प्रश्न की मुख्य माँग
- विधायी प्रक्रिया में राज्यपाल की संवैधानिक स्थिति के बारे में लिखिये।
- स्वीकृति देने या न देने में राज्यपाल के अधिकार की कमियों का उल्लेख कीजिए।
- आगे की राह और आवश्यक सुधार लिखिये।
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उत्तर
भारत का संविधान, विधायी प्रक्रिया में राज्यपाल की भूमिका के लिए एक स्पष्ट रूपरेखा प्रदान करता है, मुख्य रूप से अनुच्छेद-200 के तहत राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों को स्वीकृति प्रदान करने में राज्यपाल की भूमिका को संविधान द्वारा परिभाषित किया गया है, ताकि कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच संतुलन बनाए रखते हुए संघीय शासन का सुचारू रूप से संचालन किया जा सके।
विधायी प्रक्रिया में राज्यपाल की संवैधानिक स्थिति
- संविधान का अनुच्छेद-200: राज्यपाल को विधेयक पर अनुमति देने, अनुमति रोकने, विधेयक को पुनर्विचार के लिए लौटाने या राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को आरक्षित रखने की शक्ति प्रदान करता है।
- राज्यपाल के पास चार विकल्प: अनुच्छेद-200 के तहत राज्यपाल के पास चार विकल्प होते हैं:
- विधेयक को स्वीकृति प्रदान करना।
- विधेयक पर स्वीकृति रोकना।
- विधेयक को विधानमंडल द्वारा पुनर्विचार के लिए लौटाना (धन विधेयक को छोड़कर)।
- विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित करना।
- विवेकाधीन शक्ति: राज्यपाल को कुछ मामलों में विवेकाधीन शक्ति प्राप्त है, लेकिन अनुच्छेद-163 के अनुसार वह अपवादात्मक परिस्थितियों को छोड़कर मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करने के लिए बाध्य होता है।
- कोई अनिश्चितकालीन विलंब नहीं: राज्यपाल को “जितनी जल्दी हो सके” विधेयक पर निर्णय लेना होता है। संविधान, राज्यपाल के लिए विधेयकों पर कार्रवाई करने हेतु कोई स्पष्ट समय-सीमा तय नहीं करता है।
- संघीय ढाँचे में भूमिका: राज्यपाल राज्य विधानमंडल और केंद्र के बीच एक कड़ी के रूप में कार्य करता है, तथा यह सुनिश्चित करता है कि राज्य द्वारा पारित कानून केंद्रीय कानूनों और संविधान के साथ संघर्ष न करें।
स्वीकृति देने या न देने में राज्यपाल के अधिकार की कमियाँ
- स्वीकृति के लिए समय सीमा: सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य विधानमंडल द्वारा पुनर्विचार के बाद राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक को स्वीकृति देने के लिए अधिकतम एक महीने की अवधि निर्धारित की है। इस अवधि से अधिक की देरी को असंवैधानिक माना जाता है। राष्ट्रपति के लिए आरक्षित विधेयकों पर राज्यपाल को तीन महीने के भीतर कार्रवाई करनी होती है।
- राज्यपाल अनिश्चित काल तक स्वीकृति रोक नहीं सकते: राज्यपाल किसी विधेयक पर स्वीकृति को अनिश्चित काल तक रोक नहीं सकते, क्योंकि बिना किसी वैध कारण के लंबे समय तक विलंब करना असंवैधानिक “पॉकेट वीटो” के समान है।
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- उदाहरण के लिए: तमिलनाडु वाद में, न्यायालय ने घोषणा की कि 10 विधेयक, जो अत्यधिक लम्बे समय से लंबित थे, को राज्यपाल द्वारा उचित समय-सीमा के भीतर कार्रवाई करने में विफल रहने के कारण स्वीकृति प्राप्त हो गई मानी जाएगी।
- राज्यपाल का विवेक संवैधानिक होना चाहिए: राज्यपाल का सहमति को रोकने का विवेक, संविधान द्वारा सीमित है और यह वैध कारणों पर आधारित होना चाहिए, न कि व्यक्तिगत या राजनीतिक पूर्वाग्रहों पर।
- उदाहरण के लिए: राज्यपाल मनमाने ढंग से सहमति को रोक नहीं सकते, विवेक का उपयोग केवल तभी किया जाना चाहिए जब वैध संवैधानिक चिंताएँ मौजूद हों।
