प्रश्न की मुख्य माँग
- इस बात पर प्रकाश डालिये कि कैसे निश्चित विधायी कार्यकाल ,प्रशासनिक स्थिरता ला सकते हैं, परंतु वे संभावित रूप से संघीय स्वायत्तता और लोकतांत्रिक जवाबदेही को कमजोर भी कर सकते हैं।
- भारत के संघीय लोकतांत्रिक ढांचे पर एक साथ होने वाले चुनावों के सकारात्मक प्रभावों का विश्लेषण कीजिए।
- भारत के संघीय लोकतांत्रिक ढांचे पर एक साथ होने वाले चुनावों के नकारात्मक प्रभावों का विश्लेषण कीजिए।
- आगे की राह लिखिये।
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उत्तर
129 वें संशोधन विधेयक में शासन को सुव्यवस्थित करने, चुनावी लागत को कम करने और बार-बार होने वाले चुनावों के कारण होने वाले नीतिगत व्यवधानों को कम करने के लिए लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराने का प्रस्ताव है। हालाँकि यह दृष्टिकोण प्रशासनिक दक्षता और स्थिरता को बढ़ा सकता है, लेकिन यह संघीय स्वायत्तता, लोकतांत्रिक जवाबदेही और भारत की अनूठी राजनीतिक विविधता पर इसके संभावित प्रभाव के संबंध में गंभीर चिंताएँ भी उत्पन्न करता है।
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निश्चित विधायी कार्यकाल से प्रशासनिक स्थिरता आ सकती है
- चुनाव व्यवधानों में कमी: निश्चित कार्यकाल से बार-बार चुनाव होने की संभावना कम हो जाती है, जिससे निर्बाध शासन और नीति कार्यान्वयन में निरंतरता सुनिश्चित होती है।
- उदाहरण के लिए: सरकार बार-बार होने वाले चुनावों के कारण होने वाली रुकावटों के बिना दीर्घकालिक बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं पर ध्यान केंद्रित कर सकती है।
- सुव्यवस्थित संसाधन आवंटन: समकालिक चुनाव, बार-बार चुनाव कराने पर खर्च होने वाले प्रशासनिक और वित्तीय संसाधनों को कम करते हैं।
- उदाहरण के लिए: चुनाव आयोग बेहतर दक्षता के लिए एकल चुनावी प्रक्रिया पर ध्यान केंद्रित करते हुए अपने प्रयासों को समेकित कर सकता है।
- न्यूनतम राजनीतिक अनिश्चितता: निश्चित कार्यकाल सुनिश्चित करता है, कि सरकारें पूर्वानुमानित अवधि तक सत्ता में बनी रहें, जिससे स्थिर नीति निर्माण को बढ़ावा मिलता है।
- उदाहरण के लिए: कई वर्षों की आवश्यकता वाले आर्थिक सुधार, जैसे कि GST कार्यान्वयन , निर्बाध शासन से लाभान्वित होंगे।
- बेहतर शासन पर ध्यान: चुनाव की आवृत्ति कम होने से नेता वर्ग, चुनाव प्रचार के बजाय शासन प्रक्रिया पर अधिक ध्यान देंगे , जिससे विकास संबंधी एजेंडों पर निरंतर ध्यान केंद्रित होता है।
- उदाहरण के लिए: सरकार मध्यावधि चुनावों की चिंता किए बिना दीर्घकालिक सुधारों को लागू कर सकती है।
निश्चित कार्यकाल से संघीय स्वायत्तता और लोकतांत्रिक जवाबदेही को नुकसान पहुंच सकता है
- राज्य विधानमंडल की स्वायत्तता का ह्रास: राज्य विधानसभा चुनावों को लोकसभा चुनावों के साथ संरेखित करने से समय से पहले इनका विघटन हो सकता है, जिससे राज्य की स्वायत्तता पर असर पड़ सकता है।
- उदाहरण के लिए: लोकसभा चुनावों के साथ संरेखित होने के लिए अपने दूसरे वर्ष में भंग की गई राज्य विधानसभा अपना पूरा कार्यकाल खो सकती है, जिससे संघीय सिद्धांत कमजोर हो जाते हैं।
- केंद्रीय प्रभाव में वृद्धि: केंद्रीय संरेखण राज्यों पर केंद्र की शक्ति को बढ़ा सकता है, जिससे संघवाद का नियंत्रण और संतुलन सिद्धांत कमज़ोर हो सकता है।
- उदाहरण के लिए: एक साथ चुनाव आयोजित करने के दौरान, एक प्रमुख राष्ट्रीय पार्टी क्षेत्रीय दलों पर हावी हो सकती है , जिससे राजनीतिक बहुलता सीमित हो सकती है।
- जवाबदेही पर प्रभाव: बार-बार चुनाव होने से प्रतिनिधियों को मतदाताओं से जुड़ने के लिए बाध्य होना पड़ता है। निश्चित कार्यकाल से इस जुड़ाव पर असर पड़ सकता है।
