प्रश्न की मुख्य माँग
- न्यायिक उदाहरणों के आलोक में आरक्षण को अधिकतम सीमा से आगे बढ़ाने के संवैधानिक निहितार्थ लिखिये।
- न्यायिक उदाहरणों के आलोक में आरक्षण को अधिकतम सीमा से आगे बढ़ाने के नीतिगत निहितार्थ लिखिये।
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उत्तर
50% से अधिक आरक्षण बढ़ाने का सवाल केवल एक कानूनी बहस नहीं है, बल्कि यह भारत की बहुआयामी और जटिल सामाजिक संरचना, ऐतिहासिक असमानताओं और सामाजिक न्याय की चुनौतियों का भी स्पष्ट प्रतिबिंब है। बिहार जैसे राज्यों में 85% आरक्षण की माँग और देश में जाति जनगणना को लेकर चल रही गंभीर चर्चाओं के संदर्भ में, यह मुद्दा कानून, सार्वजनिक नीति और राजनीति के संगम पर गहन महत्व और संवेदनशीलता प्राप्त कर चुका है।
आरक्षण को अधिकतम सीमा से आगे बढ़ाने के संवैधानिक निहितार्थ
- अनुच्छेद 15-16 और सामाजिक न्याय के बीच तनाव: 50% की सीमा पार करना औपचारिक समानता और वास्तविक समानता (substantive equality) के बीच संतुलन को परखता है, जैसा कि अनुच्छेद 15(4)/(5) और 16(4) में प्रदर्शित है।
- उदाहरण के लिए: एम.आर. बालाजी बनाम मैसूर राज्य (वर्ष 1962) में सर्वोच्च न्यायलय ने स्पष्ट किया कि आरक्षण विशेष प्रावधानों के तहत हो सकता है लेकिन इसे “उचित सीमा” के भीतर ही लागू किया जाना चाहिए। इसी निर्णय से 50% की सीमा मानक के रूप में स्थापित हुई।
- संवैधानिक परंपरा के रूप में 50% नियम: इंद्रा साहनी (वर्ष 1992) के निर्णय ने 50% की सीमा को एक संवैधानिक मानक और बाध्यता के रूप में स्थापित किया। न्यायालय ने कहा कि इसे केवल असाधारण परिस्थितियों में ही पार किया जा सकता है।
- उदाहरण के लिए: इस निर्णय में सर्वोच्च न्यायलय ने पिछड़े वर्गों के लिए 27% आरक्षण को मान्यता दी, लेकिन सामान्य 50% की सीमा की पुष्टि भी की, जिससे संविधान में संतुलन बना रहा।
- वास्तविक समानता का दृष्टिकोण: एन.एम. थॉमस (वर्ष 1976) के वाद ने यह स्पष्ट किया कि आरक्षण का उद्देश्य समानता को बढ़ावा देना है, अपवाद उत्पन्न करना नहीं। इसका अर्थ है कि संवैधानिक रूप से यदि उचित ठहराया जाए, तो उच्चतर प्रतिशत के आरक्षण की संभावना बनी रहती है। यह सामाजिक न्याय के व्यापक दृष्टिकोण को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेने का आधार देता है।
- संघीय विविधताएं बनाम संवैधानिक सीमाएँ: राज्य अपनी जनसांख्यिकी और सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार आरक्षण का निर्धारण कर सकते हैं। फिर भी, सभी राज्यों को संविधान के समानता के सिद्धांत के अंतर्गत रहना आवश्यक है, जिससे संघीय ढाँचे और समान अवसर के बीच संतुलन बना रहे।
- क्रीमी लेयर सिद्धांत का संवैधानिक महत्त्व: इंद्रा साहनी निर्णय ने यह स्पष्ट किया कि OBC वर्ग के उच्च आय वाले सदस्य, जिन्हें क्रीमी लेयर कहा जाता है, आरक्षण से बाहर होंगे। इससे वास्तविक समानता सुनिश्चित होती है और आरक्षण का उद्देश्य कमजोर वर्गों तक सीमित रहता है।
- उदाहरण के लिए: हाल–फिलहाल में वर्तमान में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए समान प्रणाली लागू करने पर सर्वोच्च न्यायलय विचार कर रहा है, जिससे सामाजिक न्याय के संतुलन को बनाए रखा जा सके।
- आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग और आरक्षण सीमा की लचीलापन: जनहित अभियान (वर्ष 2022) के फैसले में सर्वोच्च न्यायलय ने 10% आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण को मान्यता दी। न्यायालय ने कहा कि 50% की सीमा केवल पिछड़े वर्गों के आरक्षण पर लागू होती है, आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए अलग व्यवस्था की जा सकती है।
- उदाहरण के लिए: न्यायालय ने EWS को एक अलग श्रेणी माना और कुल केंद्रीय आरक्षण 59.5% पर बरकरार रखा ।
