प्रश्न की मुख्य माँग
- चर्चा कीजिए कि अनुच्छेद 356 के अंतर्गत राष्ट्रपति शासन लागू करना किस प्रकार संवैधानिक आवश्यकता के साधन से बदलकर राजनीतिक रूप से विवादास्पद प्रावधान बन गया है।
- न्यायिक मध्यक्षेपों और हालिया उदाहरणों के संदर्भ में केंद्र-राज्य संबंधों पर इसके प्रभाव का परीक्षण कीजिए।
- आगे की राह लिखिये।
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उत्तर
अनुच्छेद 356 राष्ट्रपति को संवैधानिक तंत्र के ध्वस्त होने पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने का अधिकार देता है। हालाँकि S.R. Bommai (1994) वाद के निर्णय ने इसके दुरुपयोग को प्रतिबंधित किया परंतु महाराष्ट्र (2019) और मणिपुर (2025) जैसे हालिया उदाहरण इसकी राजनीतिक विवादास्पदता को उजागर करते हैं। ये मामले केंद्र-राज्य संबंधों में चल रहे तनाव और न्यायिक निगरानी की भूमिका को रेखांकित करते हैं।
संवैधानिक आवश्यकता से राजनीतिक रूप से विवादास्पद प्रावधान तक का विकास
- संविधान के टूटने के खिलाफ सुरक्षा: मूल रूप से, अनुच्छेद 356 का उद्देश्य राज्यों में संवैधानिक विखंडन के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करना था, ताकि कानून और व्यवस्था की विफलता या राजनीतिक अस्थिरता के मामले में सुचारू शासन सुनिश्चित किया जा सके।
- उदाहरण के लिए: वर्ष 1951 में, कांग्रेस पार्टी के आंतरिक संघर्षों के कारण मुख्यमंत्री गोपी चंद भार्गव के इस्तीफा देने के बाद पहली बार पंजाब में राष्ट्रपति शासन लगाया गया था।
- राजनीतिक लाभ के लिए दुरुपयोग: समय के साथ, यह प्रावधान केंद्र के लिए विपक्षी दलों द्वारा नियंत्रित राज्य सरकारों को बर्खास्त करने का एक साधन बन गया जिससे संघीय सिद्धांतों को कमजोर किया गया।
- उदाहरण के लिए: वर्ष 1977 में, जनता पार्टी ने आम चुनाव जीतने के बाद जनादेश खोने का हवाला देते हुए कांग्रेस के नेतृत्व वाली नौ राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया था।
- न्यायिक निरीक्षण से पहले बार-बार इस्तेमाल: न्यायिक निगरानी से पहले, राष्ट्रपति शासन का अक्सर इस्तेमाल किया जाता था, वर्ष 1950 और वर्ष 1994 के बीच 100 बार, औसतन प्रति वर्ष 2.5 बार।
- उदाहरण के लिए: वर्ष 1980 में, इंदिरा गांधी ने नौ विपक्षी नेतृत्व वाली सरकारों को बर्खास्त कर दिया, जो वर्ष 1977 में कांग्रेस सरकारों के साथ हुआ था।
- बोम्मई निर्णय और न्यायिक जाँच: वर्ष 1994 के SR Bommai वाद में न्यायिक सीमाएँ लगाईं गई, जिससे अदालतों को राष्ट्रपति शासन लागू करने की समीक्षा करने की अनुमति मिली, जिससे मनमाने ढंग से सरकारों की बर्खास्तगी की घटना कम हुई।
- उदाहरण के लिए: उच्चतम न्यायलय ने वर्ष 1989 में कर्नाटक सरकार को बहाल कर दिया, यह निर्णय देते हुए कि बर्खास्तगी राजनीति से प्रेरित और असंवैधानिक थी।
- वर्ष 1994 के बाद इसका उपयोग कम हुआ: न्यायिक जाँच के बाद, इसका उपयोग कम हो गया, वर्ष 1994 से अब तक केवल 30 मामले ही हुए हैं, जबकि पहले 100 मामले थे, जिससे राज्यों पर केंद्र की अनियंत्रित शक्ति कम हो गई।
- उदाहरण के लिए: वर्ष 2016 में उच्चतम न्यायलय के हस्तक्षेप के बाद उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन हटा दिया गया जिससे कांग्रेस सरकार बहाल हो गई थी।
केंद्र-राज्य संबंधों पर प्रभाव
- संघीय स्वायत्तता को कमजोर करना: अनुच्छेद 356 का अत्यधिक उपयोग संघवाद को कमजोर करता है, जिससे केंद्र को राज्यों को नियंत्रित करने की अनुमति मिलती है, जिससे उनकी स्वायत्तता कम हो जाती है।
- उदाहरण के लिए: गुजरात (1974), कर्नाटक (1990) और मणिपुर (2025) में सत्तारूढ़ दल के बहुमत होने के बावजूद राष्ट्रपति शासन लगाया गया था।
