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निबंध लिखने का प्रारूपप्रस्तावना:
मुख्य भाग:
निष्कर्ष:
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लद्दाख के शीत मरुस्थल में, त्सेरिंग नाम का एक लड़का एक मद्धम रोशनी वाली कक्षा में बैठकर एक पाठ्यपुस्तक की पंक्तियाँ दोहरा रहा था जिसे वह समझ नहीं पा रहा था। उसके स्कूल में शिक्षण को केवल दोहराने की दिनचर्या माना जाता था, जहाँ सफलता का अर्थ था उत्तरों को सही ढंग से कॉपी करना, न कि अलग तरीके से सोचना। लेकिन सब कुछ बदल गया जब शिक्षा सुधारक सोनम वांगचुक ने अपने गाँव में SECMOL की परियोजना-आधारित शिक्षा पद्धति को लागू किया । सूरज की रोशनी से जगमगाते, सौर ऊर्जा से गर्म कक्षाओं में, त्सेरिंग ने अब उत्तर रटना छोड़ दिया था। उसने प्रश्न पूछना शुरू कर दिया। उसने मिट्टी-ईंट के कुचालक (इन्सुलेशन) के साथ प्रयोग किए, जल-संरक्षण प्रणालियाँ डिज़ाइन कीं, और अपने समुदाय की वास्तविक समस्याओं का समाधान किया। जो कभी बोझ जैसा लगता था, वह अब एक रोमांच बन गया। त्सेरिंग का मस्तिष्क अब केवल भरा नहीं जा रहा था, बल्कि प्रज्वलित हो रहा था । उसकी शिक्षा ने आज्ञाकारिता नहीं, बल्कि जिज्ञासा को जन्म दिया। उसकी यात्रा सुकरात के शाश्वत बुद्धिमत्ता को जीवंत करती है: शिक्षा की वास्तविक शक्ति इस बात में नहीं है कि वह क्या संचित करती है, बल्कि इसमें है कि वह भीतर क्या जाग्रत करती हैं ।
यह उद्धरण हमें पारंपरिक सीमाओं से परे शिक्षा के वास्तविक उद्देश्य पर पुनर्विचार करने की चुनौती देता है। क्या इसका उद्देश्य ज्ञान प्रदान करना है या फिर सोचने की क्षमता को प्रज्वलित करना है? इस निबंध में, हम इस द्वैत को समझने का प्रयास करेंगे, एक ओर रटने की शिक्षा की सीमाओं की तुलना प्रश्नोन्मुखी शिक्षा की परिवर्तनकारी क्षमता का विश्लेषण करेंगे।
“पात्र को भरने ” का रूपक एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का प्रतिनिधित्व करता है जो अन्वेषण और रचनात्मकता के स्थान पर स्मरण, निष्क्रिय ग्रहण और मानकीकरण को प्राथमिकता देती है। कई पारंपरिक प्रणालियों में, विशेष रूप से औपनिवेशिक या औद्योगिक आवश्यकताओं के अनुसार आकार लेने वाली प्रणालियों में, शिक्षा को आज्ञाकारी श्रमिकों को प्रशिक्षित करने के साधन के रूप में देखा जाता था, न कि स्वायत्त विचारकों को। 19वीं सदी के प्रशियाई शिक्षा मॉडल में एकरूपता, अनुशासन और स्थिर ज्ञान के संचरण पर ध्यान केंद्रित किया गया था। छात्रों को प्रश्न पूछने के बजाय दोहराना सिखाया जाता था। ब्राजील के प्रसिद्ध शिक्षा दार्शनिक पाउलो फ्रेरे ने शिक्षा के “बैंकिंग मॉडल” के रूप में इसकी आलोचना की, जहां शिक्षक जानकारी संचित करता है और छात्र उसे सुनता है, याद करता है और दोहराता है।
