Q. संसदीय विधान को अधिनियमित होने के तुरंत बाद न्यायालयों में चुनौती देने की प्रथा विधायी प्रक्रिया में अंतर्निहित कमजोरियों की ओर इशारा करती है। इस संदर्भ में, विधान-पूर्व जाँच के महत्त्व पर चर्चा कीजिए और अनुच्छेद 88 के अंतर्गत इसे सुदृढ़ बनाने में महान्यायवादी की संभावित भूमिका का मूल्यांकन कीजिए। (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • पूर्व-विधायी जाँच के महत्त्व पर चर्चा कीजिए।
  • इसे सुदृढ़ करने में अनुच्छेद-88 के तहत अटॉर्नी जनरल की संभावित भूमिका का उल्लेख कीजिए।
  • इसे सुदृढ़ करने में अटॉर्नी जनरल के समक्ष चुनौतियाँ।

उत्तर

पूर्व-विधायी परीक्षण यह सुनिश्चित करता है कि कानून संवैधानिक रूप से वैध और सामाजिक रूप से प्रासंगिक हों। भारत में प्रायः जल्दबाजी में विधेयकों का प्रारूप तैयार होता है और परामर्श प्रक्रिया कमजोर रहती है, जिसके कारण अधिनियमित होने के तुरंत बाद ही इन पर न्यायिक चुनौती आ जाती है। यह दर्शाता है कि इस प्रक्रिया को सुदृढ़ बनाना आवश्यक है।

पूर्व-विधायी परीक्षण का महत्त्व

  • संवैधानिक खामियों को रोकना: यह सुनिश्चित करता है कि कानून संविधान के सिद्धांतों के अनुरूप हों और निरस्त किए जाने की संभावना न्यूनतम रहे।
    • उदाहरण: ट्रांसजेंडर व्यक्ति अधिनियम, 2019 की धारा 18(d) में अन्य कानूनों की तुलना में कम सजा का प्रावधान था, जिसे प्रारंभिक परीक्षण में सुधारा जा सकता था।
  • विधायी गुणवत्ता में सुधार: यह प्रक्रिया अस्पष्ट परिभाषाओं, असंगत धाराओं और मौजूदा कानूनों से विरोधाभासों को अधिनियमित होने से पहले ही चिह्नित कर दूर करती है।
    • उदाहरण के लिए: प्रारुप तैयार करने में बार-बार होने वाली त्रुटियों के कारण न्यायालय में चुनौतियाँ आना, खराब विधायी जाँच को दर्शाता है।
  • लोकतांत्रिक विचार-विमर्श को बढ़ावा: समिति में गहन चर्चा और समीक्षा विधायी प्रक्रिया को अधिक सहभागी और पारदर्शी बनाती है।
  • न्यायिक हस्तक्षेप कम हो जाता है: यदि पूर्व-परीक्षण सुदृढ़ रूप से हो तो न्यायालय कानून की केवल व्याख्या करेंगे, न कि उन्हें निरस्त करेंगे। 
    • उदाहरण के लिए: वक्फ (संशोधन) अधिनियम, 2025 अधिनियमित होने के कुछ ही दिनों में ही संवैधानिक चुनौती का सामना कर रहा है।
  • जनता का विश्वास बढ़ता है: मसौदा तैयार करने की पारदर्शी प्रक्रिया और हितधारकों से परामर्श, संसद में पारित कानूनों की वैधता व स्वीकार्यता को मजबूत करती है।

