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निबंध का प्रारूप:1. मूल तनाव: संरक्षण बनाम प्रगति: विकास से भौतिक उन्नति तो होती है, किन्तु प्रायः सांस्कृतिक निरन्तरता दरकिनार हो जाती है। 2. सांस्कृतिक पतन को बढ़ावा देने वाला विकास
3. एक जीवंत, विकासशील शक्ति के रूप में संस्कृति
4. सांस्कृतिक परिवर्तन के माध्यम के रूप में विकास
5. विकास से वंचित क्षेत्र तथा सांस्कृतिक वियोग
6. विकास के सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील मॉडल की ओर
निष्कर्ष: सांस्कृतिक सहयोगी के रूप में विकास की पुनर्कल्पना |
कांचीपुरम, जो अपनी पारंपरिक रेशम बुनाई के लिए प्रसिद्ध है, में रहने वाले राघवन हथकरघे का काम करते हुए पारिवारिक शिल्प को जारी रखते हैं, जबकि उनके पुत्र अर्जुन चेन्नई में एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में कार्य करते हैं। हालांकि राघवन को अपने पुत्र की सफलता पर गर्व है, लेकिन उन्हें भय है कि युवा पीढ़ी के आधुनिक करियर की ओर बढ़ने से उनकी विरासत का पतन हो जाएगा। हालाँकि, अर्जुन अपने पिता की साड़ियों का ऑनलाइन प्रचार करने में मदद करते हैं, उनका मानना है कि डिजिटल उपकरण परंपरा को संरक्षित कर सकते हैं। उनकी कहानी भारत की दुविधा को दर्शाती है: अर्थात विकास अवसर तो लाता है, लेकिन सांस्कृतिक पतन का भी जोखिम उत्पन्न करता है। फिर भी, यह सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए नए मार्ग भी खोलता है। जैसे-जैसे बुनकरों की लोकप्रियता घटती जा रही है, डिजिटल प्लेटफॉर्म विरासत को पुनर्जीवित करने और उसकी पुनर्कल्पना करने का एक माध्यम बन रहे हैं। कांचीपुरम अपनी जड़ों से जुड़े रहने और परिवर्तन को अपनाने के बीच संतुलन का प्रतीक है।
प्रत्येक समाज में संस्कृति को सभ्यता की आत्मा माना जाता है। यह लोगों के सोचने, व्यवहार करने, स्वयं को अभिव्यक्त करने और एक-दूसरे से जुड़ने के तरीके को आकार देती है। ग्रामीण भारत के लोकगीतों से लेकर आदिवासी समुदायों के पवित्र अनुष्ठानों तक, संस्कृति जीवन को रंग और निरंतरता प्रदान करती है। दूसरी ओर, विकास का उद्देश्य बेहतर आधारभूत ढांचे, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और आय के माध्यम से भौतिक कल्याण में सुधार करना है। लेकिन जब ये दोनों शक्तियां परस्पर क्रिया करती हैं, तो एक मुख्य दुविधा उत्पन्न होती है: जैसे-जैसे समाज विकास की ओर अग्रसर होता है,तो क्या संस्कृत वैसे लुप्त होती है या फिर विकसित होती है? यह निबंध विकास के संदर्भ में सांस्कृतिक पतन और सांस्कृतिक परिवर्तन के बीच तनाव को समझते हुए इस प्रश्न की पड़ताल करता है।
