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Q. शोषण और भेदभाव पर न्यायमूर्ति के. हेमा समिति की रिपोर्ट के निष्कर्षों के आलोक में, फिल्म उद्योग के भीतर संरचनात्मक मुद्दों की रूपरेखा के बारे में बताइए और भारतीय सिनेमा में महिलाओं के लिए निष्पक्ष और सुरक्षित कार्य वातावरण सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक सुधारों पर चर्चा कीजिये। (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • शोषण और भेदभाव पर न्यायमूर्ति के. हेमा समिति की रिपोर्ट के निष्कर्षों पर प्रकाश डालिए। 
  • फिल्म उद्योग के संरचनात्मक मुद्दों की रूपरेखा प्रस्तुत कीजिए।
  • भारतीय सिनेमा में महिलाओं के लिए निष्पक्ष और सुरक्षित कार्य वातावरण सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक सुधारों के बारे में बताइए।

 

उत्तर:

मलयालम फिल्म उद्योग में महिला शोषण और भेदभाव की जाँच के लिए केरल सरकार द्वारा वर्ष 2017 में न्यायमूर्ति के. हेमा समिति का गठन किया गया था। अगस्त 2024 में जारी की गई रिपोर्ट में यौन उत्पीड़न, असमान वेतन और बुनियादी सुविधाओं की कमी सहित व्यापक दुर्व्यवहार पर प्रकाश डाला गया है, जिसमें सुरक्षित कार्य वातावरण सुनिश्चित करने के लिए महत्त्वपूर्ण सुधारों का आह्वान किया गया है।

शोषण और भेदभाव पर न्यायमूर्ति के. हेमा समिति की रिपोर्ट के निष्कर्ष

  • यौन उत्पीड़न: रिपोर्ट में मलयालम फिल्म उद्योग के भीतर व्यापक यौन उत्पीड़न पाया गया, जहाँ महिलाओं को अक्सर फिल्मो में एक्टिंग के लिए यौन संबंध बनाने की माँग का सामना करना पड़ता था।
    • उदाहरण के लिए: अभिनेत्रियों ने यौन संबंधों की माँग को अस्वीकार करने के लिए ब्लैकलिस्ट किए जाने की सूचना दी, जो भय और प्रतिशोध की संस्कृति का संकेत है।
  • असमान वेतन और अवसर: उद्योग में महिलाओं को नियमित रूप से समान कार्य के लिए अपने पुरुष समकक्षों की तुलना में कम भुगतान किया जाता था, जो लैंगिक पूर्वाग्रह को दर्शाता है।
    • उदाहरण के लिए: बॉक्स ऑफिस पर समान प्रदर्शन के बावजूद, प्रमुख पुरुष और महिला अभिनेताओं के वेतनमान में भारी असमानता है।
  • बुनियादी सुविधाओं की कमी: रिपोर्ट में महिलाओं के लिए बुनियादी सुविधाओं की कमी पर प्रकाश डाला गया, जैसे कि फिल्म सेट पर अलग शौचालय और रेस्ट रूम का आभाव, जो उनकी गरिमा और आराम से समझौता करते हैं।
    • उदाहरण के लिए: कई स्टूडियो में, महिला कलाकारों को पुरुष समकक्षों के साथ चेंजिंग रूम साझा करना पड़ता था, जिससे असुविधा और गोपनीयता संबंधी चिंताएँ उत्पन्न होती थीं।
  • शोषणकारी अनुबंधों का प्रचलन: कई महिलाएँ अनुचित अनुबंधों से बंधी हुई थीं जो उनकी व्यावसायिक स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करती थीं और उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों को स्वीकार करने के लिए मजबूर करती थीं।
    • उदाहरण के लिए: अनुबंधों में अक्सर ऐसे खंड शामिल होते हैं जो अभिनेत्रियों को उत्पीड़न के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने से रोकते हैं, जिससे पीड़ितों को चुप करा दिया जाता है।
  • निर्णय लेने वाली भूमिकाओं से बहिष्कार: महिलाओं को बड़े पैमाने पर उद्योग के भीतर नेतृत्व और निर्णय लेने की स्थिति से बाहर रखा गया, जिससे पुरुष प्रभुत्व कायम रहा है।
    • उदाहरण के लिए: महिला निर्देशकों और निर्माताओं की कमी फिल्म निर्माण में विविध दृष्टिकोणों को सीमित करती है, जिससे पुरुष-केंद्रित पटकथा को बल मिलता है।

