Q. दुर्लभ बीमारियों के लिए भारत में नीति और नियामक ढाँचे की आलोचनात्मक जाँच कीजिए। भारत इस क्षेत्र में सामर्थ्य, पहुँच और नवाचार को कैसे संतुलित कर सकता है? (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • भारत में दुर्लभ बीमारियों के लिए नीति और नियामक ढाँचे के सकारात्मक पहलुओं का परीक्षण कीजिए।
  • भारत में दुर्लभ बीमारियों के लिए नीति और नियामक ढाँचे की सीमाओं का परीक्षण कीजिए।
  • सुझाव दीजिए कि भारत इस क्षेत्र में सामर्थ्य, पहुँच  और नवाचार के बीच किस प्रकार संतुलन बना सकता है।

उत्तर

दुर्लभ बीमारियाँ जिन्हें अक्सर 2,500 व्यक्तियों में से 1 से भी कम को प्रभावित करने वाली स्थितियों के रूप में परिभाषित किया जाता है, सामूहिक रूप से भारत में 70 मिलियन से अधिक लोगों को प्रभावित करती हैं। उनके कम व्यक्तिगत प्रसार के बावजूद, उनका संचयी बोझ महत्वपूर्ण है। वर्ष 2021 में, भारत ने दुर्लभ रोगों के लिए राष्ट्रीय नीति शुरू की, फिर भी विनियामक स्पष्टता, ऑर्फन ड्रग्स की वहनीयता और अनुसंधान को प्रोत्साहित करने के संबंध में चिंताएँ बनी हुई हैं।

भारत में दुर्लभ रोगों के लिए नीति और नियामक ढाँचे के सकारात्मक पहलू

  • संवैधानिक समर्थन: अनुच्छेद 21 के तहत स्वास्थ्य का अधिकार, दुर्लभ रोग देखभाल के लिए कानूनी आधार को मजबूत करता है और यह सुनिश्चित करता है कि स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार माना जाए।
    • उदाहरण के लिए: पश्चिम बंग खेत मजदूर समिति बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (वर्ष 1996) में सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि राज्य को जीवन के अधिकार की रक्षा के लिए समय पर चिकित्सा उपचार उपलब्ध कराना चाहिए।
  • समर्पित राष्ट्रीय नीति: दुर्लभ रोगों के लिए राष्ट्रीय नीति (NPRD) वर्ष 2021 भारत में दुर्लभ रोगों के वर्गीकरण और प्रबंधन के लिए एक संरचित दृष्टिकोण प्रदान करती है।
    • उदाहरण के लिए: यह नीति दुर्लभ बीमारियों को तीन समूहों में वर्गीकृत करती है और वित्तीय सहायता के लिए तंत्र की रूपरेखा तैयार करती है, जिसके तहत विशिष्ट उपचार के लिए 50 लाख रुपये तक की सहायता प्रदान की जाती है।
  • मरीजों की रजिस्ट्री: दुर्लभ और अन्य वंशानुगत विकारों के लिए राष्ट्रीय रजिस्ट्री, प्रभावी योजना और मध्यक्षेप रणनीतियों के लिए डेटा एकत्र करने में मदद करती है।
  • न्यायिक हस्तक्षेप: भारतीय न्यायालयों ने सक्रिय रूप से नीति कार्यान्वयन सुनिश्चित किया है और सरकार को दुर्लभ रोग उपचार के व्यक्तिगत मामलों में तेजी से कार्रवाई करने का निर्देश दिया है।
    • उदाहरण के लिए: दिल्ली उच्च न्यायालय ने NPRD कार्यान्वयन की निगरानी के लिए एक समिति के गठन का आदेश दिया और दुर्लभ रोगों के मामलों में सरकारी कार्रवाई की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
  • स्थानीय उत्पादन के लिए प्रावधान: NPRD  की कार्यान्वयन रणनीति, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को ऑर्फन ड्रग्स के घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए औद्योगिक विभागों के साथ समन्वय करने का निर्देश देती है।