परंपरागत रूप से, कई लोगों ने विकास को संस्कृति के लिए ख़तरा माना है। जैसे-जैसे समाज आधुनिक होता जाता है, आर्थिक विकास और भौतिक सुख-सुविधाओं का सांस्कृतिक मूल्यों और प्रथाओं पर प्रभुत्व हो जाता है। एक प्रमुख चिंता वैश्वीकरण के कारण संस्कृति का एकरूप होना है। जैसे-जैसे वैश्विक मीडिया, ब्रांड और उपभोग पैटर्न विस्तृत होते हैं, वे प्रायः स्थानीय रीति-रिवाजों, भाषाओं और अभिव्यक्तियों को मानकीकृत मानदंडों से बदल देते हैं। उदाहरण के लिए, भारत में अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा के प्रति बढ़ती प्राथमिकता के कारण क्षेत्रीय भाषाओं के प्रयोग में उल्लेखनीय गिरावट आई है। शहरी क्षेत्रों में पले-बढ़े बच्चे अपनी मातृभाषा से लगातार दूर होते जा रहे हैं, जिससे स्थानीय साहित्य, लोककथाओं और मौखिक परंपराओं का भविष्य खतरे में पड़ रहा है।
विकास का एक अन्य गंभीर परिणाम स्वदेशी समुदायों का विस्थापन रहा है। बांध, खनन और राजमार्ग जैसी बड़ी आधारभूत ढांचागत परियोजनाओं के परिणामस्वरूप प्रायः जनजातीय आबादी को बलपूर्वक स्थानांतरित कर दिया जाता है। ये विस्थापन न केवल उनकी भूमि छीन लेता है, बल्कि उनके सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने को भी नष्ट कर देता है। उदाहरण के लिए, नर्मदा घाटी परियोजना के कारण हज़ारों आदिवासी परिवारों को स्थानांतरित होना पड़ा, जिनमें से कई अब पारंपरिक त्यौहार नहीं मना सकते या नए, अपरिचित परिवेश में अपने पुश्तैनी रीति-रिवाजों को बनाए नहीं रख सकते । प्रायः विकास टॉप-डाउन तरीके से होता है, तथा इससे प्रभावित होने वाले लोगों के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संदर्भ को नजरअंदाज कर दिया जाता है। इससे अलगाव, सांस्कृतिक विघटन और नियमगिरि पहाड़ियों में खनन के खिलाफ डोंगरिया कोंध विरोध(Dongria Kondh protest) जैसे प्रतिरोध आंदोलन उजागर में आते हैं।
कुछ मामलों में, संस्कृति को न केवल उपेक्षित किया जाता है, बल्कि पर्यटन या विकास के नाम पर उसका व्यवसायीकरण भी किया जाता है। पर्यटकों की अपेक्षाओं के अनुरूप पवित्र और सार्थक अनुष्ठानों को प्रदर्शनों में बदल दिया जाता है। इसका एक उदाहरण राजस्थान का कालबेलिया नृत्य है, जो कभी एक अनुष्ठानिक कला थी, जिसे अब प्रायः मनोरंजन के उद्देश्य से होटलों में प्रदर्शित किया जाता है। इसी प्रकार, हर्बल औषधि जैसी पारंपरिक ज्ञान प्रणालियाँ भी लुप्त हो रही हैं, क्योंकि युवा पीढ़ी औपचारिक नौकरियों और शहरी जीवन की ओर बढ़ रही है। नीलगिरि की पहाड़ियों में औषधीय पौधों के बारे में जनजातीय लोगों का ज्ञान लुप्त होता जा रहा है, क्योंकि गांवों में इस ज्ञान को सीखने और दूसरों तक पहुंचाने वाले युवा लोगों की संख्या कम हो गई है। इसके अलावा, सफलता की पूंजीवादी धारणाएं गैर-मौद्रिक सांस्कृतिक परिसंपत्तियों का अवमूल्यन करती हैं। सामुदायिक सम्मान, मौखिक कहानी सुनाना, या पारिस्थितिकी प्रबंधन को मापना कठिन है और इसलिए प्रायः GDP जैसे विकास संबंधी मापदंडों में इन्हें पीछे छोड़ दिया जाता है।
