प्रश्न की मुख्य माँग
- भारत के आर्थिक विकास में बढ़ते पूँजी-श्रम अनुपात के निहितार्थों का परीक्षण कीजिए।
- चर्चा कीजिए कि नीति निर्माता श्रम-प्रचुर देश में रोजगार सृजन की आवश्यकता के साथ तकनीकी प्रगति को किस प्रकार से संतुलित कर सकते हैं।
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उत्तर:
पूँजी-श्रम अनुपात, उत्पादन में उपयोग किए जाने वाले श्रम की मात्रा के सापेक्ष पूँजी (मशीनरी, उपकरण, प्रौद्योगिकी) के अनुपात को संदर्भित करता है। इसका बढ़ता अनुपात, प्रायः ऑटोमेशन और प्रौद्योगिकी के अधिक उपयोग को दर्शाता है। भारत में, जहाँ श्रम बल प्रचुर है, बढ़ता पूँजी-श्रम अनुपात उत्पादकता को बढ़ा सकता है परंतु अकुशल क्षेत्र में रोजगार के अवसरों को कम कर सकता है। यह प्रवृत्ति आर्थिक विकास को प्रभावित करती है, जिसके लिए तकनीकी प्रगति और रोजगार सृजन के बीच संतुलन की आवश्यकता होती है।
भारत की आर्थिक वृद्धि में बढ़ते पूँजी-श्रम अनुपात के निहितार्थ
- उत्पादकता में वृद्धि: उत्पादन में पूँजी बढ़ने से प्रति कर्मचारी उत्पादकता और उत्पादन बढ़ता है, जिससे आर्थिक विकास में योगदान मिलता है।
उदाहरण के लिए: आईटी क्षेत्र में AI के उपयोग ने दोहराए जाने वाले कार्यों को स्वचालित बनाकर उत्पादकता को बढ़ाया है, जिससे कुशल श्रमिकों को जटिल समाधानों पर ध्यान केंद्रित करने की सुविधा मिली है, जिससे IT सेवाओं के निर्यात को बढ़ावा मिला है।
- रोजगार पर प्रभाव: उच्च पूँजी-श्रम अनुपात, कम कौशल वाले क्षेत्रों में श्रम की माँग को कम कर सकता है, जिससे रोजगार में कमी आ सकती है। उदाहरण के लिए: भारत में कपड़ा क्षेत्र में ऑटोमेशन ने कताई और बुनाई में श्रम की आवश्यकताओं को कम कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप उत्पादकता में वृद्धि के बावजूद रोजगार में कमी आई।
- कौशल आवश्यकताओं में बदलाव: स्वचालन और उन्नत प्रौद्योगिकियों के लिए अधिक कुशल कार्यबल की आवश्यकता होती है, जिससे रोजगार उच्च-कौशलयुक्त रोजगारों की ओर स्थानांतरित हो जाता है।
उदाहरण के लिए: राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (NSDC) ने उद्योग की जरूरतों के साथ तालमेल बिठाते हुए AI, रोबोटिक्स और डेटा एनालिटिक्स जैसे उभरते क्षेत्रों के लिए श्रमिकों को कौशल प्रदान करने हेतु कार्यक्रम शुरू किए।
- आय असमानता: उच्च पूँजी-श्रम अनुपात आय अंतर को बढ़ा सकता है, क्योंकि पूँजी मालिकों को श्रमिकों की तुलना में अधिक लाभ हो सकता है, खासकर पूँजी-गहन उद्योगों में।
उदाहरण के लिए: विनिर्माण में ऑटोमेशन ने पूँजी मालिकों के मुनाफे में वृद्धि की जबकि श्रमिकों की वेतन वृद्धि को सीमित कर दिया, जिससे आर्थिक असमानता बढ़ गई।
- आर्थिक विविधीकरण: पूँजी-प्रधान क्षेत्रों की ओर भारत का झुकाव, श्रम-प्रधान उद्योगों की वृद्धि को धीमा कर सकता है, जिससे ग्रामीण रोजगार सीमित हो सकता है।
उदाहरण के लिए: IT और वित्त क्षेत्र फलते-फूलते हैं, परंतु ग्रामीण भारत में श्रम-प्रधान उद्योगों पर ध्यान न देने से ग्रामीण रोजगार वृद्धि धीमी हो गई है।
- MSME के लिए चुनौतियाँ: लघु और मध्यम उद्यमों को पूँजी-प्रधान प्रौद्योगिकियों को अपनाने में कठिनाई होती है, जिससे उनकी प्रतिस्पर्द्धात्मकता और रोजगार सृजन क्षमता सीमित हो जाती है।
उदाहरण के लिए: भारत में कई MSMEs के पास वहनीय प्रौद्योगिकी की उपलब्धता नहीं है, जिससे उत्पादकता में बाधा आती है और वे परिचालन को आगे बढ़ाने में असमर्थ हैं।
- कृषि क्षेत्र में विस्थापन: कृषि में ऑटोमेशन से श्रम की माँग कम हो जाती है, परंतु विनिर्माण क्षेत्र विस्थापित कृषि श्रमिकों को कार्य पर नहीं रख पाता, जिससे बेरोज़गारी बढ़ती है।
उदाहरण के लिए: कृषि में मशीनीकरण से मैनुअल श्रम की आवश्यकता कम हो गई, फिर भी विनिर्माण क्षेत्र इन विस्थापित श्रमिकों को पूरी तरह से समायोजित नहीं कर पाया है।
- विनिर्माण में पूँजी निवेश: विनिर्माण में उच्च पूँजी निवेश से प्रतिस्पर्धात्मकता में सुधार हो सकता है परंतु पर्याप्त रोजगार सृजन सुनिश्चित करना अभी भी एक महत्त्वपूर्ण पहलू बना हुआ है।