- मूल संरचना की सुरक्षा: आरक्षण को 85% तक बढ़ाना समान अवसर के अधिकार को कमजोर कर सकता है। यह कदम संविधान की मूल भावना और मूलभूत ढाँचे के सिद्धांत की समीक्षा के दायरे में आ सकता है। इसलिए, संवैधानिक रूप से अधिक आरक्षण बढ़ाना संवेदनशील और न्यायिक जाँच का विषय है।
आरक्षण को अधिकतम सीमा से आगे बढ़ाने के नीतिगत निहितार्थ
- खुली प्रतिस्पर्धा को सीमित करने का जोखिम: अत्यधिक उच्च प्रतिशत में आरक्षण देने से सामान्य प्रतिस्पर्धा के अवसर कम हो सकते हैं, जिससे योग्यता आधारित चयन, प्रशासनिक दक्षता और संस्थागत गुणवत्ता पर प्रतिकूल असर पड़ सकता है। ऐसे कदम न्यायपालिका की कड़ी समीक्षा को आमंत्रित करते हैं।
- उदाहरण के लिए: 85% आरक्षण की व्यवस्था समान अवसर के संवैधानिक सिद्धांत का उल्लंघन कर सकती है।
- आँकड़ा-आधारित नीति निर्धारण की आवश्यकता: सीमा से परे जाकर कोई भी स्थायी बदलाव केवल सशक्त आँकड़ों और जाति आधारित गणना के आधार पर ही उचित ठहराया जा सकता है। इसलिए जाति जनगणना जैसे उपाय आवश्यक हैं ताकि आरक्षण की सीमा में किए गए विचलन को तार्किक आधार दिया जा सके।
- लाभों का एक ही वर्ग में सिमटना: यदि वर्तमान व्यवस्था में सुधार नहीं हुआ तो आरक्षण के लाभ कुछ सीमित जातियों या उप-जातियों में ही केंद्रित रह जाएंगे। इससे नीति की वैधता और सामाजिक न्याय का आधार कमजोर हो जाएगा।
- उदाहरण के लिए: रोहिणी आयोग ने पाया कि लगभग 97% केंद्रीय OBC लाभ केवल 25% उप-जातियों को मिलते हैं, जबकि लगभग 1,000 OBC समूहों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला।
- समूहों के भीतर समानता के लिए उप- वर्गीकरण: नीतिगत रूप से यह आवश्यक है कि OBC, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के भीतर सबसे अधिक वंचित वर्गों को प्राथमिकता दी जाए, ताकि लाभ का वितरण अधिक समान और न्यायपूर्ण हो।
- SC/ST के लिए क्रीमी लेयर पर बहस: यदि इन वर्गों में भी दो स्तर या क्रीमी लेयर जैसी व्यवस्था लागू की जाए तो समूहों के भीतर समानता को बढ़ाया जा सकता है। हालाँकि, इससे खाली पदों की समस्या और प्रशासनिक जटिलताएँ भी उत्पन्न हो सकती हैं।
- उदाहरण के लिए: देविंदर सिंह (2024) वाद के निर्णय में न्यायाधीशों ने अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए क्रीमी लेयर नीति पर विचार करने की बात कही थी, लेकिन बाद में केंद्र सरकार ने इसे लागू करने से इंकार कर दिया।
- रिक्तियाँ भरने से क्रियान्वयन में अंतराल का संकेत मिलता है: केवल आरक्षण प्रतिशत बढ़ाने से यदि नियुक्ति तंत्र और प्रशिक्षण व्यवस्था मजबूत न की जाए, तो अनेक पद खाली रह जाते हैं। इससे आरक्षण का उद्देश्य ही अधूरा रह जाता है।
- आरक्षण के साथ पूरक साधनों की आवश्यकता: सामाजिक संघर्ष से बचने और समाज की व्यापक आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए आरक्षण के साथ-साथ शिक्षा, कौशल-विकास, और रोजगार विस्तार जैसी नीतियों को भी बढ़ावा देना आवश्यक है। तभी आरक्षण का वास्तविक प्रभाव और सामाजिक सामंजस्य दोनों सुनिश्चित हो पाएंगे।
50% से अधिक आरक्षण बढ़ाने की माँग का समाधान समान अवसर और सामाजिक न्याय के बीच संतुलन स्थापित करके ही संभव है। वर्ष 2027 की जनगणना आवश्यक आँकड़े उपलब्ध कराएगी, जिनके आधार पर आरक्षण की समीक्षा की जा सकती है। OBC का उप-श्रेणीकरण और अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए दो-स्तरीय व्यवस्था न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित कर सकती है। साथ ही, समाज की बढ़ती आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए कौशल विकास और रोजगार के अवसरों का विस्तार भी उतना ही आवश्यक है।
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