Q. भारतीय समाज की विकासशील प्रकृति को देखते हुए, संविधान अपने मूल सिद्धांतों को बनाए रखते हुए सामाजिक न्याय की बदलती माँगों को पूरा करने के लिए कैसे अनुकूल हो सकता है? (10 अंक, 150 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • संविधान सामाजिक न्याय की बदलती माँगों को पूरा करने के लिए किस प्रकार अनुकूलित हो सकता है, समझाइए।
  • चर्चा कीजिए कि संविधान के मूल सिद्धांतों को बनाए रखते हुए यह अनुकूलन कैसे प्राप्त किया जा सकता है।

उत्तर

भारतीय समाज में गंभीर परिवर्तन हो रहे हैं, पारिवारिक संरचना संयुक्त परिवार से एकल परिवार में बदल रही है, लैंगिक समानता की स्वीकार्यता बढ़ रही है, और जाति व LGBTQ+ अधिकारों पर विचार विकसित हो रहे हैं। चूँकि युवा पीढ़ी प्रगतिशील मूल्यों को अपना रही है, जबकि परंपराएँ बनी हुई हैं, इसलिए संविधान को इन परिवर्तनों को संबोधित करने और सभी के लिए न्याय और समानता को बनाए रखने के लिए अनुकूल होना चाहिए।

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सामाजिक न्याय की बदलती माँगों के अनुकूल ढलना

  • विधायी विकास: नए कानून यह सुनिश्चित करते हैं, कि संविधान उभरती सामाजिक चुनौतियों के प्रति उत्तरदायी बना रहे और समावेशिता को बढ़ावा दे। 
    • उदाहरण के लिए: शिक्षा का अधिकार अधिनियम (2009) ने अनुच्छेद 21A को लागू किया, जिससे 6-14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की गारंटी दी गई, जिससे हाशिए पर स्थित समूहों के लिए बाधाएं कम हुईं।
  • न्यायिक व्याख्या: न्यायालय उभरते सामाजिक मुद्दों को संबोधित करने और व्यक्तिगत अधिकारों को बनाए रखने के लिए संवैधानिक प्रावधानों की पुनर्व्याख्या करते हैं। 
    • उदाहरण के लिए: पुट्टस्वामी जजमेंट (2017) ने गोपनीयता के अधिकार को मान्यता देने के लिए अनुच्छेद 21 का विस्तार किया, जिससे तेजी से डिजिटल होते समाज में नागरिकों की सुरक्षा हुई।
  • समावेशी नीतियां: सकारात्मक कार्रवाई कार्यक्रम असमानताओं को कम करने में मदद करते हैं व समाज के सभी वर्गों के लिए उचित अवसर सुनिश्चित करते हैं। 
    • उदाहरण के लिए: 103वें संशोधन (2019) ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए आरक्षण की शुरुआत की, जो अनुच्छेद 46 के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक न्याय को बढ़ावा देता है ।
  • प्रौद्योगिकी विनियमन: डिजिटल स्पेस को नियंत्रित करने वाले कानून न्याय सुनिश्चित करते हैं और तेजी से विकसित हो रही तकनीकी दुनिया में नागरिकों को शोषण से बचाते हैं। 
    • उदाहरण के लिए: ‘ड्राफ्ट डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल’ (2023) अनुच्छेद 21 के तहत गोपनीयता अधिकारों की रक्षा करता है व डेटा उल्लंघन जैसी चिंताओं का समाधान करने का प्रयास करता है।
  • पर्यावरण न्याय पर ध्यान केन्द्रित करना: संवैधानिक तंत्र को मजबूत करना संसाधनों के समतापूर्ण उपयोग और पर्यावरणीय संधारणीयता को सुनिश्चित करता है। 
    • उदाहरण के लिए: राष्ट्रीय हरित अधिकरण (NGT) पर्यावरणीय उल्लंघनों को संबोधित करता है व भावी पीढ़ियों के लिए समता के साथ सतत विकास को संतुलित करता है।

संविधान के मूल सिद्धांतों को बनाए रखना

  • न्यायिक समीक्षा: न्यायालय बुनियादी ढाँचे के सिद्धांत को कायम रखते हैं और यह सुनिश्चित करते हैं कि कानून लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और समानता का पालन करते हैं। 
    • उदाहरण के लिए: NJAC संबंधी निर्णय (2015) वाद में, उच्चतम न्यायालय ने न्यायिक स्वतंत्रता को खतरे में डालने वाले प्रावधानों को खारिज कर दिया, नियंत्रण और संतुलन को बनाए रखा।
  • अधिकारों और कर्तव्यों में संतुलन: अधिकारों के साथ-साथ मौलिक कर्तव्यों पर जोर देने से व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामूहिक जिम्मेदारियों के बीच सामंजस्य सुनिश्चित होता है। 
    • उदाहरण के लिए: स्वच्छ भारत अभियान अनुच्छेद 51A पर प्रकाश डालता है , नागरिकों को सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वच्छता को बढ़ावा देते हुए स्वच्छता बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित करता है।
  • शासन का विकेंद्रीकरण: स्थानीय शासन को सशक्त बनाने से सहभागी लोकतंत्र को बढ़ावा मिलता है और समुदाय-विशिष्ट चिंताओं का समाधान होता है। 
    • उदाहरण के लिए: 73वें और 74वें संशोधन ने पंचायती राज और शहरी स्थानीय निकायों को मजबूत किया, जिससे जमीनी स्तर पर समावेशी निर्णय लेने को बढ़ावा मिला।
  • समानता और गैर-भेदभाव: अनुच्छेद 14 और 15 का विस्तार लिंग और पहचान-आधारित असमानताओं जैसे समकालीन मुद्दों को संबोधित करता है। 
    • उदाहरण के लिए: NALSA जजमेंट (2014) ने ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को थर्ड पार्टी के रूप में मान्यता दी और समानता को बढ़ावा दिया।
  • आवधिक संशोधन: सावधानी से तैयार किए गए संशोधन सामाजिक परिवर्तनों के अनुकूल होते हैं, जबकि न्याय और समानता के संवैधानिक मूल्यों को संरक्षित किया जाता है। 
    • उदाहरण के लिए: 42वें संशोधन (1976) ने प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द जोड़े, जिससे विविधतापूर्ण समाज में समावेशिता को बल मिला।

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संविधान को अपने मूल सिद्धांतों को संरक्षित करते हुए समकालीन चुनौतियों के अनुकूल बने रहना चाहिए। न्यायिक निगरानी, प्रगतिशील कानून और जमीनी स्तर पर भागीदारी के माध्यम से, यह हम सभी के लिए न्याय और समानता सुनिश्चित कर सकता है। यह अनुकूलनशीलता संविधान की प्रासंगिकता और न्यायपूर्ण व समावेशी भारत के दृष्टिकोण को बनाए रखेगी।

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