प्रश्न की मुख्य माँग
- वाद-विवाद में बार-बार होने वाले व्यवधान से विधानमंडलों में विचार-विमर्श संबंधी कार्यकलापों के समक्ष आने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिए।
- भारतीय विधानमंडलों में वाद-विवाद संस्कृति को मजबूत करने के लिए सुझावात्मक उपाय प्रस्तुत कीजिए।
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उत्तर
संविधान के अनुच्छेद-107–111 तथा 196–200 विधानमंडलों को विधिनिर्माण का अधिकार देते हैं, जो प्रतिनिधिक लोकतंत्र का मूल आधार है। किहोतो होलोहन बनाम जाचिल्हु (1992) वाद में न्यायालय ने सार्वजनिक विमर्श में विधायिकाओं की भूमिका को मान्यता दी थी। फिर भी व्यवधान लगातार जारी हैं—18वीं लोकसभा ने केवल 29% समय कार्य किया और वर्ष 2024 में राज्य विधानसभाओं का औसत सत्र मात्र 20 दिन का रहा।
विचार-विमर्श प्रथाओं में चुनौतियाँ
- बार-बार व्यवधान और स्थगन: व्यवधान कार्यवाही को रोकते हैं, उत्पादक समय घटाते हैं और व्यापक बहस को अवरुद्ध कर देते हैं।
- उदाहरण के लिए: 18वीं लोकसभा के मानसून सत्र के दौरान, लोकसभा का केवल 29% और राज्यसभा का 34% समय ही उपयोग में आया, और दो-तिहाई समय व्यवधानों की भेंट चढ़ गया।
- बिना बहस के विधेयक पारित करना: जल्दबाजी में विधेयक पारित करना, विधायी परीक्षण को कमजोर करता है और प्रतिनिधियों की भागीदारी घटाता है।
- प्रश्नकाल की कार्यक्षमता में कमी: प्रश्नकाल की उपेक्षा से कार्यपालिका की जवाबदेही कम होती है और विधायी निगरानी कमजोर होती है।
- उदाहरण: 18वीं लोकसभा में, लोकसभा में केवल 8% और राज्यसभा में 5% तारांकित प्रश्नों (Starred Questions) के उत्तर दिए गए; कई दिनों तक तो किसी भी मौखिक प्रश्न का उत्तर नहीं दिया गया।
- संसदीय समितियों में पक्षपात: समितियाँ, जो कभी विचार-विमर्श का मंच हुआ करती थीं, अब पक्षपातपूर्ण हो गई हैं, जिससे रचनात्मक परिणाम कम हो रहे हैं।
- उदाहरण के लिए: PRS विधायी समीक्षा (2024) के अनुसार, बढ़ते ध्रुवीकरण से समिति की रिपोर्टों और कार्यप्रणाली पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
- कार्यपालिका में शक्ति का संकेंद्रण: प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों का प्रभुत्व विधायिकाओं की स्वतंत्रता और वाद-विवाद को सीमित करता है।
- उपाध्यक्षों के पदों का रिक्त होना: उप-सभापति का न होना संतुलित प्रतिनिधित्व और निष्पक्ष संचालन को बाधित करता है।
- उदाहरण के लिए: लोकसभा में जून 2019 से उप-सभापति नहीं है, जो अनुच्छेद-93 की भावना का उल्लंघन है, और आठ विधानसभाओं में भी यह पद रिक्त है।
वाद-विवाद संस्कृति को सशक्त करने के उपाय
- सदन में द्विदलीय नेतृत्व: विश्वास बहाली हेतु उपाध्यक्ष (Deputy Speaker) का पद विपक्ष को दिया जाए, ताकि सदन की कार्यवाही का संचालन निष्पक्षता और संतुलन के साथ हो सके।
- अनिवार्य न्यूनतम बैठक दिवस: संवैधानिक अथवा वैधानिक प्रावधानों द्वारा न्यूनतम बैठक दिवस निर्धारित किए जाने चाहिए, जिससे पर्याप्त वाद-विवाद और विचार-विमर्श का समय सुनिश्चित हो सके।
- उदाहरण के लिए: NCRWC ने सिफारिश की कि राज्य विधानसभाएँ आकार के अनुसार 50–90 दिन और राज्यसभा व लोकसभा क्रमशः कम से कम 100 व 120 दिन बैठक करें।
- प्रश्नकाल और शून्यकाल को सुदृढ़ करना: इससे कार्यपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित होती है और सुव्यवस्थित वाद-विवाद का अवसर मिलता है। उदाहरण: तारांकित प्रश्नों के न्यूनतम प्रतिशत के लिए मौखिक उत्तर देने को अनिवार्य करना चाहिए।
- संसदीय समितियों का पुनरोद्धार: समितियों को द्विदलीय बनाया जाना चाहिए तथा उनकी अनुशंसाओं पर औपचारिक प्रतिक्रिया अनिवार्य की जानी चाहिए, ताकि समितियों की भूमिका अधिक प्रभावी हो।
- आचार संहिता के माध्यम से व्यवधानों का नियमन: अव्यवस्थित व्यवहार के लिए क्रमिक दंड के साथ स्पष्ट नियम बार-बार स्थगन को हतोत्साहित करते हैं।
- उदाहरण के लिए: अनुच्छेद-118(1) के तहत सदनों को कार्यप्रणाली निर्धारित करने का अधिकार है; इसमें ऐसे दंडात्मक प्रावधान शामिल किए जा सकते हैं।
- विधान-पूर्व परामर्श को बढ़ावा देना: जनता और विशेषज्ञों से परामर्श लेने से मतभेद कम होते हैं और बहस अधिक सूचनात्मक व सारगर्भित बनती है।
- डिजिटलीकरण और पारदर्शिता उपाय: बहस में भागीदारी और विधायी प्रदर्शन की लाइव ट्रैकिंग से जवाबदेही बढ़ती है।
निष्कर्ष
सार्थक बहस लोकतंत्र का मूल है, परंतु बार-बार होने वाले व्यवधान इसे कमजोर कर देते हैं। बहस की संस्कृति को पुनर्जीवित करने हेतु व्यापक तंत्रगत सुधारों, सशक्त समितियों, प्रभावी प्रश्नकाल तथा सरकार और विपक्ष के बीच संवाद की आवश्यकता है। द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (2nd ARC) द्वारा प्रस्तुत विधायी उत्पादकता एवं जवाबदेही का रोडमैप इस दिशा में मार्गदर्शक सिद्ध हो सकता है।
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