अनुच्छेद-88 के तहत अटॉर्नी जनरल की संभावित भूमिका

  • संसद में संवैधानिक सलाहकार: महाधिवक्ता, एक निष्पक्ष संवैधानिक विशेषज्ञ के रूप में, संसदीय बहसों के दौरान विधेयक में मौजूद संवैधानिक असंगतियों या कमियों की पहचान कर सकते हैं।
  • संसद और न्यायपालिका के बीच सेतु: न्यायिक समीक्षा की संभावनाओं का पूर्वानुमान लगाकर महाधिवक्ता यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि विधायी मंशा संवैधानिक न्यायशास्त्र के अनुरूप हो।
  • जटिल कानूनी शब्दावली को सरल बनाना: विभिन्न पृष्ठभूमि से आने वाले सांसदों को जटिल विधिक मसौदे के प्रभाव समझाने में मदद करते हैं।
    • उदाहरण के लिए: अक्सर जटिल विधिक भाषा सांसदों को विधेयकों पर गहन प्रश्न पूछने या उनका मूल्यांकन करने से रोकती है।
  • सूचित मतदान को प्रोत्साहित करना: महाधिवक्ता के मार्गदर्शन में सांसद केवल पार्टी अनुशासन/(whip) पर निर्भर न रहकर संवैधानिक आधार पर मतदान कर सकते हैं। उदाहरण के लिए: वर्तमान में संसदीय बहस अक्सर केवल राजनीतिक भाषणबाजी और पार्टी-व्हिप आधारित मतदान तक सीमित हो जाती है।
  • शक्तियों के पृथक्करण को मजबूत करना: वर्तमान में संसदीय बहस अक्सर केवल राजनीतिक भाषणबाजी और पार्टी-व्हिप आधारित मतदान तक सीमित हो जाती है। 
    • उदाहरण के लिए: इससे यह सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी कि न्यायालय कानूनों को बार-बार रद्द करने के बजाय उनकी व्याख्या करें।

पूर्व-विधायी परीक्षण को सशक्त करने में महाधिवक्ता की चुनौतियाँ

  • भूमिका का शायद ही कभी उपयोग किया जाता है: यद्यपि अनुच्छेद-88 महाधिवक्ता को संसद की कार्यवाही में भाग लेने का अधिकार देता है, ऐतिहासिक रूप से इस प्रावधान का बहुत कम उपयोग हुआ है।
    • उदाहरण के लिए: संवैधानिक समर्थन के बावजूद, संसदीय बहसों में अटॉर्नी जनरल की उपस्थिति न्यूनतम है।
  • संभावित राजनीतिकरण: अटॉर्नी जनरल की नियुक्ति कार्यपालिका द्वारा की जाती है, जिससे स्वतंत्रता और तटस्थता पर संदेह उत्पन्न होता है।
    • उदाहरण के लिए: उनकी सलाह को निष्पक्ष समीक्षा के बजाय सत्ताधारी दल के पक्षपातपूर्ण समर्थन के रूप में देखा जा सकता है।
  • विधायिका का प्रतिरोध: सांसद महाधिवक्ता के हस्तक्षेप को संसदीय संप्रभुता में हस्तक्षेप मान सकते हैं।
  • समय और कार्यभार की कमी: महाधिवक्ता पहले से ही सरकार का सर्वोच्च न्यायालय और अन्य न्यायालयों में प्रतिनिधित्व करते हैं; ऐसे में प्रत्येक विधेयक की सक्रिय जाँच का दायित्व उन पर अतिरिक्त बोझ डाल सकता है। 
    • उदाहरण के लिए: वर्ष 2016–22 के मध्य सर्वोच्च न्यायालय में 35 से अधिक संवैधानिक चुनौतियाँ लंबित थीं, जो कार्य की जटिलता को दर्शाती हैं।
  • संस्थागत ढाँचे का अभाव: विधेयक का प्रारूप तैयार करने या बहस के दौरान महाधिवक्ता की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए कोई औपचारिक व्यवस्था नहीं है। उदाहरण के लिए: वर्तमान ‘मैनुअल ऑफ प्रोसीजर’ परीक्षण की सिफारिश तो करता है, लेकिन इसे लागू करने का तंत्र न होने से महाधिवक्ता की भूमिका केवल प्रतीकात्मक रह जाती है।

निष्कर्ष

यदि अनुच्छेद-88 के अंतर्गत महाधिवक्ता की सक्रिय भागीदारी से पूर्व-विधायी परीक्षण को सुदृढ़ किया जाए, तो दोषपूर्ण कानूनों पर अंकुश लगाया जा सकता है, न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता कम की जा सकती है और सांसदों को अधिक सक्षम बनाया जा सकता है। इससे उत्तरदायित्व  की भावना मजबूत होगी तथा भारत की संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की नींव और भी सुदृढ़ बनेगी।

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