Q. 73वें और 74वें संशोधन के माध्यम से विकेंद्रीकरण के लिए संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद, स्थानीय शासन अप्रभावी बना हुआ है। स्थानीय निकायों को मजबूत करने के लिए बहुआयामी सुधारों का सुझाव देते हुए प्रशासनिक, वित्तीय और संस्थागत चुनौतियों का आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए। (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग 

  • 73वें एवं 74वें संशोधन के माध्यम से विकेंद्रीकरण के लिए संवैधानिक प्रावधानों पर प्रकाश डालिए।
  • इन संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद स्थानीय शासन की अप्रभावशीलता पर चर्चा कीजिए।
  • इससे संबंधित प्रशासनिक, वित्तीय एवं संस्थागत चुनौतियों का विश्लेषण कीजिए।
  • स्थानीय निकायों को मजबूत करने के लिए बहुआयामी सुधारों का सुझाव दीजिए।

उत्तर

विकेंद्रीकरण का तात्पर्य केंद्र सरकार से प्रशासन के निचले स्तरों पर सत्ता, संसाधन एवं निर्णय लेने के हस्तांतरण से है। 73वें तथा 74वें संविधान संशोधन (1992) का उद्देश्य पंचायती राज संस्थाओं (PRIs) एवं शहरी स्थानीय निकायों (ULBs) को सशक्त बनाना था। इन प्रावधानों के बावजूद, कई स्थानीय निकाय सीमित वित्तीय स्वायत्तता तथा प्रशासनिक नियंत्रण से जूझ रहे हैं, जिससे जमीनी स्तर पर प्रभावी शासन में बाधा आ रही है।

73वें एवं 74वें संशोधन के माध्यम से विकेंद्रीकरण के लिए संवैधानिक प्रावधान

  • स्थानीय निकायों को संवैधानिक दर्जा: 73वें एवं 74वें संशोधन (1992) ने पंचायतों तथा शहरी स्थानीय निकायों (ULBs) को संवैधानिक मान्यता प्रदान की, जिससे विकेंद्रीकृत शासन के लिए प्रत्यक्ष चुनाव एवं वैधानिक शक्तियाँ सुनिश्चित हुईं।
  • त्रि-स्तरीय शासन प्रणाली: 73वें संशोधन ने जमीनी स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए तीन-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली ग्राम पंचायत, ब्लॉक पंचायत एवं जिला परिषद की शुरुआत की।
  • कार्यों का हस्तांतरण: संविधान की 11वीं एवं 12वीं अनुसूची में पंचायतों को 29 विषय तथा शहरी स्थानीय निकायों को 18 विषय सौंपे गए हैं, जो स्थानीय शासन की जिम्मेदारियों को कवर करते हैं।
  • राज्य वित्त आयोग (SFCs) एवं राजकोषीय हस्तांतरण: अनुच्छेद 243I के अनुसार, राज्य वित्त आयोग को प्रत्येक पाँच वर्ष में स्थानीय निकाय के वित्त की समीक्षा करनी चाहिए तथा संसाधन-साझाकरण तंत्र की सिफारिश करनी चाहिए।
  • आरक्षण एवं भागीदारी: अनुच्छेद 243D एवं 243T, PRIs तथा शहरी स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण प्रदान करते हैं, जिसमें SCs, STs, एवं OBCs के लिए सीटें शामिल हैं, जिससे राजनीतिक समावेशन बढ़ता है।

संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद स्थानीय शासन की अप्रभावशीलता 

  • सीमित वित्तीय स्वायत्तता: स्थानीय निकाय राज्य एवं केंद्रीय अनुदानों पर बहुत अधिक निर्भर हैं, केवल 5-10% राजस्व सृजन के साथ, जिससे राजकोषीय निर्भरता बढ़ती है। 
  • समानांतर नौकरशाही नियंत्रण: राज्य सरकारें स्थानीय निकायों की शक्ति को सीमित करते हुए, अर्द्ध-सरकारी एजेंसियों के माध्यम से शहरी नियोजन, स्वच्छता एवं जल आपूर्ति पर नियंत्रण बनाए रखती हैं। 
    • उदाहरण के लिए: बेंगलुरु की जल आपूर्ति का प्रबंधन BWSSB द्वारा किया जाता है, न कि BBMP द्वारा, जिससे शहरी बुनियादी ढाँचे पर नगरपालिका का नियंत्रण कम हो जाता है।
  • राज्य वित्त आयोग (SFC) कार्यान्वयन में विलम्ब: कई राज्य SFC के गठन में देरी करते हैं या सिफारिशों को अनदेखा करते हैं, जिससे स्थानीय निकायों के लिए राजकोषीय नियोजन बाधित होता है। 
  • कमजोर ग्राम सभाएँ एवं सार्वजनिक जवाबदेही: कानूनी प्रावधानों के बावजूद, ग्राम सभाएँ कमजोर बनी हुई हैं, अक्सर राजनीतिक अभिजात वर्ग या नौकरशाहों द्वारा हेरफेर की जाती हैं, जिससे भागीदारी शासन कम हो जाता है। 
  • कठोर ग्रामीण-शहरी वर्गीकरण: कई क्षेत्र शहरी क्षेत्रों के रूप में कार्य करते हैं, लेकिन ग्रामीण के रूप में वर्गीकृत रहते हैं, जिससे प्रशासनिक भ्रम एवं आवश्यक सेवाओं की कमी होती है।

