प्रश्न की मुख्य माँग
- सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों के आलोक में भारत में मृत्युदंड की संवैधानिक वैधता पर चर्चा कीजिए।
- बताइए कि यह अनुच्छेद-21 के अनुरूप कैसे है, जो जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है।
- बताइए कि यह अनुच्छेद-21 के अनुरूप नहीं है।
- आगे की राह।
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उत्तर
मृत्युदंड एक विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है, जहाँ न्यायपालिका अनुच्छेद-21 के तहत जीवन के अधिकार के साथ प्रतिशोधात्मक न्याय को संतुलित करती है। प्रोजेक्ट 39A द्वारा वर्ष 2023 डेथ पेनल्टी इंडिया रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष के अंत में भारत में 561 लोगों को मृत्युदंड की सजा दी जानी थी। न्यायालय ने निरंतर निर्णय दिया है कि मृत्युदंड केवल तभी लगाया जाना चाहिए, जब वैकल्पिक दंड, जैसे कि आजीवन कारावास, अपर्याप्त माना जाता है।
भारत में मृत्युदंड की संवैधानिक वैधता
- न्यायिक जाँच निष्पक्ष प्रक्रिया सुनिश्चित करती है: सर्वोच्च न्यायालय ने मृत्युदंड को संवैधानिक माना है, बशर्ते कि उचित प्रक्रिया का पालन किया जाए और सजा सुनाने से पहले परिस्थितियों पर विचार किया जाए।
- उदाहरण के लिए: जगमोहन सिंह बनाम यूपी राज्य वाद में, न्यायालय ने निर्णय दिया कि अगर निष्पक्ष कानूनी प्रक्रिया के माध्यम से मृत्युदंड दिया जाए तो यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है।
- दुर्लभतम में से दुर्लभ सिद्धांत उपयोग को सीमित करता है: ‘दुर्लभतम में से दुर्लभ’ सिद्धांत की शुरुआत यह सुनिश्चित करती है कि मृत्युदंड केवल चरम मामलों में ही दिया जाए, जिससे मनमाने ढंग से इसके प्रयोग को रोका जा सकता है।
- उदाहरण के लिए: बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य वाद में, न्यायालय ने मृत्युदंड को बरकरार रखा लेकिन इस बात पर बल दिया कि आजीवन कारावास आदर्श होना चाहिए और मृत्यु एक अपवाद होना चाहिए।
- संगति के लिए दिशा-निर्देश: सर्वोच्च न्यायालय ने यह तय करने के लिए शर्तें तय की हैं कि कब कोई मामला ‘दुर्लभतम में से दुर्लभ’ माना जाएगा, जिससे सजा सुनाने में कुछ हद तक एकरूपता सुनिश्चित होगी।
- उदाहरण के लिए: मच्छी सिंह बनाम पंजाब राज्य वाद में न्यायालय ने मृत्युदंड को उचित ठहराने के लिए क्रूरता, उद्देश्य और पीड़ित की सुभेद्यता जैसे कारकों को सूचीबद्ध किया।
- अनिवार्य मृत्युदंड को समाप्त किया गया: न्यायिक समीक्षा के बिना स्वचालित मृत्युदंड को अनिवार्य करने वाले किसी भी प्रावधान को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया है, जिससे व्यक्तिगत मामले का मूल्यांकन सुनिश्चित हो सके।
- उदाहरण के लिए: मिठू बनाम पंजाब राज्य वाद में न्यायालय ने धारा 303 IPC को समाप्त कर दिया, जिसके तहत हत्या करने वाले आजीवन कारावास के दोषियों पर अनिवार्य मृत्यु दंड लगाया जाता था।
- सजा सुधार के लिए न्यायिक समीक्षा: सर्वोच्च न्यायालय ने मृत्युदंड देने से पहले सजा कम करने वाले कारकों पर विस्तृत सुनवाई पर बल देते हुए सजा प्रक्रियाओं में सुधार करने की माँग की है।
मृत्यु दंड किस प्रकार अनुच्छेद-21 के अनुरूप है?
- विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया: अनुच्छेद-21 जीवन के अधिकार की गारंटी देता है, लेकिन यह भी बताता है कि जीवन को केवल उचित कानूनी प्रक्रिया के माध्यम से ही वंचित किया जा सकता है। न्यायालय सजा सुनाने से पहले निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करते हैं।
- उदाहरण के लिए: बच्चन सिंह (1980) वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि यदि निष्पक्ष न्यायिक प्रक्रिया के बाद मृत्युदंड दिया जाता है तो यह संवैधानिक है।
- सजा सुनाने में न्यायिक सुरक्षा: दुर्लभतम का सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि केवल सबसे जघन्य अपराधों के लिए ही मृत्युदंड दिया जाए, जिससे मनमाने ढंग से जीवन से वंचित करने पर रोक लगाई जा सके।
- क्षमादान का प्रावधान: संविधान के अनुच्छेद-72 और 161 कार्यकारी क्षमादान शक्तियाँ प्रदान करते हैं, जिससे राष्ट्रपति और राज्यपालों को मृत्युदंड को कम करने की अनुमति मिलती है, जिससे अतिरिक्त सुरक्षा सुनिश्चित होती है।
- उदाहरण के लिए: शत्रुघ्न चौहान बनाम भारत संघ (2014) वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने मानवाधिकारों को सर्वोच्च रखते हुए दया याचिकाओं में देरी के कारण कई मृत्युदंडों को कम किया।
- समीक्षा और अपील की गुंजाइश: मौत की सजा पाए दोषियों को उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय और क्यूरेटिव याचिकाओं सहित कई न्यायिक समीक्षाओं तक पहुँच प्राप्त होती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि किसी भी निर्दोष व्यक्ति को गलत तरीके से फाँसी न दी जाए।
- उदाहरण के लिए: मोहम्मद आरिफ बनाम भारत के सर्वोच्च न्यायालय (2014) वाद में न्यायालय ने माना कि मृत्यु के मामलों में समीक्षा याचिकाओं पर खुली अदालत में सुनवाई होनी चाहिए, जिससे पारदर्शिता में सुधार होगा।
- वैकल्पिक दंड पर विचार: न्यायालय मृत्युदंड लगाने से पहले आजीवन कारावास को एक विकल्प के रूप में आँकते हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि इसका उपयोग अंतिम उपाय के रूप में किया जाए।
- उदाहरण के लिए: स्वामी श्रद्धानंद बनाम कर्नाटक राज्य (2008) वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय और मानवता के बीच संतुलन बनाते हुए मृत्युदंड को बिना पैरोल के आजीवन कारावास में बदल दिया।
मृत्यु दंड किस प्रकार अनुच्छेद-21 के विरुद्ध है?
- सजा सुनाने में मनमानी: ‘दुर्लभ में से दुर्लभतम’ के लिए स्पष्ट परिभाषा का अभाव असंगत न्यायिक निर्णयों का परिणाम है, जो अनुच्छेद-21 के तहत निष्पक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है।
- उदाहरण के लिए: राजेंद्र प्रसाद बनाम यूपी राज्य (1979) वाद में, सर्वोच्च न्यायालय ने मृत्युदंड की सजा में अनिश्चितता की आलोचना की, जिससे व्यक्तिपरक न्यायिक व्याख्याएँ हुईं।
- गरीबों पर असंगत प्रभाव: मृत्युदंड अक्सर हाशिए पर स्थित व्यक्तियों पर असंगत रूप से लगाया जाता है, जिनके पास गुणवत्तापूर्ण कानूनी प्रतिनिधित्व की कमी होती है, जो समान कानूनी सुरक्षा के उनके अधिकार का उल्लंघन करता है।
- उदाहरण के लिए: डेथ पेनल्टी इंडिया रिपोर्ट (2016) में पाया गया कि मृत्यु दंड की सजा पाने वाले 74% से अधिक कैदी आर्थिक या सामाजिक रूप से वंचित समुदायों से थे।
