Q. समानता के संवैधानिक सिद्धांतों के बावजूद, भारत की उच्च न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है। इस लैंगिक अंतर के लिए जिम्मेदार संरचनात्मक, संस्थागत और सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाओं की जाँच कीजिए और अधिक न्यायिक विविधता सुनिश्चित करने के लिए व्यापक सुधारों का सुझाव दीजिये। (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग 

  • महिलाओं से संबंधित समानता के संवैधानिक सिद्धांतों पर प्रकाश डालिए। 
  • समानता के इन सिद्धांतों के बावजूद, भारत की उच्च न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है। 
  • इस लैंगिक अंतर के लिए जिम्मेदार संरचनात्मक, संस्थागत एवं सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाओं की जाँच कीजिए। 
  • अधिक न्यायिक विविधता सुनिश्चित करने के लिए व्यापक सुधारों का सुझाव दीजिए। 

उत्तर

सार्वजनिक भागीदारी बढ़ने के बावजूद, वरिष्ठ न्यायिक पदों पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है। न्यायपालिका में उनकी सीमित उपस्थिति समावेशी न्याय के बारे में चिंताएँ उत्पन्न करती है, क्योंकि नागरिकों की चिंताओं को दूर करने एवं निष्पक्ष निर्णय देने के लिए अदालतों के लिए विविध प्रतिनिधित्व आवश्यक है, जिसके लिए तत्काल संस्थागत तथा संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता है।

महिलाओं से संबंधित समानता के संवैधानिक सिद्धांत

  • अनुच्छेद 14-समानता का अधिकार: कानून के समक्ष समानता एवं सभी व्यक्तियों के लिए कानूनों के समान संरक्षण की गारंटी देता है, यह सुनिश्चित करता है कि महिलाओं को सभी क्षेत्रों में पुरुषों के बराबर माना जाता है।
  • अनुच्छेद 15(3)-सकारात्मक भेदभाव: रोजगार, शिक्षा एवं प्रतिनिधित्व में वास्तविक समानता सुनिश्चित करने के लिए महिलाओं तथा बच्चों के लिए विशेष प्रावधान करने के लिए राज्य को सशक्त बनाता है।
  • अनुच्छेद 16-सार्वजनिक रोजगार में समान अवसर: न्यायपालिका सहित सार्वजनिक कार्यालयों में गैर-भेदभावपूर्ण नियुक्तियों को अनिवार्य बनाता है, जिससे महिलाओं के लिए उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित होता है।
  • अनुच्छेद 39(a)-समान वेतन एवं आजीविका: राज्य को यह सुनिश्चित करने का निर्देश देता है कि पुरुषों तथा महिलाओं को समान वेतन मिले एवं कानूनी व्यवसायों सहित आजीविका के लिए समान अवसर हों।
  • अनुच्छेद 51A(e)-भेदभाव का त्याग करने का कर्तव्य: नागरिकों को महिलाओं के लिए अपमानजनक प्रथाओं का त्याग करने के लिए प्रोत्साहित करता है, कानूनी एवं न्यायिक प्रणाली में लैंगिक संवेदनशील कार्य वातावरण को बढ़ावा देता है।

इन सिद्धांतों के बावजूद, भारत की उच्च न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है

  • उच्च न्यायालयों में कम प्रतिनिधित्व: महिला न्यायाधीशों की संख्या उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों में केवल 14.27% है, कुछ उच्च न्यायालयों में केवल एक या शून्य महिला न्यायाधीश हैं। 
    • उदाहरण के लिए: भारत के सबसे बड़े इलाहाबाद उच्च न्यायालय में 79 न्यायाधीशों में से केवल 3 महिलाएँ (2%) हैं। 
  • सर्वोच्च न्यायालय में और भी कम प्रतिनिधित्व: वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में केवल दो महिला न्यायाधीश कार्यरत हैं, एवं जून 2025 के बाद केवल एक महिला ही रह जाएगी।
    • उदाहरण के लिए: सर्वोच्च न्यायालय के अस्तित्व के 75 वर्षों में, 9 पुरुषों की तुलना में केवल 1 महिला को बार से सीधे पदोन्नत किया गया है। 
  • विलंबित नियुक्तियाँ एवं वरिष्ठता अंतर: महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति पुरुषों (51.8 वर्ष) की तुलना में अधिक आयु (53 वर्ष) में की जाती है, जिससे उनके मुख्य न्यायाधीश बनने की संभावना कम हो जाती है। 
    • उदाहरण के लिए: 25 उच्च न्यायालयों में से केवल गुजरात में ही महिला मुख्य न्यायाधीश हैं।
  • महिलाओं के खिलाफ कॉलेजियम का पक्षपात: अपारदर्शी कॉलेजियम प्रणाली अक्सर न्यायिक नियुक्तियों के लिए योग्य महिलाओं की अनदेखी करती है या उनकी पुष्टि में देरी करती है। 
    • उदाहरण के लिए: वर्ष 2020 से, उच्च न्यायालय की नियुक्तियों के लिए 9 महिलाओं की सिफारिश की गई थी, लेकिन 5 को सरकार ने अस्वीकार कर दिया। 
  • ग्लास सीलिंग एवं हीनता की धारणा: कानूनी पेशे में महिलाओं को अधिक निगरानी का सामना करना पड़ता है एवं उनसे पुरुषों की तुलना में अपनी योग्यता को अधिक कठोरता से साबित करने की अपेक्षा की जाती है। 
    • उदाहरण के लिए: पुरुष-प्रधान न्यायालयों में बहस करते समय महिला वकीलों को अक्सर प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है, जिससे उनके करियर की वृद्धि प्रभावित होती है।

लैंगिक अंतर के लिए जिम्मेदार संरचनात्मक, संस्थागत एवं सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाएँ

संरचनात्मक बाधाएँ

  • बुनियादी सुविधाएँ: कई जिला न्यायालयों में महिला न्यायाधीशों एवं वकीलों के लिए समर्पित शौचालय जैसी आवश्यक सुविधाओं का अभाव है।
    • उदाहरण के लिए: हाल ही में उच्चतम न्यायालय के अनुसंधान एवं नियोजन केंद्र द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, देश के लगभग पाँचवें जिला न्यायालय परिसरों में महिलाओं के लिए अलग शौचालयों की कमी है।
  • स्थानांतरण नीतियाँ: प्राथमिक देखभालकर्ता के रूप में महिलाओं की भूमिकाओं के प्रति असंवेदनशीलता उनके लिए न्यायपालिका में बने रहना कठिन बनाती है।
  • कार्य-जीवन संतुलन नीतियों का अभाव: न्यायिक प्रणाली में लचीली कार्य नीतियों, माता-पिता की छुट्टी एवं संस्थागत समर्थन का अभाव है, जो महिलाओं को न्यायिक करियर बनाने से हतोत्साहित करता है।

संस्थागत बाधाएँ

  • वरिष्ठता मानदंड: उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सर्वोच्च न्यायालय में वरिष्ठता-आधारित पदोन्नति महिलाओं के लिए हानिकारक है, क्योंकि पारिवारिक जिम्मेदारियों के लिए करियर ब्रेक अक्सर उनकी वरिष्ठता को सीमित कर देता है।
  • विलंबित सरकारी मंजूरी: यहाँ तक ​​कि जब कॉलेजियम द्वारा महिलाओं की सिफारिश की जाती है, तो उनके नाम अक्सर कार्यकारी स्तर पर विलंबित या अस्वीकृत कर दिए जाते हैं।

सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाएँ

  • रूढ़िवादिता एवं लैंगिक पूर्वाग्रह: कानून में महिलाओं को उच्च-स्तर के आपराधिक एवं संवैधानिक मामलों को संभालने में कम सक्षम माना जाता है, जिससे उनके करियर की प्रगति सीमित हो जाती है।
  • कानून के क्षेत्र में पुरुष-प्रधान समाज: कानूनी पेशा ऐतिहासिक रूप से पुरुषों का गढ़ रहा है, जिसमें महिलाओं के लिए कम सलाह के अवसर हैं।
    • उदाहरण के लिए: उत्तराखंड, मेघालय एवं त्रिपुरा जैसे कुछ उच्च न्यायालयों में कोई महिला न्यायाधीश नहीं हैं।

अधिक न्यायिक विविधता सुनिश्चित करने के लिए व्यापक सुधार

  • पारदर्शी नियुक्ति प्रक्रिया: कॉलेजियम को स्पष्ट योग्यता-आधारित मानदंड निर्धारित करने चाहिए एवं वकीलों को खुली चयन प्रणाली के माध्यम से न्यायाधीश पद के लिए आवेदन करने की अनुमति देनी चाहिए।
  • लैंगिक विविधता अधिदेश: उच्च न्यायालयों एवं सर्वोच्च न्यायालय को संसदीय सीट आरक्षण के समान महिलाओं के कम से कम 33% प्रतिनिधित्व का लक्ष्य रखना चाहिए।
  • लक्षित प्रशिक्षण एवं मेंटरशिप कार्यक्रम: महिला वकीलों को न्यायाधीश पद के लिए तैयार करने के लिए न्यायिक मेंटरशिप योजनाएँ तथा फास्ट-ट्रैक नेतृत्व कार्यक्रम स्थापित करना।
    • उदाहरण के लिए: राष्ट्रीय न्यायिक अकादमी न्यायाधीश बनने की इच्छुक महिला वकीलों के लिए विशेष कार्यक्रम शुरू कर सकती है।
  • नियुक्तियों में सरकार की जवाबदेही: कार्यपालिका को कॉलेजियम की सिफारिशों को संसाधित करने के लिए समय सीमा से बंधा होना चाहिए, जिससे महिला न्यायाधीशों की समय पर पुष्टि सुनिश्चित हो सके।
    • उदाहरण के लिए: सरकारी मंजूरी के लिए 90 दिनों की वैधानिक समय सीमा राजनीतिक रूप से प्रेरित देरी को रोक सकती है।
  • न्यायपालिका में कार्यस्थल सुधार: पेशे में महिलाओं को बनाए रखने के लिए माता-पिता की छुट्टी, कार्य के लचीले घंटे एवं कार्यस्थल पर उत्पीड़न से सुरक्षा जैसी लैंगिक-संवेदनशील नीतियों को लागू करना।
    • उदाहरण के लिए: न्यायालय महिला न्यायाधीशों एवं वकीलों की सहायता के लिए परिवार-अनुकूल कार्य कार्यक्रम तथा स्थल पर बाल देखभाल सुविधाएँ लागू कर सकते हैं।

उच्च स्तर पर न्यायपालिका में लैंगिक समानता हासिल करना सिर्फ प्रतिनिधित्व का मामला नहीं है, बल्कि यह परिवर्तनकारी न्याय की दिशा में एक कदम है। संस्थागत सुधारों, आरक्षण नीतियों एवं लैंगिक रूप से संवेदनशील न्यायिक नियुक्तियों के जरिए संरचनात्मक पूर्वाग्रहों को संबोधित करके समावेशिता सुनिश्चित की जा सकती है। साथ ही, कानूनी शिक्षा का प्रसार, कार्यस्थल सुधार तथा सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव से सक्षम महिला न्यायाधीशों की एक पाइपलाइन बनेगी, जिससे वास्तव में न्यायसंगत न्यायपालिका को बढ़ावा मिलेगा।

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