हालाँकि, यह स्वीकार करना महत्वपूर्ण है कि संस्कृति स्थिर नहीं है। यह सदैव समय के साथ विकसित होता रही है, अर्थात यह प्रायः नए प्रभावों को आत्मसात करती है और प्राचीन संस्कृति को त्यागती है। विकास का मार्ग जब सोच-समझकर अपनाया जाए तो यह विनाश के बजाय सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए उपकरण और अवसर प्रदान कर सकता है। उदाहरण के लिए, प्रौद्योगिकी संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन में एक शक्तिशाली सहयोगी के रूप में उभरी है। डिजिटल प्लेटफॉर्म ने समुदायों को लुप्तप्राय भाषाओं का दस्तावेजीकरण करने, स्थानीय संगीत और शिल्प को संग्रहित करने तथा अपनी विरासत को वैश्विक दर्शकों के साथ साझा करने का अवसर दिया है। पीपुल्स लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ़ इंडिया जैसी पहलों ने विलुप्त होती भाषाओं को डिजिटल रूप से संरक्षित करना संभव बना दिया है, जिससे डिजिटल युग में उन्हें नया जीवन मिला है। आज, कृत्रिम बुद्धिमत्ता को भारतीय बोलियों और लोक परंपराओं में भी प्रशिक्षित किया जा रहा है, जिससे नवाचार को अपनाते हुए स्थानीय प्रासंगिकता सुनिश्चित हो रही है।
इसके अतिरिक्त, विकास सांस्कृतिक कलाकारों को आर्थिक रूप से सशक्त बना सकता है। सरकारी सहायता और बाज़ारों तक पहुंच के माध्यम से पारंपरिक कौशल स्थायी आजीविका बन सकते हैं। कर्नाटक का चन्नपटना खिलौना उद्योग इसका एक अच्छा उदाहरण है। एक समय यह पतन के कगार पर था, लेकिन भौगोलिक संकेत (जीआई) टैग मिलने के बाद इसे पुनर्जीवित किया गया। अब कारीगरों को पारंपरिक तरीकों का उपयोग जारी रखते हुए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों तक बेहतर पहुंच प्राप्त हो गई है। इससे पता चलता है कि विकास, जब संस्कृति के प्रति संवेदनशील हो, तो उसे संरक्षित करने में मदद कर सकता है और साथ ही आर्थिक सुरक्षा भी प्रदान कर सकता है।
एक अन्य क्षेत्र जहां परिवर्तन स्पष्ट दिखाई देता है, वह है कला। वैश्विक अनावरण के साथ, कलाकार पारंपरिक तत्वों को आधुनिक शैलियों के साथ मिश्रित कर रहे हैं, तथा ऐसे संकर रूप तैयार कर रहे हैं जो युवा दर्शकों को आकर्षित करते हैं। शंकर महादेवन जैसे भारतीय संगीतकार और इंडियन ओशन जैसे बैंड ने शास्त्रीय भारतीय संगीत को जैज़, रॉक और लोक संगीत के साथ मिश्रित किया है। यह मिश्रण सांस्कृतिक सार को बरकरार रखते हुए इसे आज की दुनिया में प्रासंगिक बनाता है। इस तरह के नवाचार से पता चलता है कि सांस्कृतिक परिवर्तन को पूरी तरह से नष्ट करने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि एक रचनात्मक विकास से गुजरना होगा।
विकास संस्कृति के प्राचीन और प्रतिगामी तत्वों को त्यागने का अवसर भी प्रदान करता है। कुछ पारंपरिक और सांस्कृतिक प्रथाएं अब न्याय, समानता और मानव गरिमा के मूल्यों के अनुरूप नहीं रह गयी हैं। ऐसे मामलों में परिवर्तन आवश्यक और नैतिक दोनों है। भारत में तीन तलाक प्रथा का उन्मूलन इसका एक उदाहरण है। यद्यपि कुछ मुस्लिम समुदायों में इसे पारंपरिक रूप से स्वीकार किया गया, लेकिन लैंगिक अधिकारों के उल्लंघन के कारण इसे कानूनी और नैतिक जांच के दायरे में लाया गया। इसका उन्मूलन सांस्कृतिक क्षरण नहीं बल्कि सांस्कृतिक सुधार है जो परंपरा को संवैधानिक मूल्यों के साथ संरेखित करता है।