- राजनीतिक तनाव और विश्वास की कमी: राष्ट्रपति शासन लागू करने से केंद्र और राज्यों के बीच तनाव उत्पन्न होता है जिससे राजनीतिक अविश्वास और दुरुपयोग के आरोप लगते हैं।
- उदाहरण के लिए: राष्ट्रपति शासन के तहत वर्ष 2019 के जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन की, राज्य के अधिकारों को प्रभावित करने वाले एकतरफा निर्णय के रूप में कड़ी आलोचना की गई थी।
- विधानसभाओं को भंग करने के बजाय उन्हें निलंबित अवस्था में रखना संवैधानिक चिंताओं को जन्म देता है: इससे राजनीतिक परिणामों में हेरफेर करने के केंद्र के इरादों के संबंध में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
- उदाहरण के लिए: मणिपुर की विधानसभा निलंबित अवस्था में है (2025), जबकि सत्तारूढ़ भाजपा के पास बहुमत है, जो केंद्र की मंशा पर सवाल उठाता है।
- विपक्ष के नेतृत्व वाले राज्यों में उपयोग: राष्ट्रपति शासन अक्सर विपक्ष के नेतृत्व वाले राज्यों में लगाया जाता है, जो वास्तविक शासन विफलता के बजाय राजनीतिक पूर्वाग्रह के पैटर्न को दर्शाता है।
- उदाहरण के लिए: उत्तराखंड (2016) में, केंद्र ने कांग्रेस सरकार को बर्खास्त कर दिया, लेकिन बाद में उच्चतम न्यायलय ने इस कदम को अनुचित बताते हुए इसे बहाल कर दिया।
आगे की राह
- सख्त न्यायिक निगरानी: न्यायपालिका को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि अनुच्छेद 356 का इस्तेमाल केवल चरम परिस्थितियों में ही किया जाए, ताकि राजनीतिक दुरुपयोग को रोका जा सके।
- उदाहरण के लिए: 2016 के उत्तराखंड वाद ने दर्शाया कि कैसे न्यायिक मध्यक्षेप, राज्य शासन में केंद्र के मनमाने हस्तक्षेप को रोक सकता है।
- लागू करने के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश: राष्ट्रपति शासन लागू करने के लिए स्पष्ट शर्तें होनी चाहिए ताकि केंद्र द्वारा इसके विवेकाधीन दुरुपयोग को कम किया जा सके।
- उदाहरण के लिए: सरकारिया आयोग (1988) ने केवल अंतिम उपाय के रूप में इसका उपयोग करने की सिफारिश की थी, लेकिन इसकी सिफारिशें आंशिक रूप से लागू की गई हैं।
- संसदीय अनुमोदन तंत्र: राष्ट्रपति शासन को मंजूरी देने से पहले मजबूत संसदीय निगरानी से इसके दुरुपयोग को रोका जा सकता है और आवश्यकता पड़ने पर चर्चा को प्रोत्साहित किया जा सकता है ।
- उदाहरण के लिए: पुंछी आयोग के अनुसार, ऐसा कोई भी आपातकाल तीन महीने से अधिक नहीं चलना चाहिए।
- राज्य संस्थाओं को सशक्त बनाना: राज्य संस्थाओं, शासन ढाँचे और सहकारी संघवाद को मजबूत करने से केंद्र को अनुच्छेद 356 को लागू करने की आवश्यकता कम हो सकती है।
- उदाहरण के लिए: यदि स्थानीय कानून प्रवर्तन और शासन मजबूत है, तो कानून-व्यवस्था की स्थिति (जैसा कि मणिपुर में है) को केंद्रीय हस्तक्षेप के बिना प्रबंधित किया जा सकता है।
- राष्ट्रपति शासन के विकल्प: राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के बजाय न्यायिक मध्यस्थता, केंद्रीय सलाहकार समितियाँ या आपातकालीन सहायता तंत्र जैसे विकल्पों पर विचार किया जाना चाहिए।
- उदाहरण के लिए: शासन संबंधी संकटों के दौरान सलाहकार पैनल (जैसा कि मणिपुर के लिए सुझाया गया है), लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में बाधा डालने बिना संघर्षों का समाधान करने में मदद कर सकते हैं।
न्यायिक निगरानी और सक्रिय संवैधानिक सुधारों के साथ संघवाद की तरफ आगे बढ़ने से अनुच्छेद 356 को केंद्र-राज्य तालमेल को मजबूत करने के तंत्र में बदला जा सकता है। पारदर्शी संवाद और जवाबदेही को प्राथमिकता देने से प्रत्यास्थ शासन विकसित होता है। स्मार्ट सुधार, मजबूत भविष्य के सिद्धांत का पालन करने से लोकतांत्रिक मूल्यों को सशक्त बनाया जा सकता है और भारत में समावेशी प्रगति और परिवर्तन को बढ़ावा दिया जा सकता है।
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