इस तरह की व्यवस्था परीक्षा-केंद्रित मॉडल में बनी हुई है, जहाँ सफलता का मापदंड ज्ञान में निपुणता नहीं, बल्कि केवल अंकों से तय किया जाता है। ऐसी व्यवस्थाओं में, बच्चे कक्षाओं में लोकतांत्रिक निर्णय लेने का अनुभव किए बिना लोकतंत्र की परिभाषाएँ याद कर लेते हैं। वे वास्तविक जीवन में गति का अवलोकन किए बिना ही न्यूटन के नियमों का अध्ययन करते हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षित मस्तिष्क “क्या” तो जानते हैं, लेकिन “क्यों” या “कैसे” का सार्थक बोध नहीं रखते ।
हालाँकि, सुकरात का शिक्षा दर्शन संवाद, प्रश्न पूछने और शिक्षार्थी की आंतरिक जागृति पर केंद्रित था। उनका मानना था कि ज्ञान कोई ऐसी वस्तु नहीं है जिसे हस्तांतरित किया जाए , बल्कि उसे भीतर से निकाला जाता है, खोजा जाता है। यह दृष्टिकोण रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा भी दोहराया गया है, जिन्होंने एक बार लिखा था, “सर्वोच्च शिक्षा वह है जो हमें केवल जानकारी ही नहीं देती बल्कि हमारे जीवन को सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ सामंजस्य में लाती है।” अपने शांतिनिकेतन स्कूल में, टैगोर ने प्रकृति, कला और जिज्ञासा के माध्यम से सीखने पर बल दिया। वहाँ न तो अच्छी तरह से निर्मित कक्षा-भवन और न ही रटंत परीक्षा प्रणाली थे, इसके बजाय, वहाँ वृक्षों की छाँव, चर्चाएँ, संगीत और आश्चर्य से भरी सीखने की भावना थी। उनकी पद्धति का उद्देश्य मस्तिष्क को भरना नहीं बल्कि उसे मुक्त करना था।
बिहार के गणितज्ञ डॉ. आनंद कुमार इस दृष्टिकोण के उदाहरण हैं। उनके “सुपर 30” कार्यक्रम ने वंचित छात्रों का चयन किया और उन्हें केवल सूत्रों और अभ्यासों के माध्यम से नहीं, बल्कि जिज्ञासा और आत्मविश्वास जगाकर IIT-JEE परीक्षाओं के लिए प्रशिक्षित किया। उनका शिक्षण उन्हें उत्तर देने के बारे में कम और उनकी अपनी सोच में विश्वास जगाने के बारे में अधिक था। ये छात्र, जिनमें से कई ने पहले कभी कंप्यूटर को छुआ तक नहीं था, आगे चलकर विश्व स्तर के इंजीनियर बन गए। उनकी सफलता केवल जानकारी पर आधारित नहीं थी, बल्कि उनकी क्षमता के जागरण पर आधारित थी।
दार्शनिक दृष्टिकोण से, सुकरात का मॉडल भारतीय वैचारिक परम्पराओं से निकटता से जुड़ा हुआ है। उपनिषदों में गुरु की भूमिका तथ्यों को बताना नहीं बल्कि छात्र को आत्म-ज्ञान या स्वयं के ज्ञान की ओर ले जाना है। जैसा कि छांदोग्य उपनिषद में कहा गया है: “तत् त्वम् असि” (वह (ब्रह्म) तू ही है)। इसलिए, शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति के आंतरिक दिव्यता और उद्देश्य को समझना है, न कि केवल उपयोगितावादी ज्ञान प्राप्त करना। बौद्ध धर्म में भी, शिक्षण आंतरिक परिवर्तन की एक प्रक्रिया है। बुद्ध की अपनी शिक्षाएँ हठधर्मिता पर नहीं बल्कि व्यक्तिगत अंतर्दृष्टि पर आधारित थीं। जैसा कि उन्होंने प्रसिद्ध रूप से निर्देश दिया था, “अपने लिए दीपक बनो।” ज्योति के रूप में शिक्षा का अर्थ है व्यक्तियों को बाहरी रोशनी पर निर्भर रहने के बजाय अपना स्वयं का प्रकाश खोजने में मदद करना।