गहराई से देखा जाये तो, सांस्कृतिक क्षरण और परिवर्तन के बीच की बहस एक दार्शनिक दुविधा को उजागर करती है। “प्रामाणिक” संस्कृति की परिभाषा क्या है? क्या संस्कृति को उसके मूल रूप में संरक्षित रखना उसे अनुकूलित करने की अनुमति देने से अधिक महत्वपूर्ण है? आज, विश्व स्तर पर लोकप्रिय योग लाखों लोगों तक पहुंच चुका है, लेकिन आलोचकों का तर्क है कि इस प्रक्रिया में इसने अपनी आध्यात्मिक गहराई खो दी है और यह एक शारीरिक व्यायाम का रूप बन गया है। यह उदाहरण शुद्धता बनाए रखने और प्रासंगिकता सुनिश्चित करने के बीच व्यापक तनाव को दर्शाता है। ऐसी बहसों में यह याद रखना उपयोगी है कि प्रामाणिकता का अर्थ अगतिशीलता नहीं है। जीवित संस्कृतियाँ वे हैं जो विकसित होती हैं, आत्म-आलोचना करती हैं, और अनुकूलन करती हैं।
इसके अतिरिक्त, कुछ सांस्कृतिक प्रथाएं शोषणकारी या बहिष्कारकारी हो सकती हैं। देवदासी प्रथा, जिसे कभी पवित्र परंपरा माना जाता था, अंततः युवा लड़कियों के शोषण का कारण बनी। इस प्रकार इसकी पतन को नैतिक प्रगति के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। इसलिए, प्रश्न यह नहीं होना चाहिए कि क्या संस्कृति बदल रही है, बल्कि यह होना चाहिए कि क्या वह परिवर्तन मानव गरिमा को समृद्ध कर रहा है या उसका पतन कर रहा है।
विचारणीय एक अन्य बिंदु यह है कि प्रायः शिक्षा, मीडिया और नीति में प्रभावशाली समूह की संस्कृति को बढ़ावा दिया जाता है, जबकि हाशिए पर पड़े समुदाय अदृश्य रह जाते हैं। उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय मीडिया दिवाली और होली जैसे त्योहारों को बड़े उत्साह के साथ मनाता है, लेकिन सरहुल (झारखंड में आदिवासियों द्वारा मनाया जाने वाला) जैसे आदिवासी त्योहारों पर शायद ही कभी ध्यान दिया जाता है। इसलिए विकास न केवल आर्थिक रूप से, बल्कि सांस्कृतिक रूप से भी समावेशी होना चाहिए। ऐसी सांस्कृतिक विविधता को नज़रअंदाज़ करने से हाशिए पर पड़े समूहों में “विकास में ठहराव (development fatigue)” उत्पन्न हो सकता है, जो खुद को राष्ट्र की प्रगति की कहानी में प्रतिनिधित्व करते नहीं देखते हैं।
इस संतुलन को हासिल करना आसान नहीं है। विकास-संचालित विश्व में सांस्कृतिक निरन्तरता बनाए रखना अनेक चुनौतियों के कारण कठिन हो गया है। तीव्र शहरीकरण और प्रवासन इसके प्रमुख कारक हैं। जब लोग बेहतर जीवन की तलाश में गांवों से शहरों की ओर जाते हैं, तो वे प्रायः उस सामुदायिक वातावरण को खो देते हैं जहां सांस्कृतिक प्रथाओं का स्वाभाविक रूप से पालन किया जाता था। उदाहरण के लिए, दिल्ली में रहने वाले विभिन्न राज्यों के प्रवासी श्रमिकों को स्थान, समय या सामुदायिक समर्थन की कमी के कारण रज पर्बा जैसे पारंपरिक त्योहारों को मनाने में कठिनाई हो सकती है। ऐसी स्थितियों में, डिजिटल सामुदायिक समूह और सांस्कृतिक समूह, अलग-थलग शहरी स्थानों में पहचान बनाए रखने के लिए सहायता प्रणाली के रूप में उभरे हैं।
