उत्तर:
दृष्टिकोण:
- प्रस्तावना: प्राचीन भारतीय साहित्य पर बौद्ध और जैन साहित्य का प्रभाव संक्षेप में लिखकर उत्तर प्रारंभ कीजिए।
- मुख्य विषयवस्तु:
- बौद्ध एवं जैन साहित्य की विशिष्ट विशेषताओं के बारे में लिखिए।
- बौद्ध साहित्य में निहित दार्शनिक एवं नैतिक शिक्षाओं की चर्चा कीजिए।
- जैन साहित्य में निहित दार्शनिक एवं नैतिक शिक्षाओं का वर्णन कीजिए।
- निष्कर्ष: सकारात्मक टिप्पणी पर निष्कर्ष निकालें।
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प्रस्तावना:
प्राचीन काल में बौद्ध धर्म और जैन धर्म दोनों ने प्रमुख धार्मिक और दार्शनिक परंपराओं के रूप में ख्याति अर्जित की एवं भारतीय साहित्य के विभिन्न पहलुओं पर इनका गहरा प्रभाव पड़ा। उनका प्रभाव इस युग के दौरान निर्मित साहित्यिक कृतियों, जैसे जातक कथाएँ आदि में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है, विशेषकर विषयों, विचारधाराओं और साहित्यिक शैलियों के संदर्भ में।
मुख्य विषयवस्तु:
बौद्ध एवं जैन साहित्य की विशिष्ट विशेषताएँ:
- सदाचारपूर्ण और नैतिक मूल्यों पर जोर: बौद्ध और जैन साहित्य जातक कथाओं जैसी कहानियों के माध्यम से सदाचारपूर्ण और नैतिक मूल्यों पर प्रकाश डालते हैं। बौद्ध धर्म में निहित साहित्य करुणा, ईमानदारी और निस्वार्थता जैसे गुणों को बढ़ावा देते हैं, जबकि जैन ग्रंथ, जैसे जैन आगम, नैतिक आचरण, अहिंसा और सच्चाई पर जोर देते हैं।
- अहिंसा: बौद्ध और जैन साहित्य दोनों में अहिंसा पर बल दिया गया है। धम्मपद सभी प्राणियों के प्रति अहिंसा को प्रोत्साहित करता है, जबकि तत्वार्थ सूत्र जैसे जैन ग्रंथ बड़े पैमाने पर अहिंसा के सिद्धांत पर चर्चा करते हैं और दैनिक जीवन में इसे लागू करने की बात करते हैं।
- त्याग और तपस्या पर जोर: थेरागाथा और थेरीगाथा जैसे बौद्ध ग्रंथों में त्यागी भिक्षुओं और ननों के छंद शामिल हैं, जबकि जैन साहित्य, जैन सूत्र सहित, यह तपस्वी प्रथाओं और पाँच महान व्रतों के लिए दिशानिर्देश प्रदान करता है: अहिंसा, सत्य, अस्तेय(चोरी न करना), ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह।
- वैदिक कर्मकांड की अस्वीकृति: बौद्ध और जैन साहित्य प्राचीन भारत में प्रचलित वैदिक कर्मकांड के अधिकार को चुनौती देते हैं। कलामा सुत्त(Kalama Sutta) व्यक्तिगत अनुभव पर निर्भरता को बढ़ावा देते हुए अंध विश्वास पर सवाल उठाता है। जबकि नियमसार और अचरंगा सूत्र(Niyamasara and Acaranga Sutra) जैसे जैन ग्रंथ वैदिक अनुष्ठानों की आलोचना करते हैं, आत्म-अनुशासन और नैतिक जीवन के माध्यम से आध्यात्मिक मुक्ति की वकालत करते हैं।
- ध्यान और आत्म-साक्षात्कार पर जोर: सतीपत्थन सुत्त(Satipatthana Sutta) जैसे बौद्ध ग्रंथ सचेतन ध्यान और मुक्ति का मार्गदर्शन करते हैं, जबकि जैन साहित्य, जैसे भगवती सूत्र(Bhagavati Sutra), आत्मा शुद्धि और आत्म-साक्षात्कार के लिए तकनीकों की खोज करते हैं।
बौद्ध साहित्य में निहित दार्शनिक और नैतिक शिक्षाएँ:
बौद्ध साहित्य में पाली कैनन (त्रिपिटक), महायान सूत्र और प्रसिद्ध विद्वानों की टिप्पणियों सहित ग्रंथों की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है। यहां बौद्ध साहित्य में कुछ महत्वपूर्ण दार्शनिक और नैतिक शिक्षाएं दी गई हैं:
- चार आर्य सत्य: यह मौलिक शिक्षा दुख की प्रकृति (दुःख), उसके कारणों और उसकी समाप्ति के मार्ग को प्रकट करती है। यह इस बात पर जोर देता है कि दुख इच्छा और लगाव से उत्पन्न होता है, अतएव इसे दूर करने के लिए अष्टांगिक मार्ग का पालन करने की आवश्यकता है।
- अष्टांगिक मार्ग: दुख से मुक्ति के आठ उपायों को बुद्ध ने आष्टांगिक मार्ग कहा है। ये हैं- सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाणी, सम्यक कर्मात, सम्यक आजीविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि। यह नैतिक और सार्थक जीवन जीने और दुख से मुक्ति पाने के बारे में मार्गदर्शन प्रदान करता है।