- गलत तरीके से फाँसी दिए जाने का जोखिम: मृत्युदंड के मामलों में होने वाली न्यायिक त्रुटियाँ अपरिवर्तनीय होती हैं, जो निर्दोष व्यक्तियों को दंडित करके जीवन के अधिकार का उल्लंघन करती हैं।
- उदाहरण के लिए: संतोष बरियार बनाम महाराष्ट्र राज्य (2009) वाद में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि पिछले मामलों में गलत तरीके से निर्णय लिए गए थे, जिससे गलत तरीके से फाँसी दिए जाने का जोखिम उजागर हुआ।
- मृत्युदंड की सजा में देरी से मानसिक आघात: मृत्युदंड की सजा पर लंबे समय तक कारावास में रहने से मनोवैज्ञानिक पीड़ा होती है, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने अमानवीय और अपमानजनक व्यवहार के बराबर माना है।
- उदाहरण के लिए: त्रिवेणीबेन बनाम गुजरात राज्य (1989) वाद में न्यायालय ने माना कि विलंबित फाँसी, अनुच्छेद-21 का उल्लंघन करती है क्योंकि कैदी अत्यधिक चिंता और संकट से पीड़ित होते हैं।
- वैकल्पिक दंड की उपलब्धता: पैरोल के बिना आजीवन कारावास, सुधार की अनुमति देते हुए दंड सुनिश्चित करता है, जिससे मृत्युदंड जीवन से अनावश्यक वंचित करने जैसा हो जाता है।
आगे की राह
- मानकीकृत दंड रूपरेखा: ‘दुर्लभतम में से दुर्लभ’ को परिभाषित करने के लिए एक स्पष्ट, एकसमान कानूनी रूपरेखा विकसित की जानी चाहिए, जिससे मृत्युदंड का सुसंगत अनुप्रयोग सुनिश्चित हो सके।
- वंचित अभियुक्तों के लिए मजबूत कानूनी सहायता: सरकार को आर्थिक रूप से कमजोर मौत की सजा पाए दोषियों के लिए निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करने हेतु उच्च-गुणवत्ता वाले सार्वजनिक वकील उपलब्ध कराने चाहिए।
- उदाहरण के लिए: राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (NALSA) को मृत्युदंड के मामलों में बेहतर कानूनी प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए अपनी पहुँच का विस्तार करना चाहिए।
- त्वरित समीक्षा और क्षमादान प्रक्रिया: न्यायालयों को मृत्युदंड की अपीलों का समय पर निपटारा सुनिश्चित करना चाहिए और कार्यपालिका को एक निश्चित समय सीमा के भीतर दया याचिकाओं पर निर्णय लेना चाहिए।
- उदाहरण के लिए: शत्रुघ्न चौहान बनाम भारत संघ (2014) में सर्वोच्च न्यायालय ने दया याचिकाओं में अत्यधिक देरी के कारण कई मृत्युदंडों को कम कर दिया।
- पुनर्वास पर अधिक बल: सुधारात्मक न्याय की ओर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए तथा बिना पैरोल के आजीवन कारावास को अधिक मानवीय विकल्प के रूप में माना जाना चाहिए।
- उन्मूलन पर राष्ट्रीय बहस: पैरोल के बिना आजीवन कारावास के पक्ष में मृत्युदंड को समाप्त करने पर विचार करने के लिए एक संरचित सार्वजनिक और विधायी चर्चा शुरू की जानी चाहिए।
- उदाहरण के लिए: UK और कनाडा सहित कई देशों ने मृत्युदंड को समाप्त कर दिया है, जो यह दर्शाता है कि सख्त आजीवन कारावास, बिना निष्पादन के न्याय प्रदान कर सकता है।
एक प्रगतिशील कानूनी ढाँचे में संवैधानिक नैतिकता को बनाए रखते हुए न्याय और सुधार के बीच संतुलन बनाना चाहिए। सख्त सजा दिशा-निर्देश, न्यायिक सुरक्षा उपाय और वैकल्पिक दंड सुधार एक न्यायपूर्ण प्रणाली सुनिश्चित कर सकते हैं। मानवाधिकारों पर भारत के विकसित होते न्यायशास्त्र को दुर्लभ-उपयोग सिद्धांत की ओर बढ़ना चाहिए, जो अनुच्छेद-21 के सार के साथ संरेखित हो, जहाँ जीवन की पवित्रता से समझौता किए बिना न्याय दिया जाता है।
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