शिक्षा भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। स्कूल, विशेषकर शहरी और संभ्रांत क्षेत्रों में, अक्सर स्थानीय ज्ञान और संस्कृति की उपेक्षा करते हैं। राष्ट्रीय या वैश्विक आख्यानों पर केंद्रित पाठ्यपुस्तकें अक्सर स्थानीय इतिहास और परंपराओं की उपेक्षा करती हैं। बच्चों को शायद ही कभी उनके गांव के नायकों, स्थानीय वास्तुकला या लोक कला के बारे में पढ़ाया जाता है। यह पृथकत्व या वियोग अल्प आयु से ही सांस्कृतिक पहचान को कमजोर कर देता है और ऐसे बच्चे तैयार करते हैं जो शैक्षणिक रूप से जागरूक तो होते हैं, लेकिन सांस्कृतिक रूप से पिछड़े होते हैं।
इसी प्रकार, राजनीति संस्कृति को इस प्रकार प्रभावित कर सकती है कि उसकी विविधता और समावेशिता सीमित हो सकती है। जब सांस्कृतिक आख्यानों को संकीर्ण राष्ट्रवादी या धार्मिक एजेंडे के अनुरूप ढाला जाता है, तो वे एकता के बजाय विभाजन का साधन बन जाते हैं। समाज के बहुलवादी लोकाचार को प्रतिबिंबित करने के स्थान पर, संस्कृति को एकल पहचान के अनुरूप ढाला जा सकता है, तथा उन इतिहासों को बाहर रखा जा सकता है जो प्रमुख विचारधाराओं के साथ संरेखित नहीं होते। हालांकि इस तरह की कार्रवाइयां परंपरा को पुनर्जीवित करने या गौरव पैदा करने वाली प्रतीत हो सकती हैं, लेकिन वे अक्सर सांस्कृतिक विरासत की समृद्धि, जटिलता और साझी प्रकृति को कमजोर करती हैं।
एक और चिंताजनक प्रवृत्ति है- संस्कृति के अंतर-पीढ़ी हस्तांतरण में गिरावट । पूर्व के समय में दादा-दादी बच्चों को लोक कथाएं सुनाते थे, लोरियां गाते थे या रीति-रिवाज सिखाते थे। आज, एकल परिवारों और डिजिटल विकर्षणों के कारण, बच्चे बड़ों की तुलना में स्मार्टफोन के साथ अधिक समय व्यतीत करते हैं। परिणामस्वरूप, मौखिक परम्पराएं आगे नहीं बढ़ पा रही हैं और सांस्कृतिक स्मृति धीरे-धीरे लुप्त हो रही है।
इस जटिल चुनौती से निपटने के लिए एक संतुलित एवं सांस्कृतिक रूप से संवेदनशील विकास मॉडल की आवश्यकता है। इस संबंध में सामुदायिक भागीदारी आवश्यक है। विकास की शुरुआत उन लोगों से होनी चाहिए जिनके जीवन में सुधार लाना है। उनके ज्ञान, मूल्यों और आकांक्षाओं को इस प्रक्रिया का मार्गदर्शन करना चाहिए। गुजरात में स्व-रोजगार महिला संघ (SEWA) इस दृष्टिकोण का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। ग्रामीण महिला कारीगरों को समर्थन देकर और उन्हें बाजारों से जोड़कर, सेवा(SEWA) यह सुनिश्चित करता है कि आर्थिक विकास सांस्कृतिक पहचान की कीमत पर न हो।
शिक्षा प्रणालियों में स्थानीय संस्कृतियों, भाषाओं और इतिहासों को बेहतर ढंग से एकीकृत करने और उनका हर्ष मनाने के लिए विचारशील सुधार की भी आवश्यकता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि शिक्षा छात्रों को उनकी जड़ों से जोड़े और उन्हें वैश्वीकृत दुनिया के लिए तैयार करे। नई शिक्षा नीति (2020) प्रारंभिक चरणों में मातृभाषा में शिक्षण की सिफारिश करती है। इससे सांस्कृतिक पहचान सुदृढ़ होगी और शिक्षण परिणाम बेहतर होंगे।