- उदाहरण के लिए: यदि निर्वाचित प्रतिनिधियों को चुनावी चुनौतियों का सामना कम करना पड़ता है, तो वे स्थानीय शिकायतों का तुरंत समाधान करने से बच सकते हैं।
- संकट प्रबंधन में लचीलापन कम होना: राजनीतिक संकट के दौरान विधानमंडल को तुरंत भंग करने में असमर्थता से, शासन प्रक्रिया पर नकारात्मक असर पड़ सकता है।
- उदाहरण के लिए: दलबदल का सामना करने वाली सरकार को अगले चुनाव चक्र तक बने रहना पड़ सकता है, जिससे अस्थिरता बढ़ सकती है।
- क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व में समझौता : एक साथ चुनाव कराने से राष्ट्रीय आख्यानों पर ध्यान केंद्रित हो सकता है, जिससे क्षेत्रीय मुद्दे और माँगे दरकिनार हो सकती हैं।
- उदाहरण के लिए : एक साथ होने वाले चुनाव अभियान में, किसी विशिष्ट राज्य में किसानों के विरोध जैसे मुद्दों को आर्थिक विकास जैसे व्यापक राष्ट्रीय विषयों की तुलना में कम ध्यान मिल सकता है।
भारत के संघीय लोकतांत्रिक ढांचे पर एक साथ चुनाव के सकारात्मक प्रभाव
- लागत प्रभावी चुनाव: समकालिक चुनाव चुनाव आयोग, राजनीतिक दलों और करदाताओं द्वारा वहन की जाने वाली संचयी लागत को कम करते हैं।
- उदाहरण के लिए: वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में ₹60,000 करोड़ से अधिक की लागत आई । चुनावों को एक साथ कराने से ऐसे खर्चों में काफी कमी आ सकती है।
- चुनाव संबंधी थकान में कमी: बार-बार चुनाव होने से मतदाता, उम्मीदवार और प्रशासक तनाव में आ जाते हैं। एक साथ चुनाव कराने से चुनाव प्रक्रिया सरल हो जाती है।
- उदाहरण के लिए: महाराष्ट्र और हरियाणा जैसे राज्य लोकसभा के कार्यक्रम के साथ तालमेल बिठाकर अलग-अलग चुनाव कराने से बच सकते हैं।
- नीति कार्यान्वयन में एकरूपता: एकीकृत चुनावी कैलेंडर केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर एकरूपी शासन व्यवस्था को सक्षम बनाता है।
- उदाहरण के लिए: PM-KISAN जैसी कल्याणकारी योजनाओं को चुनावों के कारण होने वाले राज्य-स्तरीय व्यवधानों के बिना सुचारू रूप से लागू किया जा सकता है।
- चुनावी जागरूकता में वृद्धि: एक ही चुनाव चक्र से मतदाता मतदान और जागरूकता में सुधार हो सकता है, क्योंकि अभियान एक साथ राज्य और राष्ट्रीय दोनों मुद्दों को उजागर करेंगे।
- उदाहरण के लिए: वर्ष 2019 के चुनावों के दौरान ओडिशा में एक साथ हुए चुनावों में मतदाताओं ने BJD (राज्य) और BJP (केंद्र) के बीच अंतर किया ।
- चुनावी कदाचार में कमी: एकीकृत प्रक्रिया से छल-कपट की रणनीति की गुंजाइश कम हो जाती है, जो कि अलग-अलग चुनावों में पनपती है।
- उदाहरण के लिए: आदर्श आचार संहिता को राज्यों और केंद्र में समान रूप से लागू किया जा सकता है, जिससे इनके उल्लंघन के मामलों में कमी आएगी।
भारत के संघीय लोकतांत्रिक ढांचे पर एक साथ चुनाव कराने के नकारात्मक प्रभाव
- संघीय स्वायत्तता को कमज़ोर करता है: राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को संसद के साथ संरेखित करने से उनकी स्वतंत्रता से समझौता होता है, जिससे सत्ता का केंद्रीकरण होता है।
- उदाहरण के लिए: संरेखण के लिए राज्य विधानसभाओं का समय से पहले विघटन संघवाद को कमजोर करता है, जैसा कि राज्य विधानसभाओं पर 2024 के विधेयक के प्रभाव में देखा गया है ।
- स्थानीय प्रतिनिधित्व कमज़ोर होता है: बार-बार होने वाले स्थानीय चुनाव मतदाताओं के प्रति प्रतिनिधियों की प्रत्यक्ष जवाबदेही सुनिश्चित करते हैं, जिससे उत्तरदायी शासन को बढ़ावा मिलता है।
- उदाहरण के लिए: कर्नाटक (2019) में, विधानसभा चुनावों में राष्ट्रीय चुनावों में नजरअंदाज किए गए क्षेत्रीय मुद्दों को संबोधित किया गया, जिससे अलग-अलग समयसीमाओं के महत्त्व को समझा जा सकता है।
