Q. हाल के वर्षों में, भारत में चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि देखी गई है। इस प्रवृत्ति में योगदान देने वाले कारकों का आकलन कीजिए। (10 अंक, 150 शब्द)

उत्तर:

दृष्टिकोण

  • भूमिका
    • भारत में बढ़ती चरम मौसमी घटनाओं के बारे में संक्षेप में लिखें।
  • मुख्य भाग
    • भारत में बढ़ती चरम मौसमी घटनाओं में योगदान देने वाले कारकों को लिखिए।
    • इस संबंध में आगे का उपयुक्त उपाय लिखें।
  • निष्कर्ष
    • इस संबंध में उचित निष्कर्ष दीजिए।

 

भूमिका       

हाल के वर्षों में, भारत चरम मौसमी घटनाओं में वृद्धि से जूझ रहा है जिसमें तीव्र गर्मी,  अभूतपूर्व वर्षा से लेकर बाढ़ तक की घटनायें शामिल है। ऐसी घटनाएं न केवल दैनिक जीवन को बाधित करती हैं बल्कि कृषि, अर्थव्यवस्था और जैव विविधता के लिए भी बड़ा खतरा पैदा करती हैं। उदाहरण – चरम मौसम संबंधी घटनाओं के कारण 1970 और 2021 के बीच भारत में 573 आपदाएँ हुईं, जिनमें 1,38,377 लोगों की जान चली गई।

मुख्य भाग

भारत में चरम मौसम की घटनाओं में वृद्धि में योगदान देने वाले कारक

  • ग्लोबल वार्मिंग: बढ़ते ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारण औसत वैश्विक तापमान में वृद्धि, भारत में हीटवेव की घटना को बढ़ा रही है और वर्षा के पैटर्न को बदल रही है। उदाहरण के लिए, भारत में गर्मियों के दौरान कुछ हिस्सों में तापमान 50°C तक पहुँच जाता था।
  • नोन्मूलन: उदाहरण के लिए, हिमालयी क्षेत्र में वन आवरण के ह्वास से भूस्खलन और अचानक बाढ़ का खतरा बढ़ गया है। इसी तरह, समुद्र तट के किनारे मैंग्रोव वनों के विनाश से चक्रवातों और तूफ़ान के खिलाफ प्राकृतिक सुरक्षा कम हो गई है।
  • महासागर-वायुमंडलीय घटनाएँ: अल नीनो जैसी घटनाओं में विसंगतियाँ, जो दुनिया भर में वर्षा वितरण को प्रभावित‌ करने‌ वाला प्रशांत महासागर का आवधिक ताप है।  उदाहरण के लिए: 2015-16 में,  अल नीनो घटना के कारण भारत को दशकों में सबसे भयानक सूखे का सामना करना पड़ा।
  • भूमि उपयोग परिवर्तन: खनन जैसी गतिविधियों के लिए भूमि उपयोग में परिवर्तन पर्यावरण के प्राकृतिक जलवायु विनियमन तंत्र को प्रभावित करता है। उदाहरण के लिए: झारखंड में कोयला खनन से भूमि क्षरण, जल प्रदूषण और जीएचजी में वृद्धि हुई है, जो स्थानीय और क्षेत्रीय जलवायु को प्रभावित कर सकती है।
  • पिघलते ग्लेशियर: बढ़ते तापमान के कारण, हिन्दुओं का  खतरनाक दर से निर्वतन हो रहा है जिससे जल सुरक्षा और लाखों लोगों की आजीविका खतरे में पड़ गई है। उदाहरण के लिए: 2013 में, उत्तराखंड में हिमानी झील में आई भीषण बाढ़ में हजारों लोग मारे गए।
  • आर्द्रभूमि क्षरण: आर्द्रभूमि का विनाश, जो बाढ़ के दौरान बफर के रूप में कार्य करता है, ने क्षेत्रों को अत्यधिक वर्षा की घटनाओं के प्रति अधिक संवेदनशील बना दिया है। उदाहरण: अतिक्रमण और आर्द्रभूमि को आवासीय और वाणिज्यिक क्षेत्रों में परिवर्तित करने के कारण चेन्नई को 2015 में गंभीर बाढ़ का सामना करना पड़ा ।
  • जैव विविधता ह्वास: यह चरम मौसम की घटनाओं के प्रति पारिस्थितिकी तंत्र के प्रतिरोध को कम कर सकता है, जिससे ऐसी घटनाओं से उबरना अधिक कठिन हो जाता है। उदाहरण के लिए: एक अध्ययन में पाया गया कि ब्लीचिंग और बीमारी के कारण मूंगा चट्टानों के ह्वास से लक्षद्वीप में तटीय सुरक्षा और मत्स्य उत्पादकता कम हो गई।

