प्रश्न की मुख्य माँग
- भारत के राजनीतिक परिदृश्य में चुनावी नारों/ प्रचार वाक्यों की भूमिका की जाँच कीजिए।
- चर्चा कीजिए कि वे लैंगिक रूढ़ियों को कैसे दर्शाते हैं?
- महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्त्व पर इनके क्या प्रभाव पड़ते हैं, इस पर प्रकाश डालिए।
- आगे की राह लिखिए।
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उत्तर
चुनावी नारे/ प्रचार वाक्य भारत के राजनीतिक परिदृश्य में एक शक्तिशाली साधन के रूप में कार्य करते हैं, जो पार्टी की विचारधाराओं को प्रभावशाली वाक्यांशों में बदल देते हैं। ‘जय जवान, जय किसान’ (1965) से लेकर ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ (2015) तक, इन नारों ने दशकों से मतदाताओं को संगठित किया है। वर्ष 2024 के चुनावों में, सोशल मीडिया ने अपनी पहुँच को और तेज कर दिया है, अभियान रणनीतियों को नया रूप दिया है।
भारत के राजनीतिक संचार में चुनावी नारे
- मतदाताओं को संगठित करने के लिए: चुनावी नारे राजनीतिक पहचान बनाते हैं एवं विचारधाराओं को संक्षिप्त, यादगार तरीके से समाहित करके मतदाताओं को संगठित करते हैं।
- उदाहरण के लिए: ‘गरीबी हटाओ’ के नारे ने इंदिरा गांधी के गरीब समर्थक नैरेटिव को आकार दिया एवं कांग्रेस को वर्ष 1971 के चुनाव जीतने में मदद की।
- संदेश पहुँचाने की रणनीति: नारे जटिल नीतियों को आकर्षक वाक्यांशों में सरल बनाते हैं, जनता की भावनाओं को प्रभावित करते हैं एवं शासन संबंधी नैरेटिव को आकार देते हैं।
- उदाहरण के लिए: ‘बिजली, सड़क, पानी’ जैसे नारे ग्रामीण मतदाताओं तक पहुँचाने आसान होते है, जो चुनाव अभियानों में बुनियादी ढाँचे की जरूरतों को दर्शाते हैं।
- अभियान का व्यावसायिकीकरण: डिजिटलीकरण के साथ, नारे अब AI-संचालित, व्यक्तिगत एवं लक्षित हैं, जो चुनावी रणनीतियों को प्रभावी ढंग से आकार देते हैं।
- प्रतीकात्मकता एवं भावनात्मक अपील: कई नारे राष्ट्रवाद, विकास एवं अखंडता का आह्वान करते हैं, जो मतदाताओं की भावनाओं को आकर्षित करते हैं।
- उदाहरण के लिए: वर्ष 2004 में ‘इंडिया शाइनिंग’ ने आर्थिक प्रगति का अनुमान लगाया, लेकिन गरीबों से जुड़ने में विफल रहा, जिससे NDA को चुनावी हार का सामना करना पड़ा।
- चुनावी प्रभाव में निरंतरता: तकनीकी प्रगति के बावजूद, नारे चुनावों में केंद्रीय भूमिका में रहे, जिससे मतदाता जुड़ाव में निरंतरता बनी रही।
- उदाहरण के लिए: ‘सबका साथ, सबका विकास’ ने समावेशी शासन की कहानियों को मजबूत किया।
लैंगिक आधारित रूढ़िवादिता का प्रतिबिंब
- पारंपरिक भूमिकाओं को मजबूत करना: नारे अक्सर महिलाओं को राजनीतिक अभिकर्ताओं के बजाय गृहिणी के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
- उदाहरण के लिए: ‘घर की लक्ष्मी’ (घर की देवी) महिलाओं की पहचान को घरेलू भूमिकाओं के बराबर बताती है, उनकी नेतृत्व क्षमता को अनदेखा करती है।
- निष्क्रिय लाभार्थी: महिलाओं को निष्क्रिय लाभार्थियों के रूप में दर्शाया जाता है, जिससे उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्त्व कम हो जाता है।
- उदाहरण के लिए: ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ (लड़कियों को बचाओ एवं शिक्षित करो) का अर्थ है कि महिलाओं को सशक्तीकरण के बजाय सुरक्षा की आवश्यकता है।
- मातृ रूपक: महिला नेताओं को पोषण एवं सुरक्षात्मक भूमिकाओं में प्रस्तुत किया जाता है, जिससे उनकी राजनीतिक पहचान सीमित हो जाती है।
- उदाहरण के लिए: ‘शक्ति का प्रतीक, माँ का रूप’ (शक्ति का प्रतीक, माँ का रूप) नेतृत्व को योग्यता के बजाय मातृत्व के बराबर दर्शाता है।
- लैंगिक आधारित योग्यता रूढ़िवादिता: महिलाओं की क्षमताओं पर सवाल उठाए जाते हैं, जिससे खुद को साबित करने की आवश्यकता को बल मिलता है।
- उदाहरण के लिए: ‘लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ’ (मैं एक लड़की हूँ, मैं लड़ सकती हूँ) से पता चलता है कि महिला राजनेताओं को गंभीरता से लिए जाने के लिए अतिरिक्त मान्यता की आवश्यकता है।
