प्रश्न की मुख्य मांग
- न्यायिक हस्तक्षेप के दायरे पर प्रकाश डालिए।
- न्यायिक हस्तक्षेप की सीमाओं पर प्रकाश डालिए।
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उत्तर:
विदेश नीति के मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप, विशेषकर जब अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून (International Humanitarian Law- IHL) के उल्लंघन का आरोप लगाया जाता है, घरेलू कानूनी ढाँचे एवं अंतरराष्ट्रीय दायित्वों के प्रतिच्छेदन पर होता है। न्यायालय मौलिक अधिकारों की सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, लेकिन संवैधानिक सिद्धांत उनके हस्तक्षेप के दायरे को सीमित करते हैं।
ऐसे मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप का दायरा जहाँ विदेश नीति के फैसले अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून के संभावित उल्लंघन का कारण बनते हैं
- कार्यकारी निर्णयों की न्यायिक समीक्षा: भारतीय न्यायपालिका विदेश नीति कार्यों सहित कार्यकारी निर्णयों की समीक्षा कर सकती है यदि वे मौलिक अधिकारों या संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 32 एवं अनुच्छेद 226 व्यक्तियों को मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों से संपर्क करने का अधिकार देते हैं।
- संवैधानिक सुरक्षा उपाय एवं मानवीय कानून: न्यायपालिका ऐसे मामलों में हस्तक्षेप करने के लिए अनुच्छेद 21 (जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) का इस्तेमाल कर सकती है, जहाँ विदेश नीति के फैसले, जैसे सैन्य कार्रवाई या अंतरराष्ट्रीय संधियां, संभावित रूप से मानवीय कानूनों का उल्लंघन करते हैं।
- उदाहरण के लिए: मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) में, अदालत ने मानवाधिकारों के महत्व पर जोर देते हुए अनुच्छेद 21 की व्याख्या का विस्तार किया, जो जीवन एवं स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाले विदेश नीति निर्णयों तक विस्तारित हो सकता है।
- एक कानूनी मानक के रूप में अंतरराष्ट्रीय मानवतावादी कानून: भारत ने जिनेवा कन्वेंशन जैसी प्रमुख IHL संधियों की पुष्टि की है, जो न्यायिक हस्तक्षेप के लिए एक कानूनी मानक के रूप में काम कर सकती हैं।
- उदाहरण के लिए: 1999 में गुजरात उच्च न्यायालय ने दो इराकी शरणार्थियों के निर्वासन को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत गैर-वापसी के सिद्धांत का उल्लेख किया, यहां तक कि विदेश नीति निर्णयों में भी भारत के मानवीय दायित्वों पर जोर दिया।
- वैश्विक न्यायशास्त्र एवं सार्वभौमिक क्षेत्राधिकार: हालाँकि भारत में स्पष्ट सार्वभौमिक क्षेत्राधिकार कानून नहीं हैं, फिर भी अदालतें कुछ परिस्थितियों में अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून के उल्लंघन का समाधान कर सकती हैं।
- उदाहरण के लिए: NHRC बनाम अरुणाचल प्रदेश राज्य (1996) में, सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक अधिकारों एवं भारत के अंतरराष्ट्रीय दायित्वों दोनों का आह्वान करते हुए, चकमा शरणार्थियों के भारत में रहने के अधिकार को बरकरार रखा।
ऐसे मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप की सीमाएं जहाँ विदेश नीति के फैसले अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून के संभावित उल्लंघन का कारण बनते हैं:
- शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत: शक्तियों के पृथक्करण के कारण, अदालतें अक्सर विदेश नीति के मामलों पर न्यायिक हस्तक्षेप को सीमित करते हुए कार्यकारी शाखा को सौंप देती हैं। विदेश नीति संबंधी निर्णयों को कार्यपालिका के विशेषाधिकार के रूप में देखा जाता है, खासकर जब उनमें संवेदनशील राजनयिक चिंताएं शामिल होती हैं, जिससे न्यायिक निरीक्षण की गुंजाइश कम हो जाती है।
- अंतरराष्ट्रीय कानून के बाध्यकारी प्रवर्तन का अभाव: हालाँकि अदालतें अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानून का उल्लेख कर सकती हैं, लेकिन इसे राष्ट्रीय कानून में शामिल किए जाने तक घरेलू न्यायालयों में सीधे लागू नहीं किया जा सकता है।
- उदाहरण के लिए: भारत में, अंतरराष्ट्रीय संधियों या सम्मेलनों को कानूनी रूप से बाध्यकारी होने के लिए विधायी अनुमोदन की आवश्यकता होती है, जो केवल मानवीय उल्लंघनों के आधार पर न्यायिक हस्तक्षेप को सीमित करता है।
- राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी चिंताएँ: न्यायिक हस्तक्षेप अक्सर उन मामलों में सीमित होता है जहाँ विदेश नीति के निर्णय राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े होते हैं। न्यायालय यह स्वीकार करते हुए सावधानी बरतती हैं कि सैन्य अभियानों, रक्षा रणनीतियों या खुफिया कार्यों के लिए उनके दायरे से परे विशेष ज्ञान की आवश्यकता होती है।
- जवाबदेही के लिए सीमित तंत्र: IHL उल्लंघनों को जन्म देने वाले विदेश नीति निर्णयों के लिए सरकार को जवाबदेह ठहराने में न्यायलयों को व्यावहारिक सीमाओं का सामना करना पड़ सकता है। कानूनी उपाय अक्सर अस्पष्ट होते हैं, एवं अंतरराष्ट्रीय संबंधों में न्यायिक आदेशों को लागू करना कूटनीतिक रूप से संवेदनशील हो सकता है, जिससे हस्तक्षेप की प्रभावशीलता कम हो सकती है।
- राजनीतिक प्रश्नों की गैर-न्यायसंगतता: राजनीतिक प्रश्न सिद्धांत जटिल राजनीतिक निर्णयों से जुड़े विदेश नीति मामलों में न्यायिक समीक्षा को सीमित करता है। न्यायालय सैन्य या अंतरराष्ट्रीय गठबंधन जैसे मुद्दों को गैर-न्यायसंगत मान सकती हैं, क्योंकि वे उनके संवैधानिक जनादेश से परे हैं।
जबकि न्यायालय घरेलू कानूनी ढाँचे के भीतर मानवीय मानकों को कायम रख सकती हैं, विदेश नीति में कार्यपालिका की प्रधानता उनकी भूमिका को सीमित करती है। मानवाधिकारों की रक्षा एवं राष्ट्रीय संप्रभुता तथा सुरक्षा का सम्मान करने के बीच संतुलन बनाना न्यायपालिका के लिए एक लगातार चुनौती बनी हुई है। इस चुनौती से निपटने के प्रयास समय की मांग हैं।
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