Q. भारतीय नगरपालिकाओं की वित्तीय स्वायत्तता में बाधा उत्पन्न करने वाली प्रमुख राजकोषीय चुनौतियों, जिनमें GST का प्रभाव भी शामिल है, का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए। क्या नगरपालिका बांड पर्याप्त समाधान हैं, या राजकोषीय न्याय पर आधारित गहन सुधार आवश्यक हैं? (10 अंक, 150 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • राजकोषीय स्वायत्तता में बाधा उत्पन्न करने वाली राजकोषीय चुनौतियाँ।
  • म्युनिसिपल बॉन्ड कैसे समाधान के रूप में कार्य करते हैं।
  • अन्य गहन सुधारों की आवश्यकता के बारे में बताइए।

उत्तर

भारत के शहरी क्षेत्र देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का लगभग दो-तिहाई उत्पन्न करते हैं, लेकिन कर राजस्व  में उनका हिस्सा एक प्रतिशत से भी कम है। आर्थिक विकास के इंजन होने के बावजूद, नगरपालिकाएँ वित्तीय रूप से कमजोर हैं। केंद्रीकृत कर प्रणाली और GST के लागू होने से उनकी राजस्व स्वायत्तता और कम हो गई है, जिससे भारत के राजकोषीय संघवाद की खामियाँ उजागर होती हैं।

नगरपालिकाओं की वित्तीय स्वायत्तता में बाधा डालने वाली प्रमुख चुनौतियाँ

  • कराधान शक्तियों का केन्द्रीयकरण: शहरों के पास प्रमुख कर स्रोतों पर प्रत्यक्ष नियंत्रण नहीं है, क्योंकि अधिकांश कर केंद्र या राज्य सरकारें एकत्र करती हैं।
    • उदाहरण: GST लागू होने के बाद एंट्री टैक्स और अधिभार जैसे कर समाप्त हो गए, जिससे नगरपालिकाओं की लगभग 19% राजस्व हानि हुई।
  • अनुदानों और हस्तांतरणों पर निर्भरता: नगरपालिकाएँ राज्य और केंद्र सरकार से मिलने वाले विवेकाधीन अनुदानों पर अत्यधिक निर्भर हैं, जिससे वित्तीय अनिश्चितता बनी रहती है।
  • संकीर्ण राजस्व आधार: संपत्ति कर और सेवा शुल्क से सीमित आय होती है, जिससे वित्तीय लचीलापन घटता है।
    • उदाहरण: संपत्ति कर शहर के कुल संभावित राजस्व का केवल 20–25% योगदान देता है और राजनीतिक हस्तक्षेप से प्रभावित रहता है।
  • त्रुटिपूर्ण क्रेडिट मूल्यांकन प्रणाली: क्रेडिट रेटिंग एजेंसियाँ केवल ‘स्वयं के राजस्व’ (Own Revenue) पर ध्यान देती हैं और नियमित अनुदानों को नजरअंदाज करती हैं, जिससे नगरपालिकाओं की वित्तीय साख प्रभावित होती है।
    • उदाहरण: RBI और क्रेडिट एजेंसियाँ अनुदानों को ‘गैर-आवर्ती आय’ मानती हैं।

नगर निगम बांड एक संभावित समाधान के रूप में

  • बुनियादी ढाँचा वित्तपोषण की क्षमता: बांड दीर्घकालिक पूँजी जुटाने में सहायक हो सकते हैं जैसे जल, अपशिष्ट प्रबंधन, परिवहन परियोजनाएँ आदि।
    • उदाहरण: नीति आयोग और 15वें वित्त आयोग ने शहरी विकास के लिए नगर निगम बांड को प्रोत्साहित किया है।
  • वित्तीय अनुशासन को सुदृढ़ करना: बांड ढाँचा नगरपालिकाओं को लेखा-जोखा सुधारने, लेखापरीक्षण करने और पारदर्शिता बढ़ाने के लिए प्रेरित करता है।
  • बाजार-आधारित संसाधन सृजन:  बांड सरकारी हस्तांतरणों पर निर्भरता घटाकर विविध वित्तीय स्रोत उपलब्ध कराते हैं, जो वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाओं  के अनुरूप हैं।
  • व्यवहार में सीमाएँ: कमजोर नगरपालिका साख और निवेशक विश्वास की कमी के कारण बांड का उपयोग सीमित है।
    • उदाहरण: भारत के अधिकांश नगर निगम बांड निम्न-रेटेड हैं क्योंकि उनके राजस्व प्रवाह और प्रशासनिक क्षमता अनिश्चित हैं।

राजकोषीय न्याय पर आधारित गहन सुधार

  • पुनर्कल्पित राजकोषीय संघवाद: शहरों को संवैधानिक रूप से सुरक्षित और पूर्वानुमेय कर हिस्सेदारी मिलनी चाहिए, न कि केवल अनुदान।
    • उदाहरण: 74वें संविधान संशोधन ने नगरपालिकाओं को शासन की समान इकाई के रूप में परिकल्पित किया था।
  • अनुदानों को वैध आय के रूप में मान्यता: क्रेडिट रेटिंग प्रणाली में अनुदान और साझा कर को नगरपालिकाओं की वैध आय में शामिल किया जाना चाहिए।
  • कर शक्तियों का विकेंद्रीकरण: नगरपालिकाओं को कुछ कर सीधे वसूलने और प्रबंधित करने का अधिकार दिया जाना चाहिए, जैसा कि स्कैंडिनेवियाई देशों में है।
    • उदाहरण: डेनमार्क और स्वीडन में नगरपालिकाएँ आयकर वसूलती हैं, जिससे वित्तीय स्वायत्तता और जवाबदेही दोनों सुनिश्चित होती हैं।
  • क्रेडिट रेटिंग और उधारी नियमों में सुधार: रेटिंग में केवल वित्तीय नहीं, बल्कि शासन संकेतक जैसे नागरिक सहभागिता, पारदर्शिता, लेखापरीक्षण अनुपालन को भी शामिल किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष

नगर निगम बांड अकेले भारत की शहरी वित्तीय संकट को हल नहीं कर सकते हैं। दीर्घकालिक समाधान के लिए विकेन्द्रीकृत और न्यायसंगत राजकोषीय प्रणाली आवश्यक है, जिसमें शहरों की राजस्व हिस्सेदारी संवैधानिक रूप से सुरक्षित हो। सहकारी संघवाद के सिद्धांतों पर आधारित नगरपालिकाओं की वित्तीय स्वायत्तता को सशक्त बनाना ही मजबूत, लचीले और आत्मनिर्भर शहरों के निर्माण की कुंजी है।

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