प्रश्न की मुख्य माँग
- प्रस्तावित परिसीमन प्रक्रिया भारत के संघीय ढाँचे के लिए किस प्रकार खतरा उत्पन्न करती है, इसका परीक्षण कीजिए।
- प्रस्तावित परिसीमन प्रक्रिया से भारत की राजकोषीय समानता को किस प्रकार खतरा है, इसका परीक्षण कीजिए।
- भारत की विविधतापूर्ण राजनीति में लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व और क्षेत्रीय आकांक्षाओं के बीच संतुलन स्थापित करने के संभावित समाधानों पर चर्चा कीजिए।
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उत्तर
भारत में परिसीमन प्रक्रिया, जिसकी देखरेख राष्ट्रपति द्वारा चुनाव आयोग के परामर्श से नियुक्त परिसीमन आयोग द्वारा की जाती है, का उद्देश्य जनसंख्या परिवर्तन के आधार पर लोकसभा और विधानसभा सीटों को फिर से संगठित करना है, जिससे प्रतिनिधिमूलक शासन सुनिश्चित हो सके। हालाँकि, यह प्रक्रिया कुछ लोगों के लिए संभावित वंचन के संबंध में चिंताएँ उत्पन्न करती है, जिससे राष्ट्र के संघीय ढाँचे पर प्रभाव पड़ सकता है।
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प्रस्तावित परिसीमन से भारत के संघीय ढाँचे को खतरा
- दक्षिणी राज्यों का कम प्रतिनिधित्व: नियंत्रित जनसंख्या वृद्धि वाले दक्षिणी राज्यों के कम प्रतिनिधित्व के कारण संघ के निर्णयों में उनका प्रभाव कम हो सकता है।
- उदाहरण के लिए: तमिलनाडु का प्रतिनिधित्व कम हो सकता है, जिससे उच्च GDP योगदान के बावजूद राष्ट्रीय मुद्दों में इसके हितों की अनदेखी का मुद्दा सामने आ सकता है।
- राजनीतिक शक्ति में असमानता: परिसीमन से सत्ता का झुकाव उच्च विकास वाले राज्यों की ओर हो सकता है, जिससे उच्च कुल प्रजनन दर (TFR) वाले उत्तरी राज्यों को संघीय मामलों में अधिक नियंत्रण मिल सकता है।
- उदाहरण के लिए: बिहार और उत्तरप्रदेश को अतिरिक्त सीटें मिल सकती हैं, जिससे सभी राज्यों को प्रभावित करने वाली केंद्रीय नीतियों पर उनका प्रभाव बढ़ सकता है।
- राजकोषीय असंतुलन: अधिक जनसंख्या वाले राज्यों का प्रतिनिधित्व बढ़ाने से उन क्षेत्रों के पक्ष में संसाधनों का पुनर्वितरण हो सकता है, जिससे समान विकास प्रभावित हो सकता है।
- उदाहरण के लिए: उत्तर प्रदेश को अधिक अतिरिक्त सीटें मिलने से उसे अधिक केंद्रीय निधि प्राप्त हो सकती है, जबकि केरल जैसे कम प्रतिनिधित्व वाले राज्यों को कम संसाधन मिल सकते हैं।
- विषम विकास: अधिक जनसंख्या वाले राज्यों के अधिक प्रतिनिधित्व और संसाधनों तक उनकी अधिक पहुँच, असमान विकास को जन्म दे सकती है, जिससे कम प्रतिनिधित्व वाले क्षेत्र अलग-थलग पड़ सकते हैं।
- उदाहरण के लिए: ऐतिहासिक रूप से कम प्रतिनिधित्व के कारण पूर्वोत्तर राज्यों का विकास अच्छे से नहीं हो पाया। परिसीमन के बाद उनकी स्थिति और भी खराब हो सकती है।
- क्षेत्रीय तनाव में वृद्धि: सीटों और संसाधनों में कमी के कारण छोटे राज्यों में अलगाववादी भावनाएँ बढ़ सकती हैं, जिससे राष्ट्रीय एकता को खतरा हो सकता है।
- उदाहरण के लिए: सिक्किम जैसे छोटे राज्यों के अलग-थलग महसूस करने का जोखिम बढ़ सकता है यदि उन्हें लगता है कि उनकी चिंताओं का समाधान नहीं किया जा रहा है, जिससे संघ की संप्रभुता और अखंडता को खतरा उत्पन्न हो सकता है।
- भाषा और सांस्कृतिक असंतुलन: हिंदी भाषी राज्यों में प्रतिनिधित्व बढ़ने से गैर-हिंदी भाषी क्षेत्र हाशिए पर जा सकते हैं, जिससे सांस्कृतिक समानता को लेकर चिंताएँ बढ़ सकती हैं।
