प्रश्न की मुख्य माँग
- प्राचीन एवं मध्यकालीन भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं एवं चुनावी तंत्रों की प्रकृति, विशेष रूप से चोल काल पर बल देते हुए।
- ये ऐतिहासिक प्रथाएँ किस प्रकार से भारत की वर्तमान चुनावी प्रणाली में सुधारों को प्रेरित कर सकती हैं।
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उत्तर
भारत की लोकतांत्रिक परंपरा आधुनिक संवैधानिक ढाँचों से भी प्राचीन है। प्राचीन गणराज्यों की सभाओं से लेकर चोल काल की स्थानीय ग्राम सभाओं (कुदावोलाई प्रणाली) तक, संरचित सहभागी शासन व्यवस्था विद्यमान थी। इन ऐतिहासिक व्यवस्थाओं में विकेंद्रीकरण, जवाबदेही और नैतिक पात्रता प्रतिबिम्बित होती थीं जो चुनाव सुधारों के लिए आज भी प्रासंगिक हैं।
प्राचीन और मध्यकालीन भारत में लोकतांत्रिक संस्थाओं और चुनावी तंत्र की प्रकृति
प्राचीन भारत
- ऋग्वेद से साक्ष्य: ऋग्वेद में सभा, जो वरिष्ठों की एक न्यायिक परिषद थी, तथा समिति, जो नीतिगत विचार-विमर्श और नेता के चुनाव के लिए एक लोकप्रिय सभा थी, का उल्लेख मिलता है।
- जनजातीय और गण-संघ सभाएँ: वज्जि,, मल्ल और शाक्य जैसे प्रारंभिक गणराज्यों में विचार-विमर्श परिषदें और निर्वाचित प्रमुख होते थे।
- कौटिल्य का अर्थशास्त्र: आंतरिक चुनावों और जाँच के साथ संघों (संघों और कॉर्पोरेट निकायों) की वकालत करता है।
- उदाहरण: इसमें संघों (व्यापारिक व सामाजिक निकायों) में आंतरिक चुनाव और नियंत्रण व्यवस्था की वकालत की गई है।
- स्व-शासित इकाइयों के रूप में ग्राम पंचायतें: प्राचीन ग्रामों में कानून, जल और भूमि वितरण का प्रबंधन करने वाली स्वायत्त परिषदें होती थीं।
- उदाहरण: गुप्त साम्राज्य (चौथी-छठी शताब्दी ई.) ने भूमि प्रबंधन और कर संग्रह के लिए जिम्मेदार ग्राम परिषदों के माध्यम से स्थानीय स्वशासन बनाए रखा।
मध्यकालीन भारत, विशेष रूप से चोल काल
- उथिरमेरुर शिलालेख (920 ई.): यह ग्राम सभा की संगठित कार्यप्रणाली के बारे में आश्चर्यजनक विवरण देता है, साथ ही उम्मीदवारों की अर्हता, निर्हर्ता और चुनाव पद्धतियों पर विस्तृत चुनावी कानूनों का भी उल्लेख करता है।
- उदाहरण के लिए: प्रतांतक चोल के शासनकाल के दौरान तमिलनाडु के वैकुंठपेरुमल मंदिर के शिलालेख में चुनाव की अर्हता, नाम वापसी और कार्यकाल के नियमों का उल्लेख है।
- कुडवोलई प्रणाली: इस प्रणाली में ताड़पत्रों पर नाम लिखकर पात्रों में डालने की व्यवस्था थी, जिन्हें निष्पक्षता सुनिश्चित हेतु किशोर लड़कों द्वारा उठाया जाता था – यह पारदर्शिता और तटस्थता सुनिश्चित करता था।
- उम्मीदवारी के लिए सख्त नैतिक अर्हतायें: चुनाव लड़ने की पात्रता, निष्कासन के आधार और अपेक्षित नैतिक मानकों को रेखांकित करने वाली एक व्यापक आचार संहिता।
- उदाहरण: निर्हर्ताओं में शराबखोरी, ऋण चुकता न करना और अनैतिक आचरण शामिल थे, जो कभी-कभी पूरे परिवार पर लागू होती थी।
- जवाबदेही और वापसी: निर्वाचित सदस्यों को भ्रष्टाचार के कारण पद से हटाया जा सकता था और उन्हें सात पीढ़ियों तक के लिए प्रतिबंधित किया जा सकता है।
- उदाहरण: उथिरमेरुर ग्रंथों में नागरिकों द्वारा किए गये ऑडिट और सार्वजनिक निष्कासन तंत्र पर प्रकाश डाला गया है।
ये ऐतिहासिक प्रथाएँ समकालीन चुनाव सुधारों को कैसे प्रेरित कर सकती हैं
- वास्तविक विकेंद्रीकरण की आवश्यकता: स्थानीय निकायों को वास्तविक वित्तीय और निर्णय लेने के अधिकारों की स्वायत्तता प्रदान करनी चाहिए।
- उदाहरण: 15वें वित्त आयोग ने प्राचीन ग्राम स्वायत्तता को सुदृढ़ करते हुए पंचायतों को सशक्त बनाने पर बल दिया।
- उम्मीदवारों के लिए नैतिक पात्रता मानदंड: हलफनामों से आगे बढ़ते हुए, नैतिक मूल्य के आधार पर उम्मीदवारी का आकलन किया जाना चाहिए।
- उदाहरण: ADR (वर्ष 2024) के अनुसार 46% सांसदों पर आपराधिक मामले थे, इसलिए चोल काल जैसे मानदंड इस दुरुपयोग को रोक सकते हैं।
- अधिकारियों को हटाने का अधिकार: खराब प्रदर्शन करने वाले प्रतिनिधियों को हटाने के लिए कानूनी प्रावधान लागू करने चाहिए।
- उदाहरण: हरियाणा में राज्य चुनाव आयोगों ने रिकॉल नियमों की तर्ज पर पंचायती चुनावों में रिकॉल प्रणाली का परीक्षण किया।
- पारदर्शी और स्थानीयकृत मतदान पद्धतियाँ: ग्रामीण स्थानीय निकाय चुनावों के लिए तकनीक-सक्षम लेकिन विकेन्द्रीकृत उपकरणों का उपयोग करना चाहिए।
- उदाहरण: कुडवोलई की चुनाव पारदर्शिता, तेलंगाना में ब्लॉकचेन वोटिंग प्रयोगों से मेल खाती है।
- सामुदायिक निगरानी और लेखा परीक्षा: शहरी चुनावी प्रशासन में सामुदायिक सामाजिक लेखा परीक्षा को प्रोत्साहित करना चाहिए।
निष्कर्ष
भारत की सभ्यतागत लोकतांत्रिक परंपरा, लोकतांत्रिक और चुनावी सुधारों के लिए एक दिशासूचक सिद्ध हो सकती है। लोक जवाबदेही, स्थानीय शासन और नैतिक नेतृत्व के प्राचीन मूल्यों को अंगीकृत करके, भारत अपने इतिहास में निहित रहते हुए अपने आधुनिक लोकतंत्र को मजबूत कर सकता है।
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