांत्रिक संस्थाएँ (अनुच्छेद 324): स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव, न्यायिक स्वतंत्रता और संसदीय जवाबदेही व्यवहार में संवैधानिक नैतिकता को प्रतिबिंबित करते हैं।
संवैधानिक नैतिकता की न्यायिक व्याख्याएँ
- केशवानंद भारती (वर्ष 1973): मूल संरचना सिद्धांत को परिभाषित किया और मौलिक सिद्धांतों को बदलने वाले संशोधनों को रोका।
- एस.आर. बोम्मई (वर्ष 1994): धर्मनिरपेक्षता की, संवैधानिक अधिदेश के रूप में पुनः पुष्टि की।
- नवतेज सिंह जौहर (वर्ष 2018): सामाजिक नैतिकता पर LGBTQ+ अधिकारों को बरकरार रखते हुए IPC की धारा 377 को हटा दिया गया।
- शायरा बानो (वर्ष 2017): ट्रिपल तलाक को असंवैधानिक घोषित किया गया, लैंगिक न्याय सुनिश्चित किया गया।
- सबरीमाला वाद (वर्ष 2018): महिलाओं के प्रवेश की अनुमति दी गई और कहा गया कि सत्तारूढ़ रीति-रिवाजों के अंतर्गत लैंगिक समानता का सम्मान किया जाना चाहिए।
- न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ वाद (वर्ष 2018): गोपनीयता को मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित किया गया और व्यक्तिगत स्वायत्तता की रक्षा की गई।
- जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (वर्ष 2018): IPC की धारा 497 (व्यभिचार) को असंवैधानिक घोषित करते हुए इसे रद्द कर दिया गया।
संवैधानिक नैतिकता, बहुसंख्यकवाद का मुकाबला करते हुए प्रगतिशील, अधिकार-केंद्रित शासन सुनिश्चित करता है। सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर सामाजिक नैतिकता पर संवैधानिक नैतिकता को बरकरार रखा है। हालाँकि, इसकी प्रभावशीलता संस्थागत सत्यनिष्ठा और सार्वजनिक जागरूकता पर निर्भर करती है।
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