- उदाहरण के लिए: कर्नाटक और आंध्र प्रदेश का संघीय स्तर पर कम प्रभाव हो सकता है, जिससे सांस्कृतिक पहचान की सुरक्षा की माँग बढ़ सकती है।
- सत्ता का केंद्रीकरण: अधिक जनसंख्या वाले राज्यों के लिए उच्च प्रतिनिधित्व, चुनिंदा क्षेत्रों में सत्ता को केंद्रीकृत कर सकता है, जिससे राज्य की स्वायत्तता कम हो सकती है और सहकारी संघवाद का सिद्धांत कमजोर हो सकता है।
- उदाहरण के लिए: दक्षिणी राज्य, केंद्रीय नीतियों को उत्तरी हितों से अत्यधिक प्रभावित होता हुआ मान सकते हैं।
प्रस्तावित परिसीमन से भारत की राजकोषीय इक्विटी को खतरा
- असमान राजकोषीय हस्तांतरण: कम जनसंख्या वृद्धि लेकिन उच्च कर योगदान वाले राज्यों का प्रतिनिधित्व कम हो सकता है, जिससे राजकोषीय असमानताओं का जोखिम उत्पन्न हो सकता है ।
- उदाहरण के लिए: यदि सीट आवंटन कम उत्पादक क्षेत्रों के पक्ष में होता है, तो महाराष्ट्र को कम केंद्रीय निधि प्राप्त होगी।
- संसाधन वितरण में असंतुलन: उच्च-TFR वाले राज्यों का अधिक प्रतिनिधित्व असमान संसाधन आवंटन की स्थिति उत्पन्न कर सकता है, जिससे विकसित राज्यों की केंद्रीय निधियों तक पहुँच प्रभावित हो सकती है।
- उदाहरण के लिए: UP को अधिक केंद्रीय निधि मिल सकती है, जबकि कर्नाटक जैसे राज्यों को बाधाओं का सामना करना पड़ सकता है।
- राष्ट्रीय राजस्व सृजन पर प्रभाव: आर्थिक रूप से उन्नत राज्यों का कम प्रतिनिधित्व, राजस्व-केंद्रित नीतियों की प्राथमिकता को कम कर सकता है, जिससे राजकोषीय स्थिरता प्रभावित हो सकती है ।
- उदाहरण के लिए: औद्योगिक नीति पर तमिलनाडु का इनपुट कम हो सकता है, जिससे राष्ट्रीय राजस्व पहल प्रभावित हो सकती है।
- केंद्र प्रायोजित योजनाओं पर प्रभाव: उच्च-TFR वाले राज्यों के पक्ष में पुनर्वितरण से, उन राज्यों के लिए केंद्र प्रायोजित योजना आवंटन में वृद्धि हो सकती है। ऐसा कम TFR वाले राज्यों की कीमत पर होगा।
- उदाहरण के लिए: बिहार जैसे उच्च-जनसंख्या वाले राज्यों को अधिक योजना निधि मिल सकती है, जबकि नियंत्रित जनसंख्या और महत्त्वपूर्ण योगदान वाले राज्यों जैसे तमिलनाडु को प्राप्त होने वाली कार्यक्रम निधि में कमी देखने को मिल सकती है।
- जनसंख्या नियंत्रण के लिए प्रोत्साहन में कमी: जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने के लिए राज्यों को दिये जाने वाले प्रोत्साहन में कमी आ सकती है।
- उदाहरण के लिए: केरल जैसे प्रभावी परिवार नियोजन वाले राज्यों को मिलने वाला वित्तीय लाभ कम हो सकता है। इसके परिणामस्वरूप संभवतः अन्य राज्य इस तरह के प्रयासों को अपने से हतोत्साहित हो सकते हैं।
- क्षेत्रीय आय असमानताओं में वृद्धि: असंतुलन के कारण क्षेत्रों के बीच आय असमानता बढ़ सकती है, जिससे प्रवासन प्रवाह संभवतः आर्थिक रूप से सीमित क्षेत्रों से अधिक विकसित राज्यों की ओर बढ़ सकता है।
क्षेत्रीय आकांक्षाओं के साथ प्रतिनिधित्व को संतुलित करने के संभावित समाधान
- प्रति राज्य लोकसभा सीटों की सीमा: प्रति राज्य सीटों की सीमा तय करने से संतुलित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सकता है और अधिक आबादी वाले राज्यों के असंगत प्रभाव को रोका जा सकता है।