- प्रतीकात्मक व्यक्तित्व के रूप में चित्रण: निर्णय लेने वालों एवं स्वतंत्र नीति निर्माताओं के बजाय, महिला राजनेताओं को अक्सर सांस्कृतिक या पारिवारिक सम्मान के प्रतीक के रूप में पेश किया जाता है।
महिलाओं के राजनीतिक प्रतिनिधित्त्व पर प्रभाव
- निर्णय लेने की भूमिका में कमी: महिलाओं को सक्रिय नीति निर्माताओं के बजाय वोट बैंक के रूप में चित्रित किया जाता है।
- उदाहरण के लिए: ‘महिलाओं के विकास के लिए वोट दो’ महिलाओं को नेताओं के बजाय आश्रितों के रूप में उजागर करता है।
- चरित्र हनन: बदनामी संबंधी अभियान महिलाओं के निजी जीवन को निशाना बनाते हैं, उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता को कम करते हैं। महिला राजनेताओं को अक्सर उनकी शासन क्षमताओं के बजाय पोशाक एवं वैवाहिक स्थिति पर जाँच का सामना करना पड़ता है।
- पितृसत्ता को मजबूत करना: चुनावी नारे, नेतृत्व को पुरुष-केंद्रित सत्ता संरचनाओं के साथ जोड़ते हैं, जिससे महिला प्रतिनिधित्त्व को दरकिनार कर दिया जाता है।
- उदाहरण के लिए: ‘ना खाऊंगा, ना खाने दूंगा’ जैसे अधिकांश नेतृत्व-आधारित चुनावी नारे पुरुष नेतृत्त्व को दर्शाते हैं।
- लैंगिक हिंसा को सामान्य बनाना: लैंगिकवादी नारे उत्पीड़न को महत्त्वहीन बनाते हैं, जिससे महिलाएँ सक्रिय भागीदारी से दूर रहती हैं।
- उदाहरण के लिए: ‘लड़के हैं, गलती हो जाती है’ यौन उत्पीड़न को बढ़ावा देता है तथा लैंगिक हिंसा को वैध बनाता है।
- महिलाओं की राजनीतिक आकांक्षाओं को रोकना: रूढ़िवादी चुनावी नारे शासन में महिला प्रतिनिधित्व को हतोत्साहित करते हैं। कुछ चुनावी नारे राजनीतिक नेतृत्व में महिलाओं का समर्थन करते हैं, जिससे चुनाव लड़ने के लिए उनका प्रोत्साहन सीमित हो जाता है।
आगे की राह
- लैंगिक-समावेशी नारे: अभियानों में महिलाओं को सिर्फ लाभार्थी के रूप में नहीं, बल्कि नेता के रूप में बढ़ावा देना चाहिए।
- उदाहरण के लिए: ‘नारी शक्ति, देश की प्रगति’ जैसे नारे चुनावी संदेश में समावेशिता को बढ़ावा दे सकते हैं।
- नीति-उन्मुख संदेश: चुनावी नारों में सिर्फ प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व नहीं, बल्कि संरचनात्मक सुधारों को उजागर करना चाहिए।
- लिंगभेदी आख्यानों को हतोत्साहित करना: सख्त नियमों के तहत महिला विरोधी अभियान भाषा को दंडित किया जाना चाहिए।
- उदाहरण के लिए: चुनाव आयोग राजनीतिक अभियानों के लिए लैंगिक-संवेदनशील विज्ञापन मानकों को अनिवार्य कर सकते हैं।
- महिलाओं के नेतृत्व वाली राजनीतिक आख्यान: महिला नीति निर्माताओं द्वारा विकसित की गई महिला-केंद्रित अभियान रणनीतियों को प्रोत्साहित करना।
- उदाहरण के लिए: राजनीतिक दलों को महिला नेताओं द्वारा सह-निर्मित नारों को प्राथमिकता देनी चाहिए, जो विविध दृष्टिकोणों को दर्शाते हों।
- मीडिया की जवाबदेही: प्रेस एवं सोशल मीडिया को चुनाव अभियानों में लिंगभेदी आख्यानों को चुनौती देनी चाहिए।
- उदाहरण के लिए: फैक्ट चेक करने वाले संगठनों को लैंगिक-पक्षपाती राजनीतिक बयानबाजी की जाँच करनी चाहिए एवं उसे उजागर करना चाहिए।
राजनीतिक नैरेटिव को प्रभावित करने के अलावा, चुनावी नारे अक्सर लैंगिक रूढ़िवादिता को बढ़ावा देते हैं, जो महिलाओं की राजनीतिक एजेंसी को प्रतिबंधित करता है। राजनीतिक दलों को लैंगिक-संवेदनशील संदेश अपनाना चाहिए, नेतृत्व की भूमिकाओं में महिलाओं को प्रोत्साहित करना चाहिए एवं वास्तविक सशक्तिकरण को बढ़ावा देने के लिए नीति-संचालित प्रवचन की गारंटी देनी चाहिए। आरक्षण, जागरूकता अभियान तथा मीडिया जवाबदेही के माध्यम से राजनीतिक प्रतिनिधित्व का समर्थन करके नारों को सिर्फ बयानबाजी से लैंगिक-समावेशी लोकतंत्र के चालकों में बदलना संभव है।
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