डिजिटल उपकरण और प्रौद्योगिकियां दस्तावेजीकरण, शिक्षा और विविध सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों के व्यापक प्रसार के लिए नवीन मंच प्रदान करके सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने और बढ़ावा देने में शक्तिशाली सहयोगी के रूप में कार्य कर सकती हैं। पीएम ई-विद्या और दीक्षा जैसे सरकारी प्लेटफार्मों में बच्चों को अपनी विरासत से जुड़ने में मदद करने के लिए सांस्कृतिक मॉड्यूल शामिल किए जा सकते हैं।
मीडिया और फिल्में विभिन्न क्षेत्रों और समुदायों की कहानियों को प्रदर्शित करके सांस्कृतिक विविधता को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, जो अन्यथा अनदेखी रह जाती हैं। क्षेत्रीय सिनेमा, वृत्तचित्र और कथात्मक कहानी कहने से अल्प ज्ञात संस्कृतियों को व्यापक रूप से राष्ट्रीय चेतना में लाने में मदद मिलती है। उदाहरण के लिए, “कांतारा” (कन्नड़) जैसी फिल्मों ने न केवल सामाजिक मुद्दों को उजागर किया है, बल्कि अपने-अपने समुदायों की विशिष्ट पहचान का हर्ष भी मनाया और उसे संरक्षित भी किया है।
अंत में, तीव्र विकास के मद्देनजर सांस्कृतिक विविधता की सुरक्षा के लिए ठोस कानूनी और संस्थागत ढांचे आवश्यक हैं। अनुच्छेद 29 और 30 जैसे संवैधानिक प्रावधान अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक अधिकारों की पुष्टि करते हैं तथा यह सुनिश्चित करते हैं कि उनकी विशिष्ट पहचान सुरक्षित रहे। सांस्कृतिक नीतियों को प्रतीकात्मक संकेतों से आगे बढ़कर, स्मारकों और शिल्पों जैसी मूर्त विरासतों तथा संगीत, अनुष्ठानों और मौखिक इतिहास जैसी अमूर्त परंपराओं को सक्रिय रूप से संरक्षित करना होगा। संगीत नाटक अकादमी और इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र जैसी संस्थाओं को सुदृढ़ करना भारत के बहुलवादी सांस्कृतिक पारिस्थितिकी तंत्र को पोषित करने के लिए महत्वपूर्ण है।
विकास और संस्कृति के बीच का संबंध शून्य-योग वाला खेल नहीं होना चाहिए। जहां संस्कृति हमें पहचान, मूल्यों और ऐतिहासिक स्मृति से जोड़ती है, वहीं विकास हमें सम्मान, अवसर और बेहतर जीवन स्तर की ओर प्रेरित करता है। वास्तविक चुनौती इन दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में है, तथा यह सुनिश्चित करने में है कि प्रगति उस सांस्कृतिक मिट्टी को पोषित करे, न कि नष्ट करे, जिस पर हम विकसित हुए हैं। अपनी जड़ों से कटा हुआ राष्ट्र भौतिक सफलता तो प्राप्त कर सकता है, लेकिन उसके मूल में खोखलापन आ सकता है। इसके विपरीत, अनुकूलन के लिए अनिच्छुक समाज प्रासंगिकता की कीमत पर अपनी विरासत को संरक्षित कर सकता है। वास्तविक प्रगति प्राचीन को अस्वीकार कर नए को अपनाने में नहीं है, बल्कि एक सेतु का निर्माण करने में है जहां परंपरा आधुनिकता से जुड़ती है और विरासत आकांक्षाओं को समृद्ध करती है। ऐसे संतुलन में ही समृद्ध, बुद्धिमत्तापूर्ण और अधिक स्थायी विकास का मार्ग निहित है।
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