प्रश्न की मुख्य माँग
- फुले के वैचारिक योगदान और सामाजिक सुधार विरासत का वर्णन कीजिए।
- समकालीन समय में फुले की विरासत के समक्ष आने वाली चुनौतियों का उल्लेख कीजिए।
- स्वतंत्रता के बाद दलित-बहुजन राजनीतिक दावेदारी के संदर्भ में उनकी विरासत का उल्लेख कीजिए।
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उत्तर
महाराष्ट्र के एक अग्रणी समाज सुधारक और विचारक, महात्मा ज्योतिराव फुले (वर्ष 1827-1890), औपनिवेशिक भारत में ब्राह्मणवादी वर्चस्व, जाति पदानुक्रम और लैंगिक भेदभाव को चुनौती देने वाली प्रारंभिक व्यक्तित्वों में से एक थे। उनके विचारों ने स्वतंत्रता के बाद के भारत में जाति-विरोधी और दलित-बहुजन दावेदारी को महत्त्वपूर्ण रूप से प्रभावित किया।
फुले का वैचारिक योगदान और सामाजिक सुधार विरासत
- ब्राह्मणवाद और जाति व्यवस्था की कट्टरपंथी आलोचना: फुले उन प्रारंभिक लोगों में से थे जिन्होंने सार्वजनिक रूप से ब्राह्मणवादी वर्चस्व और जाति के धार्मिक औचित्य को अस्वीकार कर दिया था।
- उदाहरण के लिए: गुलामगिरी (वर्ष 1873) में फुले ने तर्क दिया कि ब्राह्मणों ने धार्मिक ग्रंथों का उपयोग करके शूद्रों और अतिशूद्रों को गुलाम बनाया।
- सामाजिक मुक्ति के लिए शिक्षा पर जोर: फुले ने जातिगत बाधाओं को तोड़ने के लिए सार्वभौमिक शिक्षा को महत्त्वपूर्ण माना वर्ष 1848 में फुले और उनकी पत्नी सावित्रीबाई फुले ने पुणे में लड़कियों और दलितों के लिए पहला स्कूल शुरू किया।
- सत्यशोधक समाज (सत्य-शोधक समाज, वर्ष 1873) का गठन: इस संगठन का उद्देश्य दलित जातियों को ब्राह्मणवादी रीति-रिवाजों और पुरोहिती नियंत्रण से मुक्त कराना था। तर्कसंगत सोच, अंतरजातीय विवाह, विधवा पुनर्विवाह और सामाजिक समानता को बढ़ावा देना।
- लैंगिक समानता और महिला मुक्ति: फुले जाति सुधार के भीतर नारीवादी विचारों में अग्रणी थीं। सावित्रीबाई के साथ मिलकर उन्होंने महिला शिक्षा, विधवा पुनर्विवाह और बाल विवाह व सती प्रथा के खिलाफ काम किया।
- कृषि मजदूरों और किसानों के लिए सहायता: फुले की पुस्तक “शेतकार्याचा आसुद” (व्हिपकॉर्ड ऑफ पीजेंट, 1881) ने ग्रामीण जाति और वर्ग शोषण पर प्रकाश डाला।
समकालीन भारत में फुले की विरासत के समक्ष चुनौतियाँ
- जाति-आधारित पदानुक्रम और सामाजिक भेदभाव का पुनरुत्थान: जाति-आधारित हिंसा की बढ़ती घटनाएँ (जैसे हाथरस मामला, वर्ष 2020 ), अभी भी हो रहे जातिगत उत्पीड़न को उजागर करती हैं, जो फुले के सामाजिक समता के दृष्टिकोण का खंडन करती हैं।
- वास्तविक सशक्तीकरण के बिना प्रतिनिधित्व में दिखावा: प्रतीकात्मक कैबिनेट नियुक्तियाँ या आरक्षित सीटों का प्रावधान है, लेकिन आनुपातिक नीतिगत प्रभाव या जमीनी स्तर पर परिवर्तन के बिना।
- शिक्षा का व्यावसायीकरण और वंचित समूहों के लिए पहुँच में कमी: निजीकरण और शिक्षा की बढ़ती लागत ने अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों/अन्य पिछड़े वर्गों को हाशिए पर डाल दिया है, जो फुले के सार्वभौमिक, राज्य समर्थित शिक्षा के आह्वान के विपरीत है।
- उच्च न्यायपालिका, नौकरशाही और मीडिया में अल्प प्रतिनिधित्व: बहुजन प्रतिनिधित्व के लिए फुले का आह्वान, अभिजात वर्ग की सत्ता संरचनाओं में अभी तक पूरा नहीं हुआ है।
- उदाहरण के लिए: वर्ष 2018 से नियुक्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में से लगभग 77% उच्च जाति वर्ग से हैं (कानून मंत्रालय ने संसद में यह आंकड़ा दिया)।
- कल्याण-उन्मुख राज्य नीतियों का क्षरण: निजीकरण, कम सार्वजनिक व्यय और ‘न्यूनतम सरकार’ पर आधारित नीतियाँ फुले के राज्य समर्थित उत्थान के मॉडल को कमजोर करती हैं।
स्वतंत्रता के बाद दलित-बहुजन दावेदारी में फुले की विरासत
- दलित-बहुजन एकता के लिए वैचारिक ढाँचा: यह शब्दावली बहुजन समाज पार्टी (BSP) की नींव बन गई, जिसने दलितों और OBC को उच्च जाति के प्रभुत्व के खिलाफ राजनीतिक रूप से संगठित किया।
- उदाहरण के लिए: BSP का नारा “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” फुले की समावेशी विचारधारा को प्रतिध्वनित करता है।
- सत्यशोधक परम्परा और गैर-ब्राह्मण आंदोलन: महाराष्ट्र में गैर-ब्राह्मण आंदोलन और पेरियार (आत्म-सम्मान आंदोलन) के तहत तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन को प्रेरणा मिली।
- मंडल राजनीति में विरासत और OBC दावा: मंडल आयोग (वर्ष 1980) और वर्ष 1990 में इसके कार्यान्वयन ने आरक्षण के माध्यम से पिछड़ी जातियों को सशक्त बनाने के फुले के विचार को प्रतिबिंबित किया।
- राजनीतिक उपकरण के रूप में शैक्षिक सशक्तिकरण: शिक्षा दलित-बहुजन राजनीतिक आंदोलनों, अम्बेडकर की पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी, दलित छात्रावासों और छात्रवृत्ति योजनाओं का केन्द्र बन गयी।
- पंचायती राज और स्थानीय शासन पर प्रभाव: 73वें और 74वें संशोधन के तहत पंचायतों और शहरी स्थानीय निकायों में आरक्षण के माध्यम से दलितों और OBC को राजनीतिक आवाज मिली।
महात्मा फुले की जाति और ब्राह्मणवाद की कट्टरपंथी आलोचना, शिक्षा को बढ़ावा देने और उनकी समावेशी बहुजन पहचान की राजनीति ने 20वीं सदी और उसके बाद के दलित-बहुजन आंदोलनों के लिए एक दार्शनिक और व्यावहारिक आधार तैयार किया। स्वतंत्रता के बाद के युग में सामाजिक न्याय, समानता और सम्मान के लिए भारत के निरंतर संघर्षों में उनकी विरासत केंद्रीय बनी हुई है।
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