आगे का रास्ता

  • शमन रणनीतियाँ: भारत राष्ट्रीय सौर मिशन की सफलता से प्रेरणा ले सकता है, जिसने सौर ऊर्जा क्षमता के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किए हैं। उदाहरण के लिए: “उज्ज्वला योजना” स्वच्छ खाना पकाने के ईंधन की पहुंच बढ़ाने, प्रदूषण फैलाने वाले विकल्पों पर निर्भरता कम करने का एक मॉडल है।
  • जलवायु-प्रतिरोधी बुनियादी ढांचा: सूरत जलवायु अनुकूलन परियोजना से सीखते हुए , जिसने बाढ़ के खिलाफ शहर के बुनियादी ढांचे को मजबूत किया, अन्य सुभेद्य क्षेत्र भी इसी तरह के उपायों में निवेश कर सकते हैं।
  • प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियाँ: भारत के चक्रवात चेतावनी प्रभाग की सटीक भविष्यवाणियाँ और समय पर निकासी, जैसा कि 2013 में चक्रवात फेलिन के दौरान देखा गया था , प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों के महत्व का उदाहरण है। विभिन्न चरम मौसमी घटनाओं के लिए ऐसी क्षमताओं का विस्तार करना आवश्यक है।
  • सतत शहरी नियोजन: उदाहरण के लिए, अहमदाबाद का “साबरमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट” शहरी नियोजन के अंतर्गत हरित स्थानों के एकीकरण को प्रदर्शित करता है। यह परियोजना न केवल शहर को सुंदर बनाती है बल्कि बाढ़ और लू के खिलाफ प्रतिरोध को भी बढ़ाती है।
  • पुनर्वनीकरण: यूएनईपी द्वारा “बिलियन ट्री सुनामी” परियोजना की सफलता बड़े पैमाने पर पुनर्वनीकरण प्रयासों की क्षमता को दर्शाती है। भारत पारिस्थितिक संतुलन को बहाल करने के लिए देशी वृक्ष प्रजातियों पर ध्यान केंद्रित करते हुए इसी तरह की परियोजनाओं को लागू कर सकता है।
  • सतत कृषि पद्धतियाँ: सुभाष पालेकर द्वारा प्रस्तावित “शून्य बजट प्राकृतिक खेती” मॉडल, रसायन -मुक्त, जलवायु-प्रतिरोधी कृषि पद्धतियों पर जोर देता है। ऐसी प्रथाओं को व्यापक रूप से अपनाने से भारतीय कृषि में बदलाव आ सकता है।
  • आर्द्रभूमियों का संरक्षण: ओडिशा में चिल्का झील , जो अंतर्राष्ट्रीय महत्व की रामसर आर्द्रभूमि है, दर्शाती है कि कैसे आर्द्रभूमि संरक्षण सतत पर्यटन के साथ-साथ रह सकता है, जिससे जैव विविधता और स्थानीय अर्थव्यवस्था दोनों को लाभ होगा।
  • सामुदायिक जागरूकता: उत्तराखंड में “चिपको आंदोलन” , जहां ग्रामीणों ने वनों की कटाई से बचाने के लिए पेड़ों को गले लगा लिया, जमीनी स्तर पर पर्यावरण जागरूकता और सक्रियता का एक प्रतिष्ठित उदाहरण बना हुआ है।
  • जैव विविधता संरक्षण: अन्य राज्य केरल में पेरियार टाइगर रिजर्व की सफलता से सीख सकते हैं , जहां स्थानीय समुदाय संरक्षण प्रयासों और पर्यावरण-पर्यटन में भाग लेते हैं, जो समुदाय के नेतृत्व वाली जैव विविधता संरक्षण की क्षमता को उजागर करते हैं।

निष्कर्ष

आगे बढ़ते हुए, इन चरम मौसम की घटनाओं को समझकर और अपनाकर, भारत न केवल अपनी आबादी की रक्षा कर सकता है, बल्कि अपनी विविध और समृद्ध पर्यावरणीय विरासत के साथ सामंजस्यपूर्ण संबंध भी विकसित कर सकता है। यह यात्रा प्रतिरोधी और सतत विकास के मार्ग पर चलते हुए विकास और प्रकृति के सहक्रियात्मक सह-अस्तित्व का प्रमाण होगी।

 

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