भारत में दुर्लभ रोगों के लिए नीति और नियामक ढाँचे की कमियाँ

  • अपर्याप्त वित्तीय सहायता: स्पाइनल मस्कुलर अट्रोफी जैसी उच्च लागत वाली दुर्लभ बीमारियों के आजीवन उपचार के लिए प्रति मरीज 50 लाख रुपये की वित्तीय सीमा अक्सर अपर्याप्त होती है।
    • उदाहरण के लिए: रिसडिप्लाम दवा से उपचार करा रहे एक बच्चे को जिसकी वार्षिक लागत 72 लाख रुपये थी, NPRD फंड समाप्त हो जाने तथा अतिरिक्त सहायता न मिलने के कारण उपचार बंद करना पड़ा।
  • धीमी नीति कार्यान्वयन: नीतिगत उपाय अक्सर अदालत के मध्यक्षेप के बाद ही सामने आते हैं, जो प्रशासनिक उदासीनता और सरकारी प्रतिक्रिया में देरी को दर्शाता है।
    • उदाहरण के लिए: स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय ने 2021 में दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्देश के बाद ही NPRD को मंजूरी दी  जो सक्रिय शासन की कमी को दर्शाता है।
  • पेटेंट पर कानूनी अस्पष्टता: भारत का वर्तमान ढाँचा, पेटेंट एकाधिकार से संबंधित समस्याओं को पूरी तरह से संबोधित नहीं करता है जो दुर्लभ बीमारियों के लिए सस्ती जेनेरिक दवाओं के उत्पादन को अवरुद्ध करता है।
    • उदाहरण के लिए: पेटेंटधारक अक्सर भारत में रिस्डिप्लाम जैसी आवश्यक दवाओं का विपणन करने से इनकार कर देते हैं, जिससे वे अधिकांश रोगियों के लिए अप्राप्य और दुर्गम हो जाती हैं।
  • नवप्रवर्तन के लिए प्रोत्साहन का अभाव: अनाथ औषधियों में अनुसंधान एवं विकास के लिए सरकार का समर्थन न्यूनतम है, जिससे स्थानीय स्तर पर नवप्रवर्तनशील, किफायती उपचार विकसित करने की भारत की क्षमता सीमित हो रही है।
  • अपर्याप्त जागरूकता और पहचान: दुर्लभ रोग के अधिकांश रोगियों का निदान या पंजीकरण नहीं हो पाता, जिससे उनकी वास्तविक संख्या का आकलन करना और उन्हें समय पर सहायता प्रदान करना कठिन हो जाता है।

भारत वहनीयता, पहुँच  और नवाचार में संतुलन कैसे बना सकता है

  • अनिवार्य लाइसेंसिंग लागू करना: सरकार को उच्च लागत वाली दुर्लभ बीमारियों की दवाओं के जेनेरिक उत्पादन की अनुमति देने हेतु पेटेंट अधिनियम के तहत अनिवार्य लाइसेंसिंग प्रावधानों का उपयोग करना चाहिए। 
    • उदाहरण के लिए: वर्ष 2012 में, भारत ने नैटको फार्मा को नेक्सावर के उत्पादन के लिए अनिवार्य लाइसेंस प्रदान किया  जिससे लीवर कैंसर के रोगियों के लिए इसकी लागत 95% से अधिक कम हो गई।
  • सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP): किफायती अनुसंधान एवं विकास तथा अनाथ दवाओं के घरेलू विनिर्माण के लिए सरकार, शिक्षा जगत और उद्योग के बीच सहयोग को प्रोत्साहित करना चाहिए। 
    • उदाहरण के लिए: COVAXIN के लिए उपयोग किए गए PPP मॉडल को दुर्लभ रोगों की दवाओं के लिए भी उपयोग में लाया जा सकता है, जिससे लागत कम होगी और नवाचार में तेजी आएगी।
  • कर और विनियामक प्रोत्साहन: अनाथ दवाओं को विकसित करने वाली फर्मों के लिए कर कटौती, बाजार विशिष्टता और फास्ट-ट्रैक अनुमोदन जैसे वित्तीय प्रोत्साहन शुरू करने चाहिए।
  • बीमा और CSR वित्तपोषण का विस्तार करना: सार्वजनिक और निजी बीमा योजनाओं में दुर्लभ रोगों के उपचार को शामिल करना चाहिए और वित्तीय अंतराल को कम करने के लिए कॉर्पोरेट्स से CSR वित्तपोषण को बढ़ावा देना चाहिए।
    • उदाहरण के लिए: वर्ष 2022 में, केरल उच्च न्यायालय ने केंद्र को वैकल्पिक वित्तपोषण मॉडल दिखाते हुए CSR और क्राउडफंडिंग के माध्यम से दुर्लभ बीमारियों के उपचार को वित्तपोषित करने का निर्देश दिया।
  • चिकित्सा अवसंरचना को मजबूत करना: शीघ्र निदान और मध्यक्षेप सुनिश्चित करने के लिए नैदानिक केंद्रों, स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण और जन जागरूकता अभियानों में निवेश करना चाहिए। उदाहरण के लिए: अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) को दुर्लभ बीमारियों के लिए राष्ट्रीय केंद्र के रूप में उन्नत किया जा सकता है  जिससे शीघ्र पहचान और बेहतर उपचार में मदद मिलेगी।

निदान, उपचार और अनुसंधान के लिए प्रणालीगत सहायता प्रदान करने हेतु एक मजबूत दुर्लभ रोग नीति का निर्माण करना होगा। सार्वजनिक-निजी भागीदारी को प्रोत्साहित करके, ऑर्फन ड्रग्स के विकास के लिए प्रोत्साहन प्रदान करके, प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा में दुर्लभ बीमारियों को शामिल करके और वित्तीय जोखिम सुरक्षा को बढ़ाकर, भारत सामर्थ्य, पहुँच  और नवाचार के बीच संतुलन बना सकता है, जिससे स्वास्थ्य देखभाल को समावेशी और न्यायसंगत बनाया जा सकता है।

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