उत्तर:
दृष्टिकोण:
- प्रस्तावना: लोकतांत्रिक शासन में मौलिक सिद्धांत के रूप में शक्तियों के पृथक्करण के महत्व को रेखांकित कीजिए।
- मुख्य विषयवस्तु:
- विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की भूमिकाओं और कार्यों का विवरण देते हुए भारत में संवैधानिक ढांचे पर चर्चा कीजिए।
- विशिष्ट उदाहरण प्रदान करते हुए जन विश्वास अधिनियम, 2022 जैसे सिद्धांत की हालिया चुनौतियों और न्यायिक अतिरेक के उदाहरणों की जांच कीजिए।
- निष्कर्ष: सरकार की तीन शाखाओं के बीच संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता पर विचार करते हुए निष्कर्ष निकालिए।
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प्रस्तावना:
शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत, लोकतांत्रिक शासन की आधारशिला है। यह सरकार की तीन प्राथमिक शाखाओं: कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के कुशल कामकाज और स्वायत्तता के लिए महत्वपूर्ण है। यह पृथक्करण जांच और संतुलन(checks and balances) की एक प्रणाली सुनिश्चित करता है, जिससे प्रत्येक शाखा की अलग और स्वतंत्र भूमिका होती है, जो सत्ता की एकाग्रता को रोकती है और लोकतंत्र की रक्षा करती है।
मुख्य विषयवस्तु:
भारत में संवैधानिक ढाँचा
भारत में, शक्तियों का पृथक्करण पूर्ण नहीं बल्कि कार्यात्मक है और इसे जाँच और संतुलन की प्रणाली के भीतर संचालित करने के लिए सृजित किया गया है। भारतीय संविधान में स्पष्ट रूप से शक्तियों के पृथक्करण का उल्लेख नहीं है बल्कि इसे अंतर्निहित रूप से शामिल किया गया है।
- विधायिका: विधायिका का प्राथमिक कार्य, जिसमें संसद और राज्य विधानमंडल शामिल हैं, कानून बनाना है। यह निकाय एक मौलिक भूमिका निभाता है, क्योंकि यह कार्यपालिका और न्यायपालिका के संचालन के लिए आधार तैयार करता है।
- कार्यपालिका: कार्यपालिका, जिसमें राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री, मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद शामिल हैं, को कानून लागू करने और देश का प्रशासन करने का काम सौंपा गया है। यह शाखा विधायी निर्णयों और नीतियों का कार्यान्वयन सुनिश्चित करती है।
- न्यायपालिका: न्यायपालिका कानूनों की व्याख्या करती है, विवादों को सुलझाती है और नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करती है। इसमें सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालय शामिल हैं। न्यायपालिका संविधान के संरक्षक के रूप में कार्य करती है और यह सुनिश्चित करती है कि कानून संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप हों।
संविधान इन शाखाओं के बीच एक नाजुक संतुलन प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, न्यायपालिका के पास कार्यकारी और विधायी कार्यों पर न्यायिक समीक्षा की शक्ति है, और कार्यपालिका न्यायाधीशों की नियुक्ति में शामिल है। इसके अतिरिक्त, विधायिका कानून बना सकती है, लेकिन यदि वे संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करते हैं तो ये न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं।
भारत में इस सिद्धांत की हालिया चुनौतियाँ
हाल के घटनाक्रमों ने भारत में शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत के कमजोर होने पर सवाल उठाए हैं।
- जन विश्वास अधिनियम, 2022: यह अधिनियम दंड लगाने का अधिकार न्यायपालिका से नौकरशाही को हस्तांतरित करता है, जो एक चिंता का विषय है क्योंकि यह नौकरशाहों को अभियोजक और न्यायाधीश दोनों के रूप में कार्य करने में सक्षम बनाता है, जो संभावित रूप से शक्तियों के पृथक्करण सिद्धांत का उल्लंघन करता है।
- न्यायिक अतिरेक: न्यायिक अतिरेक के उदाहरण देखे गए हैं, जहां न्यायपालिका ने विधायी कार्यों को अपने हाथों में ले लिया। प्रमुख उदाहरणों में सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाने, फिल्मों को सेंसर करने, राजमार्गों के पास शराब की बिक्री को विनियमित करने, 2 जी मामले में दूरसंचार लाइसेंस रद्द करने और भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई) के कामकाज में हस्तक्षेप करने पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले शामिल हैं।
निष्कर्ष:
गौरतलब है कि भारत का संवैधानिक ढांचा शक्तियों के पृथक्करण की नींव रखता है, हाल के उदाहरण इन सीमाओं के संभावित धुंधले होने का संकेत देते हैं। जन विश्वास अधिनियम, 2022 और न्यायिक अतिरेक के विभिन्न मामले शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के समक्ष चुनौतियाँ प्रदर्शित करते हैं। सरकार की शाखाओं के बीच शक्ति संतुलन बनाए रखने के लिए निरंतर सतर्कता और पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता हैं। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका के बीच उभरती गतिशीलता भारत जैसे जीवंत और विविध लोकतंत्र में इस सिद्धांत को लागू करने की जटिलता को रेखांकित करती है।
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