इसके अतिरिक्त, सच्ची शिक्षा भावनात्मक बुद्धिमत्ता और नैतिक विवेक का भी पोषण करती है। सहानुभूति, सहयोग और चिंतन करने की क्षमता अकादमिक उत्कृष्टता जितनी ही महत्वपूर्ण है। ज्वाला जागृत करने वाली शिक्षा में मौन, आत्म-जागरूकता और नैतिक जांच के लिए जगह शामिल होनी चाहिए। इसके बिना ज्ञान यांत्रिक हो जाता है और बुद्धिमत्ता से विच्छिन्न हो जाता है। दिल्ली सरकार के स्कूलों में संचालित SEL (सामाजिक-भावनात्मक शिक्षा) मॉड्यूल ने छात्रों को तनाव को बेहतर ढंग से संभालने, सहानुभूति विकसित करने और उत्पीड़न को कम करने में मदद की है, जिससे ऐसे शिक्षार्थियों का पोषण हुआ है जो न केवल गहराई से सोचते हैं, बल्कि जिम्मेदारी भी महसूस करते हैं।
समकालीन शिक्षा प्रणालियाँ जो ज्योति मॉडल को अपनाती हैं, वे प्रायः पूछताछ-आधारित शिक्षा, अनुभवात्मक शिक्षा और डिजाइन सोच को प्राथमिकता देती हैं। फिनलैंड की शिक्षा प्रणाली की अक्सर इस बात के लिए प्रशंसा की जाती है।वहां स्कूल के अंतिम वर्षों तक कोई मानकीकृत परीक्षा नहीं होती, होमवर्क कम होता है और अंतःविषयक, विषयगत शिक्षा पर अधिक ध्यान दिया जाता है। बच्चे अन्वेषण, सहयोग और चिंतन द्वारा सीखते हैं।
जब हम प्रतिकूल परिस्थितियों के संदर्भ में शिक्षा पर विचार करते हैं तो ज्योति का रूपक और भी अधिक शक्तिशाली हो जाता है। उदाहरण के लिए, अफ़गानिस्तान में शबाना बसीज-रसिख के कार्य को ही लें, जिन्होंने तालिबान शासन के दौरान लड़कियों को गुप्त रूप से शिक्षित किया और चुपके से अपने घर पर ही स्कूल चलाया व इस तरह से शिक्षा की ज्योति जलाए रखी। उनका स्कूल, SOLA (स्कूल ऑफ़ लीडरशिप अफ़गानिस्तान), बाद में लड़कियों के लिए देश का पहला बोर्डिंग स्कूल बन गया। एक ऐसे देश में जहाँ बहुत से लोगों को बुनियादी साक्षरता से भी वंचित रखा गया था, शिक्षा केवल अधिकार नहीं बल्कि आशा और सशक्तिकरण का एक क्रांतिकारी कार्य बन गई। पढ़ी गई हर किताब, पूछे गए हर प्रश्न उत्पीड़न के अंधेरे के खिलाफ़ एक ज्योति की तरह थे। यह सुकरात के इस विश्वास को उजागर करता है कि शिक्षा मुक्ति का एक साधन है। यह न केवल मन को अज्ञानता से मुक्त करती है, बल्कि समाज को बंधन से भी मुक्त करती है।