- मध्यम मार्ग (मज्झिमा पतिपदा): बौद्ध धर्म एक उदारवादी दृष्टिकोण को बढ़ावा देता है जो सख्त तपस्या और भोग के बीच संतुलन बनाता है। मध्यम मार्ग ज्ञान और स्वतंत्रता को विकसित करने के लिए चरम सीमाओं से रहित एक मध्यम मार्ग चुनने को बढ़ावा देता है।
- नुकसान न पहुंचाना (अहिंसा): बौद्ध धर्म सभी जीवित प्राणियों को नुकसान न पहुंचाने या अहिंसा की वकालत करता है। यह नैतिक सिद्धांत व्यक्ति के कार्यों, वाणी और विचारों तक फैला हुआ है
- अनित्यता: बौद्ध धर्म सभी घटनाओं की अनित्य प्रकृति पर प्रकाश डालता है। यह सिखाता है कि क्षणिक चीज़ों के प्रति लगाव दुख की ओर ले जाता है और अभ्यासकर्ताओं को अनासक्ति और परिवर्तन को स्वीकार करने के लिए प्रोत्साहित करता है।
- आश्रित उत्पत्ति: यह शिक्षण अस्तित्व की अन्योन्याश्रित प्रकृति को स्पष्ट करता है। यह बताता है कि कैसे अज्ञानता, लालसा और कर्म सहित विभिन्न कारक जन्म, पीड़ा और पुनर्जन्म के चक्र का कारण बनते हैं। इस चक्र से मुक्त होने के लिए आश्रित उत्पत्ति को समझना महत्वपूर्ण है।
- स्वयं न होने की अवधारण(अनत्ता): बौद्ध धर्म शाश्वत और स्वतंत्र स्व की धारणा को चुनौती देता है। यह मानता है कि स्वयं सहित सभी घटनाएं अंतर्निहित अस्तित्व से रहित हैं। आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए इस सत्य को पहचानना आवश्यक है।
जैन साहित्य में निहित दार्शनिक और नैतिक शिक्षाएँ:
जैन साहित्य में आगम, टिप्पणियाँ और जैन दार्शनिक ग्रंथ जैसे ग्रंथ शामिल हैं। यहाँ जैन साहित्य में कुछ महत्वपूर्ण दार्शनिक और नैतिक शिक्षाएँ दी गई हैं:
- अहिंसा: जैन धर्म का मूल सिद्धांत अहिंसा है, सभी जीवित प्राणियों के प्रति अहिंसा का अभ्यास करने पर ज़ोर देता है। जैन समुदाय किसी भी जीवित प्राणी को जानबूझकर, शारीरिक या मानसिक रूप से नुकसान पहुँचाने से बचने का प्रयास करते हैं। यह सिद्धांत विचारों, वाणी और कार्यों तक फैला हुआ है।
- अनेकांतवाद: जैन धर्म का अनेकांतवाद कई दृष्टिकोणों और सत्य की सापेक्षता को स्वीकार करना, जटिल व बहुआयामी वास्तविकता को पहचानना सिखाता है, जिसमें व्यापक समझ के लिए विविध दृष्टिकोणों पर विचार करने की आवश्यकता होती है।
- वास्तविकताओं की बहुलता का सिद्धांत (स्याद्वाद): स्याद्वाद वास्तविकता की जटिलता पर प्रकाश डालता है। यह स्वीकार करता है कि विभिन्न दृष्टिकोण व परिस्थितियाँ वास्तविकता के अलग-अलग विवरणों को जन्म दे सकती हैं। सोचने का यह तरीका सहनशीलता, विनम्रता और खुले दिमाग को प्रोत्साहित करता है।
- कर्म सिद्धांत: जैन धर्म के कर्म के परिष्कृत सिद्धांत का दावा है कि कार्यों के परिणाम वर्तमान और भविष्य के जीवन को प्रभावित करते हैं, जो जैनियों को जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति पाने के लिए नैतिक जीवन, तप प्रथाओं और आध्यात्मिक अनुशासन के माध्यम से कर्म को शुद्ध करने के लिए प्रेरित करता है।
- वैराग्य और अनासक्ति: जैन साहित्य अक्सर वैराग्य और सांसारिक संपत्ति के प्रति अनासक्ति के मूल्य को बढ़ावा देता है। भौतिक इच्छाओं का त्याग करना और भौतिक धन के प्रति लगाव को कम करना आध्यात्मिक प्रगति के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है।
निष्कर्ष:
प्राचीन काल के दौरान भारतीय साहित्य पर बौद्ध एवं जैन धर्म का प्रभाव महत्वपूर्ण था, जिसने साहित्यिक कार्यों के सदाचारपूर्ण, नैतिक और दार्शनिक आयामों को आकार दिया। उनकी शिक्षाओं ने अस्तित्व संबंधी प्रश्नों, नैतिक दुविधाओं और आध्यात्मिक ज्ञान की खोज के लिए एक आधार प्रदान किया, जिसने प्राचीन भारत की साहित्यिक विरासत पर एक स्थायी छाप छोड़ी।
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