- अनिवार्य आवश्यकता: अनुच्छेद-163 के अनुसार, राज्यपाल के लिए कुछ असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करना आवश्यक होता है।
- राष्ट्रपति के विचारार्थ विधेयकों को आरक्षित रखने की कमियाँ: राज्यपाल किसी विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ आरक्षित रख सकते हैं, लेकिन ऐसा तीन महीने के भीतर किया जाना चाहिए, और ऐसा केवल असाधारण परिस्थितियों में ही किया जा सकता है, जैसे कि तब जब विधेयक और राष्ट्रीय हितों के बीच संघर्ष की स्थिति हो।
- न्याय सुनिश्चित करने में सर्वोच्च न्यायालय की भूमिका: सर्वोच्च न्यायालय राज्यपाल द्वारा अनुचित देरी या निष्क्रियता को संबोधित करने के लिए अनुच्छेद-142 का प्रयोग कर सकता है, जिससे पूर्ण न्याय सुनिश्चित हो सके।
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- उदाहरण के लिए: तमिलनाडु वाद में, न्यायालय ने माना कि विधेयकों को स्वीकृति मिल गई है, जिससे विधायी प्रक्रिया की अखंडता की रक्षा करने में उसकी भूमिका का पता चलता है।
आगे की राह
- समय पर निर्णय लेना: सर्वोच्च न्यायालय ने सुझाव दिया है कि राज्यपालों को अनिश्चित काल तक स्वीकृति में देरी करने से बचना चाहिए तथा समय पर निर्णय लेना चाहिए।
- शीघ्र संचार: राज्यपाल को राज्य विधानमंडल के साथ शीघ्र संचार करना चाहिए, तथा अनुमोदन रोकने या विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने के कारणों की जानकारी देनी चाहिए।
- विवेकाधीन शक्तियों पर स्पष्टीकरण: राज्यपाल की भूमिका और विवेकाधिकार की सीमाओं को परिभाषित करने के लिए एक स्पष्ट संवैधानिक या न्यायिक ढाँचे की आवश्यकता होती है।
- स्पष्ट दिशानिर्देश स्थापित करना: स्वीकृति प्रदान करने में राज्यपाल की कार्रवाई के लिए स्पष्ट दिशानिर्देश निर्धारित करने से पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा मिलता है।
- बढ़ी हुई जवाबदेही: यदि राज्यपाल के कार्य राजनीति से प्रेरित प्रतीत होते हैं तो उनकी संसदीय या न्यायिक समीक्षा होनी चाहिए।
- न्यायिक निगरानी को मजबूत करना: न्यायिक निगरानी को मजबूत करने से राज्यपाल की शक्तियों का दुरुपयोग रोका जा सकेगा तथा संवैधानिक सिद्धांतों का अनुपालन सुनिश्चित होगा।
राज्यपाल के पास संविधान के तहत विधेयकों को मंजूरी देने का महत्त्वपूर्ण अधिकार है, और इस अधिकार का इस्तेमाल संविधान के अनुसार ही किया जाना चाहिए। विधायी प्रभावशीलता और लोकतांत्रिक अखंडता बनाये रखने के लिए, सर्वोच्च न्यायलय शीघ्र निर्णय, जवाबदेही और मंत्रिपरिषद की सलाह का पालन करने को बढ़ावा देता है।
सर्वोच्च न्यायालय के विभिन्न निर्णय/सिफारिशें
- शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य (वर्ष 1974): संविधान द्वारा उल्लिखित विशिष्ट परिस्थितियों को छोड़कर, राज्यपाल को मंत्रिपरिषद की सलाह के आधार पर कार्य करना आवश्यक है।
- नबाम रेबिया बनाम उपसभापति (वर्ष 2016): राज्यपाल को पक्षपातपूर्ण तरीके से कार्य नहीं करना चाहिए या बिना उचित कारणों के निर्वाचित सरकार के निर्णयों को रद्द नहीं करना चाहिए।
- रामेश्वर प्रसाद केस (वर्ष 2006): राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियों का प्रयोग संवैधानिक सिद्धांतों के अनुसार किया जाना चाहिए और इसे स्वच्छंद नहीं होना चाहिए।
- सरकारिया आयोग (वर्ष 1987) ने इस बात पर बल दिया कि विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखना एक नियमित प्रथा के बजाय अपवाद के रूप में माना जाना चाहिए।
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