प्रश्न की मुख्य माँग
- पाक जलडमरूमध्य और कच्चातीवु द्वीप पर भारत-श्रीलंका विवाद का ऐतिहासिक और कानूनी पहलू।
- द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करते हुए मत्स्यपालन विवाद को सुलझाने की आगे की राह।
|
उत्तर
प्रस्तावना
भारत और श्रीलंका, सांस्कृतिक तथा समुद्री संबंधों से जुड़े होने के बावजूद, अक्सर पाक जलडमरूमध्य और कच्चातीवु द्वीप पर मत्स्य विवाद का सामना करते हैं। वर्ष 1974 की संधि ने यद्यपि संप्रभुता का विधिक निपटारा कर दिया था, किंतु आज भी आजीविका दबाव और पारिस्थितिकी चिंताओं के कारण यह मुद्दा बना हुआ है। इसका समाधान विधि, इतिहास और तटीय समुदायों के कल्याण के बीच संतुलन साधने में निहित है।
मुख्य भाग
(A) ऐतिहासिक पहलू
- ऐतिहासिक संप्रभुता के प्रमाण: कच्चातीवु पर पुर्तगाली, डच और जाफना तमिल नियंत्रण के अभिलेख श्रीलंका के दावे को पुष्ट करते हैं, जिन्हें भारत ने संधि से पहले विचार में लिया।
- उदाहरण: मिनक्वियर्स और एक्रेहोस प्रकरण (ICJ, 1953) में क्षेत्रीय नियंत्रण के आधार पर संप्रभुता ब्रिटेन को दी गई थी।
- ऐतिहासिक जल का मान्यता प्राप्त स्वरूप: पाक जलडमरूमध्य और मन्नार की खाड़ी को ऐतिहासिक जल माना गया, जिससे संप्रभुता मजबूत हुई और तृतीय देशों की आवाजाही या मत्स्य अधिकार सीमित हुए।
- उदाहरण: मद्रास उच्च न्यायालय (वर्ष 1904, अन्नाकुमारु पिल्लई मामला) ने सीप और शंख मत्स्य अधिकारों पर पारंपरिक दावे को मान्यता दी।
- साझा मत्स्य परंपरा: सदियों से तमिलनाडु और उत्तरी श्रीलंका के मछुआरे इस क्षेत्र को साझा करते रहे हैं। विवाद ने इस परस्पर निर्भरता को बाधित किया।
(B) विधिक पहलू
- वर्ष 1974 भारत–श्रीलंका समुद्री सीमा संधि: इस संधि के तहत कच्चातीवु श्रीलंका को गया, जबकि भारतीय श्रद्धालुओं को सेंट एंथनी महोत्सव हेतु पहुँच की अनुमति बनी रही।
- उदाहरण: ‘पैक्टा सुंट सर्वंदा’ (Pacta Sunt Servanda) सिद्धांत के अनुसार अंतरराष्ट्रीय कानून में सीमा संधियाँ महत्त्वपूर्ण और बाध्यकारी होती हैं।
- संप्रभुता बनाम मत्स्य अधिकार: संप्रभुता का प्रश्न सुलझ चुका है, लेकिन मत्स्य अधिकार अलग विषय हैं, जिनका समाधान सहयोग से ही संभव है।
- अंतरराष्ट्रीय विधिक ढाँचा: UNCLOS अर्द्ध-संलग्न समुद्रों में सहयोग पर बल देता है। भारत का समुद्री सीमा स्वीकार करना इन दायित्वों के अनुरूप है।
स्पष्ट है कि कच्चातीवु की संप्रभुता का प्रश्न समाप्त हो चुका है, परंतु मत्स्य अधिकारों का समाधान मानवीय, पारिस्थितिकी और आजीविका संतुलन के आधार पर होना चाहिए।
मत्स्य विवाद सुलझाने एवं द्विपक्षीय संबंध मजबूत करने के उपाय
- कारीगर (Artisanal) और ट्रॉलर मछुआरों के बीच अंतर: कारीगर मछुआरों को सहूलियत दी जा सकती है, जबकि ट्रॉलरों को पारिस्थितिकी क्षति के कारण धीरे-धीरे बंद करना होगा।
- उदाहरण: श्रीलंका ने वर्ष 2017 में बॉटम ट्रॉलिंग पर प्रतिबंध लगाया, किंतु भारतीय ट्रॉलर अब भी इसे अपनाते हैं, जिससे मूँगा और झींगा आवास प्रभावित होते हैं।
- सामुदायिक स्तर पर संवाद: तमिलनाडु और उत्तरी श्रीलंका के संयुक्त मछुआरा संगठन मौसम और कोटा आधारित नियमन पर सहमति बना सकते हैं।
- संवेदनशीलता और भाईचारा निर्माण: श्रीलंकाई तमिल सांसद और मीडिया, गृहयुद्ध के दौरान उत्तरी मछुआरों की कठिनाइयों को सामने लाकर तमिलनाडु में सहानुभूति विकसित कर सकते हैं।
- संयुक्त समुद्री संसाधन प्रबंधन: कच्चातीवु में संयुक्त अनुसंधान केंद्र स्थापित कर मछली भंडार, प्रवाल स्वास्थ्य और सतत् मत्स्य प्रथाओं की निगरानी की जा सकती है।
- उदाहरण: यूरोपीय संघ के मत्स्य तंत्र की तरह एक द्विराष्ट्रीय समुद्री जीव विज्ञान केंद्र स्थापित किया जा सकता है।
- गहरे समुद्र में मत्स्य विकल्प: तमिलनाडु मछुआरों को भारत की 200-नॉटिकल मील EEZ में गहरे समुद्र में मत्स्यन के लिए प्रशिक्षण और सब्सिडी प्रदान की जानी चाहिए, ताकि विवादित उथले जल पर निर्भरता घटे।
निष्कर्ष
भारत–श्रीलंका मत्स्य विवाद का समाधान संप्रभुता पर बहस से आगे बढ़कर आजीविका और पारिस्थितिकी संतुलन पर केंद्रित होना चाहिए। संधियों का सम्मान करते हुए, आपसी सहानुभूति और सहयोगी उपाय—जैसे मौसमी कोटा, संयुक्त शोध और गहरे समुद्र में मत्स्य विकल्प—इस विवाद को शांति, समृद्धि और क्षेत्रीय साझेदारी में बदल सकते हैं।
To get PDF version, Please click on "Print PDF" button.
Latest Comments