Q. "विश्व की फार्मेसी" के रूप में भारत की प्रतिष्ठित स्थिति को अमानक और नकली दवाओं के बढ़ते संकट से चुनौती मिल रही है। भारत के लिए इस संकट के बहुआयामी प्रभावों पर चर्चा कीजिए। भारत में निर्मित दवाओं की गुणवत्ता और अखंडता सुनिश्चित करने के लिए एक व्यापक, बहु-हितधारक रणनीति का सुझाव दीजिए। (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • भारत में घटिया और नकली (SF) दवाओं के नकारात्मक प्रभाव पर चर्चा कीजिए।
  • घटिया और नकली (SF) दवाओं के खतरे को रोकने में आने वाली चुनौतियाँ।
  • भारत में निर्मित औषधियों की गुणवत्ता और अखंडता सुनिश्चित करने के लिए एक व्यापक, बहु-हितधारक रणनीति का सुझाव दें।

उत्तर

भारत, जिसे “विश्व की फार्मेसी” कहा जाता है, वैश्विक वैक्सीन की लगभग 60% माँग पूरी करता है। इसके अतिरिक्त, यह अमेरिका को 40% और यूनाइटेड किंगडम को 25% जेनेरिक दवाएँ प्रदान करता है। वर्ष 2023 में भारत का फार्मा निर्यात 25 अरब डॉलर की राशि पार कर गया। इसके बावजूद, घटिया और नकली (SF) दवाओं के लगातार बढ़ते संकट ने भारतीय फार्मेसी क्षेत्र के वैश्विक विश्वास को गंभीर चुनौती दी है और भारत की फार्मास्यूटिकल उद्योग की प्रतिष्ठा पर सवाल खड़े कर दिए हैं।

भारत में घटिया और नकली (SF) दवाओं का नकारात्मक प्रभाव

  • सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट: नकली या घटिया दवाएँ प्रत्यक्ष रूप से स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान पहुँचाती हैं। ये दवाएँ अपेक्षित परिणाम नहीं देतीं, जिससे रोगियों का उपचार सही से नहीं हो पाता है और कभी-कभी ये मौत का कारण भी बनती हैं।
    • उदाहरण: गाम्बिया, उज्बेकिस्तान और कैमरून में दूषित कफ सिरप के कारण कई बच्चों की मौतें हुई हैं, जो यह दर्शाता है कि घटिया दवाओं का असर न केवल व्यक्तिगत स्तर पर बल्कि सार्वजनिक स्वास्थ्य पर भी व्यापक होता है।
  • स्वास्थ्य सेवा में विश्वास का ह्वास: जब मरीज नकली या घटिया दवाओं के कारण निराश होते हैं, तो वे डॉक्टरों, फार्मेसी और पूरे स्वास्थ्य तंत्र पर अपना विश्वास खो बैठते हैं। यह विश्वास पुनःस्थापित करना अत्यंत कठिन होता है, क्योंकि स्वास्थ्य सेवा की गुणवत्ता और सुरक्षा के प्रति आम जनमानस के मन में शंका उत्पन्न हो जाती है।
    • उदाहरण: WHO का अनुमान है कि निम्न और मध्यम आय वाले देशों में प्रत्येक 10 में से 1 चिकित्सा उत्पाद नकली होता है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह समस्या वैश्विक स्तर पर गंभीर है।
  • रोगाणुरोधी प्रतिरोध (AMR) में वृद्धि: जब दवाएँ अप्रभावी या नकली होती हैं, तो यह जीवाणु और वायरस में दवा प्रतिरोध को तेज करती हैं। इसके कारण सामान्य संक्रमणों का उपचार कठिन हो जाता है और संक्रमणों को नियंत्रित करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
    • उदाहरण: प्रभावहीन एंटीबायोटिक्स वैश्विक AMR संकट को और गंभीर बनाते हैं और इससे सामान्य चिकित्सा प्रक्रियाओं की सफलता दर कम हो जाती है।
  • राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजनाओं को कमजोर करना: नकली दवाओं के कारण आयुष्मान भारत, जन औषधि जैसी पहलों का वास्तविक लाभ कमजोर हो जाता है। इन योजनाओं का उद्देश्य गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों को वहनीय और सुरक्षित दवाएँ उपलब्ध कराना है, लेकिन नकली दवाओं के कारण इस उद्देश्य को गंभीर नुकसान पहुँचता है।
    • उदाहरण: यह 5 करोड़ से अधिक भारतीयों के लिए सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल लक्ष्यों को खतरे में डालता है और देश की स्वास्थ्य सुरक्षा योजनाओं की प्रभावशीलता को कमजोर करता है।
  • वैश्विक विश्वसनीयता ख़तरे में: नकली और घटिया दवाओं के कारण भारत की “विश्व की फार्मेसी” के रूप में प्रतिष्ठा पर गहरा असर पड़ता है। इसके अतिरिक्त, वार्षिक 25 अरब डॉलर से अधिक के फार्मा निर्यात को गंभीर खतरा होता है। स्थाई सुरक्षा और गुणवत्ता संबंधी समस्याओं ने वैश्विक बाजार में भारतीय दवाओं के प्रति विश्वास को कमजोर कर दिया है।