- उदाहरण के लिए: अमेरिकी हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव में सीटों की सीमा 435 तय की गई है (1913 से), जिससे सीटों की कुल संख्या में वृद्धि किए बिना, संतुलित राज्य प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो गया।
- पुनर्वितरण के बिना सीटें बढ़ाना: आनुपातिक रूप से सीटें बढ़ाने से जनसंख्या-नियंत्रित राज्यों को दंडित किए बिना लोकतांत्रिक विस्तार की अनुमति मिलती है।
- उदाहरण के लिए: जर्मन बुंडेस्टैग एक मिश्रित-सदस्य दृष्टिकोण का उपयोग करता है जिसके अंतर्गत विशेष क्षेत्रों को नुकसान पहुँचाए बिना आनुपातिकता बनाए रखने के लिए आवश्यकतानुसार सीटों की संख्या को बढ़ाया जा सकता है।
- राज्यसभा में राज्यों का प्रतिनिधित्व मजबूत करना: राज्यसभा की भूमिका बढ़ाने से क्षेत्रीय हितों को बढ़ावा मिलता है, क्योंकि यह आबादी के बजाय राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है।
- उदाहरण के लिए: राज्यसभा का प्रभाव बढ़ाने से यूरोपीय संघ की अधोगामी आनुपातिकता को प्रतिबिंबित किया जा सकता है, जहाँ कम आबादी के बावजूद छोटे सदस्य राज्यों का महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधित्व बना रहता है।
- जनसंख्या नियंत्रण वाले राज्यों के लिए अतिरिक्त निधि: अतिरिक्त अनुदान प्रदान करने से जनसंख्या नियंत्रण प्रयासों को प्रोत्साहन मिलता है, जिससे केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में वित्तीय निष्पक्षता सुनिश्चित होती है।
- उदाहरण के लिए: केरल और तमिलनाडु को कम प्रतिनिधित्व के बावजूद लक्षित विकास निधि मिल सकती है।
- परिसीमन पर रोक को आगे बढ़ाना: परिसीमन पर एक और रोक, प्रतिनिधित्व में अचानक बदलाव के बिना स्थिरता और नीति अनुकूलन की सुविधा प्रदान करती है।
- उदाहरण के लिए: परिसीमन पर रोक को आगे बढ़ाने से जनसंख्या में होने वाले बदलावों के लिए क्रमिक समायोजन संभव हो पायेगा, जिससे संघीय सद्भाव बना रहेगा।
- सांस्कृतिक विविधता को बढ़ावा देना: क्षेत्रीय आकांक्षाओं को संबोधित करने में संघीय ढाँचे के भीतर क्षेत्रीय भाषाओं, परंपराओं और प्रथाओं का सम्मान करने वाली नीतियों को बढ़ावा देकर सांस्कृतिक विशिष्टता को मान्यता देना शामिल है।
- उदाहरण के लिए: यूरोपीय संघ में सदस्य-राज्य विविधता को बढ़ावा देने वाली सांस्कृतिक नीतियों के समान, विशेष विधायी उपाय या विकास अनुदान, मजबूत क्षेत्रीय पहचान वाले राज्यों के सांस्कृतिक संरक्षण में सहायता कर सकते हैं।
- अंतर-राज्यीय परिषद जैसे संस्थानों को मजबूत करना: अंतर-राज्यीय परिषद जैसे सशक्त मंच क्षेत्रीय मुद्दों पर सहयोग को बढ़ावा देते हैं, क्षेत्रीय तनाव को कम करते हैं और सहकारी संघवाद के माध्यम से शिकायतों का समाधान करते हैं।
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परिसीमन की प्रक्रिया भारत के संघीय ढाँचे और राजकोषीय समानता के लिए महत्त्वपूर्ण चुनौतियाँ लेकर आई है, जिससे ऐसे समाधानों की आवश्यकता उत्पन्न हुई है जो प्रतिनिधित्व और क्षेत्रीय आकांक्षाओं के बीच संतुलन बनाए रखें । वर्ष 1971 की जनगणना के आधार पर लगी परिसीमन पर रोक को आगे बढ़ाने, राज्यसभा की भूमिका का विस्तार करने जैसी रणनीतियों का उपयोग करके, भारत लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व और संघीय सद्भाव की रक्षा कर सकता है और अपनी संघीय प्रणाली के लिए आधारभूत एकता और विविधता को बनाए रख सकता है।
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