जब शिक्षा का उद्देश्य प्रेरणा जगाना होता है, तो शिक्षक एक सुविधाप्रदाता बन जाता है, जो जिज्ञासा को पोषित करता है, प्रश्नों को प्रोत्साहित करता है, असफलता और विकास के लिए जगह देता है। सबसे अच्छे शिक्षक वे होते हैं जो केवल विषय-वस्तु नहीं पढ़ाते, बल्कि छात्र के भीतर कुछ जागृत करते हैं। भारत के पूर्व राष्ट्रपति और वैज्ञानिक डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को उनकी प्रेरणा देने की क्षमता के लिए सम्मानित किया जाता था। उन्होंने एक बार कहा था, “सीखने से रचनात्मकता आती है, रचनात्मकता से सोच पैदा होती है, सोच से ज्ञान मिलता है और ज्ञान आपको महान बनाता है।” उनकी कक्षाओं में अक्सर केवल व्याख्यान ही नहीं, बल्कि कहानियाँ, प्रयोग और प्रश्न भी शामिल होते थे।
इसके अलावा, स्कूली शिक्षा के समाप्त होने के साथ ही शिक्षा की ज्योति जलनी बंद नहीं होनी चाहिए। तेजी से बदलती दुनिया में, सीखने, भूलने और फिर से सीखने की क्षमता बहुत जरूरी है। आजीवन शिक्षण से व्यक्ति को जीवन भर प्रासंगिक, लचीला और चिंतनशील बने रहने की शक्ति मिलती है। सामुदायिक पुस्तकालय, डिजिटल प्लेटफॉर्म, मुक्त शिक्षण विश्वविद्यालय और अनौपचारिक नेटवर्क इस सतत चिंगारी को पोषित कर सकते हैं। केरल का सार्वजनिक पुस्तकालय आंदोलन, जिसमें वरिष्ठ नागरिकों और स्कूल छोड़ चुके लोगों के लिए डिजिटल पहुँच है, यह दर्शाता है कि औपचारिक शिक्षा से परे शिक्षण किस प्रकार लोकतांत्रिक भागीदारी और व्यक्तिगत विकास को समृद्ध कर सकता है।
फिर भी आज बहुत से शिक्षक अतिभारित पाठ्यक्रम, नौकरशाही कर्तव्यों और पुराने प्रशिक्षण विधियों में जकड़े हुए हैं। “भरने” से “प्रज्वलित करने” की दिशा में आगे बढ़ने के लिए, शिक्षकों को निरंतर पेशेवर विकास, शैक्षणिक स्वतंत्रता और सार्थक मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है। उन्हें जिज्ञासा को बढ़ावा देने वाला होना चाहिए, न कि विषय-वस्तु प्रदान करने वाले। शिक्षकों के लिए राष्ट्रीय व्यावसायिक मानक (NPST) और 50 घंटे के वार्षिक CPD (सतत व्यावसायिक विकास) के लिए NEP के प्रस्ताव का उद्देश्य शिक्षक की भूमिका को एक रचनात्मक मार्गदर्शक के रूप में बहाल करना है, न कि केवल पाठ्यक्रम निष्पादक के रूप में।
एक ऐसे शिक्षा मॉडल की ओर बढ़ने के लिए जो शिक्षा की ज्योति प्रज्वलित करे , केवल ढाँचागत नहीं बल्कि संरचनात्मक और दार्शनिक सुधार दोनों आवश्यक हैं। कक्षाओं को अधिक सहभागी बनना चाहिए, जिससे छात्रों को प्रश्न पूछने, मान्यताओं को चुनौती देने और पाठों को वास्तविक जीवन के अनुप्रयोगों से जोड़ने की अनुमति मिले। पाठ्यक्रम डिजाइन में अकादमिक सामग्री के साथ-साथ आलोचनात्मक सोच, रचनात्मकता और भावनात्मक बुद्धिमत्ता पर भी ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए। भारत की NEP 2020 जैसी नीतियाँ, जो वैचारिक समझ और विषय विकल्पों में लचीलेपन पर बल देती हैं, सही दिशा में उठाए गए कदम हैं। इसके अतिरिक्त, फील्डवर्क, कला, प्रयोग, कहानी सुनाना और अंतःविषय परियोजनाओं के माध्यम से अनुभवात्मक शिक्षा को एकीकृत करके शिक्षा को जीवंत बनाया जा सकता है। जब तकनीक का सोच-समझकर उपयोग किया जाता है, तो यह सीखने को व्यक्तिगत बना सकती है और पाठ्यपुस्तकों से परे अन्वेषण के लिए मंच प्रदान कर सकती है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि हमें ऐसी संस्कृति विकसित करनी चाहिए जो बच्चों की याददाश्त से ज़्यादा उनके सोचने के तरीके को महत्व दे। तभी शिक्षा वास्तव में एक स्थायी ज्योति प्रज्वलित हो सकती है।