स्थानीय शासन में चुनौतियाँ

प्रशासनिक चुनौतियाँ

  • नौकरशाही हस्तक्षेप: राज्य द्वारा नियुक्त जिला कलेक्टर एवं नगर आयुक्त निर्वाचित स्थानीय प्रतिनिधियों को दरकिनार करते हुए निधि वितरण को नियंत्रित करते हैं।
  • प्रशासनिक क्षमता का अभाव: पंचायतों एवं ULBs में प्रशिक्षित कर्मियों तथा तकनीकी विशेषज्ञता की कमी है, जिससे शासन की दक्षता में बाधा आती है।

वित्तीय चुनौतियाँ

  • अकुशल राजस्व जुटाना: स्थानीय कर संग्रह, विशेष रूप से संपत्ति कर एवं उपयोगकर्ता शुल्क, खराब तरीके से लागू किया जाता है, जिससे वित्तीय बाधाएँ उत्पन्न होती हैं।
    • उदाहरण के लिए: वर्ष 2023-2024 में, दिल्ली के नगर निगमों को कम संपत्ति कर वसूली का सामना करना पड़ेगा, जिससे सेवा वितरण प्रभावित होगा।
  • केंद्र प्रायोजित योजनाओं (CSSs) पर निर्भरता: मनरेगा, स्वच्छ भारत एवं जल जीवन मिशन से मिलने वाले फंड सख्त दिशा-निर्देशों के साथ आते हैं, जिससे स्थानीय लचीलापन सीमित हो जाता है।

संस्थागत चुनौतियाँ

  • वित्तीय पारदर्शिता का अभाव: लेखापरीक्षित वित्तीय रिपोर्ट एवं डिजिटल ट्रैकिंग की अनुपस्थिति भ्रष्टाचार तथा अकुशल निधि उपयोग को बढ़ावा देती है।
  • कम उधार लेने की शक्तियाँ: हालाँकि स्थानीय निकाय स्थानीय प्राधिकरण ऋण अधिनियम (1914) के तहत उधार ले सकते हैं, ऋण-योग्यता की कमी बुनियादी ढाँचे के लिए वित्तपोषण को प्रतिबंधित करती है।

स्थानीय निकायों को मजबूत करने के लिए बहुआयामी सुधार

  • राजकोषीय स्वायत्तता को मजबूत करना: स्थानीय राजस्व सृजन में सुधार के लिए संपत्ति कर सुधार, उपयोगकर्ता शुल्क एवं GST राजस्व-साझाकरण मॉडल लागू करना।
  • राज्य वित्त आयोगों (SFCs) को सशक्त बनाना: SFC की सिफारिशों को कानूनी रूप से बाध्यकारी बनाना एवं स्थानीय निकायों को समय पर निधि हस्तांतरण सुनिश्चित करना।
  • डिजिटल एवं प्रशासनिक क्षमता को बढ़ाना: बेहतर स्थानीय नियोजन के लिए पंचायत अधिकारियों को e-गवर्नेंस, GIS मैपिंग एवं वित्तीय प्रबंधन में प्रशिक्षित करना।
  • समानांतर नौकरशाही नियंत्रण को कम करना: जलापूर्ति, स्वच्छता एवं शहरी नियोजन जैसे कार्यों को सीधे ULBs तथा पंचायतों को हस्तांतरित करना।
  • ग्रामीण-शहरी वर्गीकरण में सुधार: पेरी-अर्बन जोन को पहचानने एवं उचित शासन संरचना सुनिश्चित करने के लिए ग्रामीण-शहरी वर्गीकरण प्रणाली को अपडेट करना।

सशक्त स्थानीय शासन समावेशी विकास की आधारशिला है। राजकोषीय स्वायत्तता को मजबूत करना, क्षमता निर्माण सुनिश्चित करना, पारदर्शिता के लिए प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना एवं नागरिक भागीदारी को बढ़ावा देना जमीनी स्तर पर लोकतंत्र को पुनर्सक्रिय कर सकता है। सहकारी संघवाद के साथ एक ‘बॉटम टू टॉप’ दृष्टिकोण स्थानीय निकायों को शासन के इंजन में बदल सकता है, जिससे भारत के स्थायी भविष्य के लिए ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ एक वास्तविकता बन सकती है।

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