फिल्म उद्योग के भीतर संरचनात्मक मुद्दे

  • पितृसत्तात्मक मानदंड: उद्योग पितृसत्तात्मक मानदंडों के तहत कार्य करता है जो महिलाओं को वंचित रखता है और पुरुष अधिकार को कायम रखता है, जिससे महिलाओं के लिए स्वयं को मुखर करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
    • उदाहरण के लिए: जो महिलाएँ शोषण के खिलाफ बोलती हैं उन्हें अक्सर प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ता है
  • नियामक निरीक्षण का अभाव: कार्यस्थल सुरक्षा और लैंगिक समानता कानूनों को लागू करने के लिए नियामक निरीक्षण का महत्त्वपूर्ण अभाव है, जिससे दुरुपयोग अनियंत्रित रूप से जारी रहता है।
    • उदाहरण के लिए: कार्यस्थल की स्थितियों पर नियमित ऑडिट के अभाव का अर्थ है कि श्रम कानूनों के उल्लंघन पर अक्सर ध्यान नहीं दिया जाता है।
  • अनौपचारिक कार्य संस्कृति: औपचारिक रोजगार अनुबंधों के बजाय अनौपचारिक समझौतों पर फिल्म उद्योग की निर्भरता महिला श्रमिकों की असुरक्षा में योगदान करती है।
    • उदाहरण के लिए: कई महिलाएँ आधिकारिक अनुबंध के बिना कार्य करती हैं, जिससे शोषण के खिलाफ कानूनी सुरक्षा का दावा करना मुश्किल हो जाता है।
  • यूनियनों में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व: फिल्म यूनियनों और गिल्ड, जो सुरक्षित कार्य वातावरण की सिफारिश कर सकते हैं, में अक्सर पर्याप्त महिला प्रतिनिधित्व का अभाव होता है।
    • उदाहरण के लिए: अधिकांश फिल्म यूनियनों में सदस्यों में महिलाओं का प्रतिशत कम होता हैं, जो नीति निर्माण में उनकी क्षमता को प्रभावित करती है।
  • सामान्यीकृत उत्पीड़न: उत्पीड़न और शोषण को इस हद तक सामान्यीकृत कर दिया गया है कि कई महिलाएँ इन व्यवहारों को व्यावसायिक खतरों के रूप में देखती हैं।
    • उदाहरण के लिए: महिलाओं से अनुचित व्यवहार को ‘समायोजित’ करने और ‘सहन’ करने की अपेक्षा व्यापक है, जो कई लोगों को दुर्व्यवहार की रिपोर्ट करने से हतोत्साहित करती है।

भारतीय सिनेमा में महिलाओं के लिए निष्पक्ष और सुरक्षित कार्य वातावरण सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक सुधारों का प्रस्ताव

  • स्वतंत्र निवारण निकाय की स्थापना: यौन उत्पीड़न और कार्यस्थल भेदभाव की शिकायतों को संभालने के लिए उद्योग के प्रभाव से मुक्त स्वतंत्र निकाय की स्थापना करना।
    • उदाहरण के लिए: निष्पक्षता और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए ऐसे निकायों में महिला अधिकार संगठनों के सदस्यों को शामिल किया जा सकता है।
  • अनिवार्य लैंगिक संवेदीकरण कार्यक्रम: अधिक सम्मानजनक कार्य संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए फिल्म उद्योग के सभी स्तरों पर नियमित लैंगिक संवेदीकरण और उत्पीड़न-विरोधी प्रशिक्षण लागू किये जाने चाहिए।
    • उदाहरण के लिए: उत्पीड़न के प्रति शून्य-सहिष्णुता दृष्टिकोण स्थापित करने के लिए निर्देशकों से लेकर सहायक कर्मचारियों तक सभी फिल्म क्रू सदस्यों के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम अनिवार्य होना चाहिए।
  • महिलाओं के लिए यूनियन प्रतिनिधित्व: निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में उनकी आवाज सुनी जाए यह सुनिश्चित करने के लिए फिल्म यूनियनों में अधिक महिला प्रतिनिधित्व को प्रोत्साहित करना।
  • नियुक्ति और वेतन में पारदर्शिता को बढ़ावा देना: लैंगिक आधारित असमानताओं को खत्म करने के लिए पारदर्शी नियुक्ति प्रथाओं और वेतन समानता के लिए दिशानिर्देश स्थापित करना।
    • उदाहरण के लिए: निष्पक्षता को बढ़ावा देने और भेदभावपूर्ण प्रथाओं को हतोत्साहित करने के लिए स्टूडियो को वेतनमान और चयन मानदंड प्रकाशित करने की आवश्यकता हो सकती है।
  • सुरक्षित कार्य वातावरण का निर्माण: महिलाओं के लिए सुरक्षित कार्य वातावरण सुनिश्चित करने के लिए सभी फिल्म सेटों पर अलग शौचालय और सुरक्षित चेंजिंग रूम जैसी बुनियादी सुविधाओं का प्रावधान करना।
    • उदाहरण के लिए: सरकारी नियमों के तहत सभी फिल्म स्टूडियो को ये सुविधाएँ प्रदान करने और अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए नियमित जाँच करने की आवश्यकता होती है।

 

न्यायमूर्ति के. हेमा समिति की रिपोर्ट फिल्म उद्योग में शोषण और भेदभाव के गहरे मुद्दों पर प्रकाश डालती है। इन चुनौतियों से निपटने के लिए व्यापक सुधारों, मजबूत कानूनी सुरक्षा और समावेशिता की ओर सांस्कृतिक बदलाव की आवश्यकता है। वर्ष 2047 तक, भारतीय सिनेमा को एक सुरक्षित और न्यायसंगत वातावरण बनाने का प्रयास करना चाहिए जो महिलाओं को सशक्त बनाए एवं सभी के लिए रचनात्मकता और विकास को बढ़ावा दे।

 

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