जबकि पात्र को भरने और ज्योति को प्रज्वलित करने के बीच का द्वंद्व, कठोर, रटंत-आधारित शिक्षा प्रणालियों की आलोचना करने में उपयोगी है, एक वास्तविक परिवर्तनकारी मॉडल एक को दूसरे के लिए त्याग नहीं देता है, बल्कि दोनों में सामंजस्य स्थापित करता है। तथ्य और जिज्ञासा, संरचना और स्वतंत्रता, विषय-वस्तु और रचनात्मकता, प्रत्येक को विकास के लिए एक-दूसरे की आवश्यकता होती है। पात्र ज्ञान की नींव का प्रतिनिधित्व करता है, जबकि ज्योति उसे जीवन एवं ऊर्जा प्रदान करती है।
मूल तथ्यों को याद रखना स्वाभाविक रूप से समस्याजनक नहीं है। यह तभी सीमित हो जाता है जब इसे शुरुआत के बजाय अंत के रूप में देखा जाता है। तथ्यात्मक ज्ञान के आधार के बिना, आलोचनात्मक सोच में कोई आधार नहीं रह जाता, आलोचनात्मक सोच के बिना, तथ्य निष्क्रिय हो जाते हैं। यह सामंजस्य ही सार्थक शिक्षण का सार है। उदाहरण के लिए, एक विज्ञान के छात्र को रसायन विज्ञान में प्रवीणता प्राप्त करने के लिए आवर्त सारणी (पात्र) को याद करना चाहिए, लेकिन जब वे अटॉमिक बिहेवियर, बॉंडिंग पैटर्न और वास्तविक दुनिया के अनुप्रयोगों का पता लगाते हैं, तभी समझ की ज्योति प्रज्वलित होती है।
इस प्रकार, शिक्षा, पात्र और ज्योति के बीच चयन नहीं है, बल्कि उनके बीच का संवाद है। सर्वोत्तम कक्षाएं वे हैं जहां आधारभूत ज्ञान अन्वेषण को सक्षम बनाता है, जहां छात्रों पर विषय-वस्तु का बोझ नहीं होता बल्कि वे उससे सशक्त होते हैं।
इसलिए, जैसा कि सुकरात ने कल्पना की थी, शिक्षा एक निष्क्रिय कार्य नहीं बल्कि एक परिवर्तनकारी कार्य है। जैसे-जैसे भारत विकसित भारत @2047 के विजन की ओर अग्रसर है और सतत विकास लक्ष्य 4 (गुणवत्तापूर्ण शिक्षा) के प्रति वैश्विक प्रतिबद्धता के साथ स्वयं को संरेखित कर रहा है, उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रत्येक बच्चे को केवल तथ्यों से ही नहीं, बल्कि उद्देश्य से भी परिपूर्ण किया जाए। एक सच्चा विकसित राष्ट्र वह है जहां शिक्षा क्षमता को जागृत करती है, सहानुभूति का निर्माण करती है, तथा प्रत्येक गांव और शहर में नवाचार को बढ़ावा देती है। प्रत्येक शिक्षार्थी में जिज्ञासा की ज्योति जलाना केवल एक दार्शनिक आदर्श नहीं है, यह एक वैश्विक अनिवार्यता है। क्योंकि जागृत मस्तिष्क की चमक में एक सशक्त, समतापूर्ण और प्रबुद्ध विश्व व्यवस्था का भविष्य निहित है।
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