- राजनीतिक समरूपता का जोखिम: एक साथ मतदान के कारण मतदाता केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी का समर्थन कर सकते हैं, जिससे राजनीतिक विविधता को खतरा हो सकता है।
- उदाहरण के लिए: वर्ष 2019 के महाराष्ट्र चुनावों में राष्ट्रीय चुनावों से अलग होने पर मतदाताओं की पसंद में विविधता देखी गई।
- शासन में लचीलेपन को सीमित करता है: निश्चित समयसीमा, सरकारों की राजनीतिक संकटों को प्रभावी ढंग से हल करने के लिए विधानसभाओं को भंग करने की क्षमता को सीमित करती है।
- उदाहरण के लिए: वर्ष 2005 में बिहार विधानसभा के विघटन ने एक त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति का समाधान करने के लिए नए जनादेश की सुविधा प्रदान की, जिससे लोकतांत्रिक समाधान को बढ़ावा मिला।
- क्षेत्रीय प्राथमिकताओं की अनदेखी: राष्ट्रीय अभियान महत्त्वपूर्ण क्षेत्रीय मुद्दों को दबा सकते हैं, जिससे राज्य-विशिष्ट शासन पर ध्यान कम हो सकता है।
- उदाहरण के लिए: वर्ष 2014 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में स्थानीय शासन के मुद्दों को प्राथमिकता दी गई थी , जब ये चुनाव राष्ट्रीय चुनावों से अलग आयोजित किए गए थे।
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आगे की राह
- संस्थागत स्वायत्तता को मजबूत करना: संघीय सिद्धांतों को बनाए रखने के लिए विधायी कार्यकाल पर निर्णय लेने की शक्ति राज्यों के पास बनी रहे, यह सुनिश्चित करना होगा।
- उदाहरण के लिए: संविधान (1950) राज्य विधानसभाओं को स्वतंत्र कार्यकाल प्रदान करता है, जिससे संतुलित शासन और संघवाद के प्रति सम्मान सुनिश्चित होता है।
- रचनात्मक चुनावी सुधारों को बढ़ावा देना: व्यावहारिक समाधानों के माध्यम से आवधिक राज्य-स्तरीय जवाबदेही से समझौता किए बिना चुनावी खर्च को कम करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
- उदाहरण के लिए: ई-वोटिंग सिस्टम को लागू करने से लागत में कटौती हो सकती है जबकि क्रमिक चुनावों के लोकतांत्रिक लाभों को संरक्षित किया जा सकता है।
- स्थानीय शासन सशक्तीकरण को प्रोत्साहित करना: शासन को विकेंद्रीकृत करने और क्षेत्रीय मुद्दों को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए पंचायती राज संस्थाओं को मजबूत करना चाहिए।
- उदाहरण के लिए: केरल की सशक्त स्थानीय शासन प्रणाली, केवल राज्य या केंद्रीय हस्तक्षेप पर निर्भर हुए बिना, सुदृढ़ क्षेत्रीय विकास सुनिश्चित करती है।
- संदर्भ-विशिष्ट दृष्टिकोण अपनाना: सभी राज्यों में एक समान चुनाव चक्र लागू करने के बजाय क्षेत्रीय विविधता के आधार पर समाधान तैयार करने चाहिए।
- उदाहरण के लिए: पूर्वोत्तर राज्यों की अनूठी शासन चुनौतियों के कारण जातीय और क्षेत्रीय जटिलताओं के समाधान के लिए स्थानीय चुनावी समयसीमा की आवश्यकता है।
- चुनावी जवाबदेही को बढ़ाना: पारदर्शिता को बढ़ावा देने और खरीद-फरोख्त या दलबदल जैसी प्रथाओं पर अंकुश लगाने के लिए सरकारों के प्रदर्शन ऑडिट को अनिवार्य बनाना चाहिये।
- उदाहरण के लिए: कर्नाटक में 2019 में हुए दलबदल ने एक साथ चुनाव कराने से स्वतंत्र, कठोर दलबदल विरोधी कानून की आवश्यकता को उजागर किया।
एक साथ चुनाव कराने से प्रशासनिक दक्षता बढ़ सकती है और चुनाव संबंधी व्यवधान कम हो सकते हैं, लेकिन वे भारत के संघीय ढांचे के लिए महत्त्वपूर्ण जोखिम उत्पन्न करते हैं। एक निश्चित कार्यकाल सत्ता को केंद्रीकृत कर सकता है, राज्य की स्वायत्तता को कमजोर कर सकता है और लोकतांत्रिक जवाबदेही को कमजोर कर सकता है। भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली की अखंडता को बनाए रखने के लिए , संघवाद की रक्षा करना और यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि शासन प्रक्रिया में राज्य और राष्ट्रीय हित दोनों संतुलित हों।
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