उदाहरण के लिए: मेक इन इंडिया पहल ने विनिर्माण में विदेशी पूँजी को आकर्षित किया है परंतु कपड़ा और इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे रोजगार-गहन उद्योगों पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है।
नीति निर्माता, तकनीकी प्रगति और रोजगार सृजन को किस प्रकार से संतुलित करते हैं:
- श्रम-प्रधान उद्योगों को बढ़ावा देना: नीति निर्माताओं को रोजगार को बनाए रखने के लिए ऑटोमेशन के साथ-साथ मानव श्रम की आवश्यकता वाले क्षेत्रों को प्रोत्साहित करना चाहिए।
उदाहरण के लिए: प्रधानमंत्री रोजगार प्रोत्साहन योजना (PMRPY), नियोक्ताओं को वित्तीय सहायता प्रदान करके श्रम-प्रधान क्षेत्रों में रोजगार सृजन को बढ़ावा देती है।
- कौशल विकास के लिए सार्वजनिक-निजी भागीदारी: कौशल विकास प्रयासों को उद्योग की आवश्यकताओं के साथ जोड़ने के लिए सरकारी और निजी क्षेत्रों के बीच सहयोग जरूरी है।
उदाहरण के लिए: कौशल भारत मिशन ऐसे पाठ्यक्रम विकसित करता है जो उद्योग की आवश्यकताओं से मेल खाते हों, जिससे AI और रोबोटिक्स जैसे उन्नत क्षेत्रों में रोज़गार सुनिश्चित हो।
- MSME के लिए प्रौद्योगिकी समर्थन: MSME में प्रौद्योगिकी अपनाने के लिए समर्थन प्रदान करने से ऑटोमेशन और रोजगार सृजन के बीच संतुलन बनाया जा सकता है।
- अनुकूली शिक्षा नीतियाँ: शिक्षा नीतियों में निरंतर अपडेट से कार्यबल को भविष्य की तकनीकी प्रगति के लिए तैयार करने में मदद मिल सकती है।
उदाहरण के लिए: राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP), 2020 डिजिटल साक्षरता और व्यावसायिक प्रशिक्षण पर जोर देती है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि कार्यबल उभरती हुई तकनीकों के अनुकूल हो।
- श्रम बाजार में लचीलापन: श्रम सुधारों के माध्यम से श्रम अधिकारों और श्रम-प्रधान क्षेत्रों में निवेश आकर्षित करने के लिए लचीलापन,दोनों सुनिश्चित होने चाहिए।
उदाहरण के लिए: भारत की नई श्रम संहिताएँ अनुपालन को सरल बनाती हैं, जिससे व्यवसायों को प्रतिस्पर्द्धी बने रहते हुए अधिक श्रमिकों को काम पर रखने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है।
- उच्च-संभावना वाले क्षेत्रों में रोजगार को बढ़ावा देना: नीति निर्माता उच्च विकास और रोजगार क्षमता वाले क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं, जैसे पर्यटन और लॉजिस्टिक्स।
उदाहरण के लिए: पर्यटन क्षेत्र, देखो अपना देश जैसी पहलों के तहत, लाखों नौकरियों का सृजन कर सकते हैं, जिससे स्वचालन से विस्थापित श्रमिकों को काम पर रखने में मदद मिलेगी।
- हरित नौकरियों को प्रोत्साहित करना: हरित प्रौद्योगिकी में निवेश आर्थिक विकास के लिए एक स्थायी मार्ग प्रदान करता है, साथ ही नए रोजगार भी सृजित करता है।
उदाहरण के लिए: राष्ट्रीय सौर मिशन से सौर ऊर्जा स्थापना और रखरखाव में हज़ारों नौकरियों के सृजन की उम्मीद है, जिससे पर्यावरण और रोजगार लक्ष्यों को पूरा करने में मदद मिलेगी।
- श्रम-समावेशी तकनीकी समाधान: नीति निर्माताओं को ऐसे तकनीकी समाधान अपनाने चाहिए जो मानव श्रम की जगह लेने के बजाय उसका पूरक बनें, जिससे रोजगार सृजन सुनिश्चित हो।
उदाहरण के लिए: ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म, लास्ट-माइल–डिलीवरी के लिए मानव श्रम के साथ-साथ प्रौद्योगिकी का उपयोग करते हैं, तथा लॉजिस्टिक्स में रोजगार सृजन के साथ ऑटोमेशन को संतुलित करते हैं।
भारत को प्रौद्योगिकी-संचालित अर्थव्यवस्था की ओर अपनी यात्रा में समावेशी विकास सुनिश्चित करना चाहिए। श्रम-प्रधान उद्योगों को बढ़ावा देकर, कौशल पहलों को बढ़ाकर और नीतिगत लचीलापन बनाए रखकर, भारत सतत आर्थिक विकास के लिए अपने पूँजी-श्रम अनुपात का लाभ उठा सकता है। इस संदर्भ में एक संतुलित दृष्टिकोण रोजगार सृजन सुनिश्चित करेगा, भारत के जनसांख्यिकीय लाभांश को संरक्षित करेगा और वैश्विक बाजार में दीर्घकालिक प्रतिस्पर्धात्मकता को सुरक्षित करेगा।
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