SF दवाओं के प्रसार को कम करने में चुनौतियाँ

  • कमजोर प्रवर्तन एवं निगरानी: नियामक दिशानिर्देश मौजूद हैं, लेकिन सभी राज्यों में समान रूप से लागू नहीं किए जाते। इस असमानता के कारण नकली दवाओं की पहचान करने और उन्हें रोकने की प्रक्रिया प्रभावित होती है।
  • आपूर्ति श्रृंखला की पारदर्शिता में कमी: रियल टाइम में ट्रैकिंग की कमी के कारण नकली दवाएँ, प्रमाणित फार्मेसियों में प्रवेश कर जाती हैं।
    • उदाहरण के लिए: खराब ट्रेसेबिलिटी तंत्र के कारण शहरी फार्मेसियों को भी जोखिम का सामना करना पड़ता है।
  • सीमित जन जागरूकता: आम उपभोक्ता अक्सर यह नहीं जानते कि QR कोड और अन्य सत्यापन उपकरणों के माध्यम से दवाओं की वैधता की जाँच की जा सकती है। 
    • उदाहरण के लिए: ग्रामीण भारत में गैर-लाइसेंस प्राप्त फार्मेसियों और नकली दवाओं का खतरा सबसे अधिक है।
  •  संस्थागत क्षमता में खामियां: केंद्र और राज्य औषधि प्राधिकरणों के बीच खराब समन्वय के कारण प्रभावी कार्रवाई में विलम्ब होती है। 
    • उदाहरण के लिए: CRISIL के अध्ययन के अनुसार भारत की लगभग 20% दवाएँ नकली या घटिया हो सकती हैं।
  • लाभउन्मुख आपराधिक नेटवर्क: नकली दवाओं का व्यापार अत्यधिक लाभकारी है और इसे पूरी तरह से समाप्त करना चुनौतीपूर्ण है। 
    • उदाहरण के लिए: इस अवैध बाजार का आकार 20,000 करोड़ रुपये से अधिक है और जुर्मानों को अक्सर मामूली तकनीकी संबंधित उल्लंघन के रूप में देखा जाता है।

व्यापक बहु-हितधारक रणनीति

  • विनियामक सुदृढ़ीकरण: घटिया और नकली दवाओं को केवल तकनीकी उल्लंघन के रूप में नहीं, बल्कि मानव जीवन के लिए गंभीर अपराध मानकर कड़ी सजा सुनिश्चित करनी चाहिए।
    • उदाहरण: केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा QR कोड और लैब अपग्रेड जैसी पहल प्रारंभिक कदम हैं।
  • उद्योग की जिम्मेदारी: फार्मा कंपनियों को टैम्पर-प्रूफ पैकेजिंग, सीरियलाइजेशन और आपूर्ति श्रृंखला की निगरानी सुनिश्चित करनी चाहिए ताकि नकली दवाओं की संभावना न्यूनतम हो।
  • जन जागरूकता और उपकरणों तक पहुंच: राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक अभियान चलाकर जनता को QR कोड और ट्रैक-एंड-ट्रेस सिस्टम के माध्यम से दवाओं की जाँच करने के तरीकों के बारे में शिक्षित किया जाना चाहिए।
  • अंतर-एजेंसी सहयोग: राज्य दवा नियंत्रक, स्वास्थ्य मंत्रालय और कानून प्रवर्तन एजेंसियों के बीच मजबूत समन्वय सुनिश्चित किया जाना चाहिए ताकि सभी राज्यों में समान रूप से नियमों का पालन हो।
    • उदाहरण के लिए: विभिन्न राज्यों में अवैध दवाओं के खेपों की जब्ती यह दर्शाती है कि समन्वित प्रयास कितने महत्वपूर्ण हैं।
  • खुदरा विक्रेता एवं फार्मासिस्ट सतर्कता: फार्मेसियाँ और फार्मासिस्ट को अपनी जिम्मेदारी पूर्ण निष्ठा से निभानी चाहिए, आपूर्तिकर्ताओं की जाँच करनी चाहिए और अवैध स्टॉक को अस्वीकार करना चाहिए।
    • उदाहरण: यदि सतर्कता और निगरानी कड़ाई से लागू की जाए, तो फार्मेसियाँ नकली दवाओं को मरीजों तक पहुँचने से रोक सकती हैं।

निष्कर्ष

नकली और घटिया दवाएँ जीवन के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न करती हैं,  स्वास्थ्य तंत्र में जन विश्वास को कमजोर करती हैं, और भारत के फार्मास्यूटिकल नेतृत्व को जोखिम में डालती हैं। एक विश्वसनीय वैश्विक स्वास्थ्य साझेदार के रूप में अपनी प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रत्येक “मेड इन इंडिया” दवा उच्चतम गुणवत्ता की हो। इसका अर्थ है कि प्रत्येक दवा न केवल सुरक्षित हो, बल्कि प्रभावी हो और पूरी तरह से भरोसेमंद हो। इसके लिए नियामक सख्ती, उद्योग की जिम्मेदारी, फार्मासिस्ट और रिटेलर की सतर्कता, तथा जनता की जागरूकता सभी को एक साथ एकीकृत करते हुए कार्य करना आवश्यक है। केवल इसी समन्वित दृष्टिकोण से भारत अपनी वैश्विक फार्मास्यूटिकल प्रतिष्ठा को बनाए रख सकता है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने निर्यात व स्वास्थ्य साझेदारी को सुरक्षित कर सकता है।

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