प्रश्न की मुख्य माँग
- विश्लेषण कीजिए कि क्या राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ, संवैधानिक आवश्यकता के बजाय राजनीतिक लाभ उठाने का साधन बन गई हैं।
- संघीय संतुलन और लोकतांत्रिक वैधता पर सर्वोच्च न्यायालय के हालिया निर्णयों के परिणामों का परीक्षण कीजिए।
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उत्तर
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 163 और अनुच्छेद 200 में निहित राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का उद्देश्य, संवैधानिक सुरक्षा उपाय के रूप में कार्य करना था। हालाँकि, हालिया उदाहरणों से पता चलता है कि इन शक्तियों का राजनीतिक लाभ उठाने के लिए तेजी से उपयोग किया जा रहा है, जिससे संघीय संतुलन और लोकतांत्रिक वैधता पर उनके प्रभाव के संबंध में चिंताएँ बढ़ रही हैं।
विवेकाधीन शक्तियाँ: संवैधानिक आवश्यकता या राजनीतिक लाभ
- मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति (अनुच्छेद 164): राज्यपालों के पास मुख्यमंत्रियों की नियुक्ति के संबंध में विवेकाधिकार होता है, विशेषकर त्रिशंकु विधानसभाओं में।
- उदाहरण: वर्ष 2018 में, कर्नाटक के राज्यपाल ने कांग्रेस-JD(S) गठबंधन के बहुमत होने के बावजूद भाजपा को आमंत्रित किया, जिससे राजनीतिक पक्षपात संबंधी चिंताएँ बढ़ गईं।
- विधेयकों पर स्वीकृति में बिलम्ब (अनुच्छेद-200): राज्यपाल राज्य विधानों पर स्वीकृति में देरी कर सकते हैं या रोक सकते हैं, जिससे शासन में बाधा उत्पन्न होती है।
- उदाहरण: तमिलनाडु के राज्यपाल ने 10 विधेयकों पर स्वीकृति में देरी की जिसके कारण सर्वोच्च न्यायालय (वर्ष 2024) ने ऐसी देरी की संवैधानिकता पर सवाल उठाया।
- राष्ट्रपति के लिए विधेयकों का आरक्षण (अनुच्छेद-200): राज्यपाल राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयकों को आरक्षित कर सकते हैं, जिससे अक्सर राज्य की नीति बाधित होती है।
- उदाहरण: कर्नाटक में राज्यपाल ने दो विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित किया था। संवैधानिक संदेहों का हवाला देते हुए और राज्य विधानमंडल को दरकिनार करते हुए सहकारी समिति विधेयक को पारित किया गया।
- राज्य सरकारों की बर्खास्तगी (अनुच्छेद 356 से अनुच्छेद 174 तक): राज्यपाल राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर सकते हैं, परंतु ऐसा कभी-कभी विवादास्पद तरीके से होता है।
- उदाहरण: वर्ष 1984 में, आंध्र प्रदेश के राज्यपाल ने राज्य सरकार को बर्खास्त कर दिया।
- प्रशासन में हस्तक्षेप (अनुच्छेद 163): सहायक और परामर्शी भूमिका होने के बावजूद कुछ राज्यपाल कार्यकारी मामलों में हस्तक्षेप करते हैं।
- उदाहरण: पश्चिम बंगाल में राज्यपाल द्वारा राज्य की नीतियों की सीधी आलोचना के कारण मुख्यमंत्री के साथ अक्सर संघर्ष होता था।
- क्षमादान शक्तियाँ (अनुच्छेद 161): राज्यपाल क्षमादान और दंड-स्थगन दे सकते हैं जिससे पारदर्शिता पर बहस छिड़ जाती है।
- उदाहरण: राजीव गांधी मामले के दोषियों को रिहा करने में तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा की गई विलम्ब के कारण कानूनी जाँच हुई और सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया (वर्ष 2023)।
- विश्वविद्यालय मामलों में भूमिका: राज्यपाल, कुलपति के रूप में विश्वविद्यालय की नियुक्तियों को प्रभावित करते हैं , जिससे कार्यकारी-विधायी संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है।
- उदाहरण: केरल में विश्वविद्यालय संबंधित नियुक्तियों में राज्यपाल की भूमिका पर विवाद के कारण राज्य में विरोध प्रदर्शन हुये और शासन संबंधी चिंताएँ उत्पन्न हुईं।
संघीय संतुलन और लोकतांत्रिक वैधता पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के परिणाम
- संवैधानिक सीमाओं की पुनः पुष्टि: सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर बल दिया है कि राज्यपालों को संवैधानिक सीमाओं के भीतर कार्य करना चाहिए।
- उदाहरण: तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल (वर्ष 2025) वाद में न्यायालय ने स्पष्ट किया कि विवेकाधीन शक्तियाँ, विशिष्ट स्थितियों तक ही सीमित हैं।
- सहकारी संघवाद को बढ़ावा देना: सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों ने सामंजस्यपूर्ण केंद्र-राज्य संबंधों के महत्त्व को रेखांकित किया है।
- उदाहरण: हालिया वादों में न्यायालय की टिप्पणियाँ, राज्य सरकारों और राज्यपालों के बीच परस्पर सम्मान की वकालत करती हैं ।
- विधायी प्रक्रियाओं को मजबूत बनाना: न्यायपालिका ने विधायी स्वीकृति में होने वाली अनावश्यक देरी को रोकने के लिए काम किया है।
- उदाहरण: सर्वोच्च न्यायालय ने तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा विधेयकों को मंजूरी देने में देरी की आलोचना की।
- शक्तियों के स्वच्छंद उपयोग को सीमित करना: न्यायिक जाँच ने विवेकाधीन शक्तियों के स्वच्छंद उपयोग पर अंकुश लगाया है ।
- उदाहरण: S.R.Bommai वाद (वर्ष 1994) में, न्यायालय ने राजनीतिक लाभ के लिए अनुच्छेद-356 के दुरुपयोग को रोकने के लिए मिसाल कायम की।
- जवाबदेही सुनिश्चित करना: न्यायपालिका ने राज्यपालों को उनके कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराया है।
- उदाहरण: न्यायालयों ने राज्यपालों के उन निर्णयों पर सवाल उठाए हैं, जो निर्वाचित राज्य सरकारों को कमजोर करते प्रतीत होते हैं ।
- भूमिकाओं का स्पष्टीकरण: निर्णयों में राज्यपालों और राज्य सरकारों की भूमिकाओं को रेखांकित किया गया है।
- उदाहरण: न्यायालय ने दोहराया है कि राज्यपाल संवैधानिक प्रमुख हैं, न कि समानांतर सत्ता केंद्र।
- लोकतांत्रिक लोकाचार का संरक्षण: न्यायिक हस्तक्षेप का उद्देश्य लोकतांत्रिक सिद्धांतों को कायम रखना है।
यद्यपि राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ, संवैधानिक रूप से स्वीकृत हैं, राजनीतिक उद्देश्यों के लिए उनका दुरुपयोग संघवाद और लोकतांत्रिक वैधता को कमजोर करता है। न्यायिक हस्तक्षेपों ने संवैधानिक सीमाओं को फिर से स्थापित करने की कोशिश की है व भारत के लोकतांत्रिक लोकाचार को बनाए रखने के लिए जवाबदेही और सहकारी शासन की आवश्यकता पर बल दिया है।
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