प्रश्न की मुख्य माँग
- भारतीय हस्तशिल्प और कुटीर उद्योगों के पतन में इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति की भूमिका।
- भारतीय हस्तशिल्प और कुटीर उद्योगों के पतन में अन्य योगदानकारी कारक।
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उत्तर
18वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इंग्लैंड में आरंभ हुई औद्योगिक क्रांति (Industrial Revolution) ने यांत्रिक उत्पादन और कारखाना प्रणाली की शुरुआत की। इससे वैश्विक व्यापार और विनिर्माण के स्वरूप में गहरा परिवर्तन आया, जिसके परिणामस्वरूप विश्व के पारंपरिक उद्योगों पर व्यापक प्रभाव पड़ा। भारत के हस्तशिल्प और कुटीर उद्योगों पर इस क्रांति के प्रभाव का अध्ययन आर्थिक परिवर्तनों तथा औपनिवेशिक नीतियों के जटिल अंतर्संबंध को उजागर करता है।
इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति की भूमिका — भारतीय हस्तशिल्प और कुटीर उद्योगों के पतन में
- मशीन-निर्मित वस्तुओं में वृद्धि
ब्रिटिश कारखानों में सस्ते दामों पर उत्पादित वस्त्र औपनिवेशिक व्यापारिक विशेषाधिकारों के माध्यम से भारतीय बाजारों में भर दिए गए।
- उदाहरण: 19वीं शताब्दी के मध्य तक लंकाशायर का सूती वस्त्र भारत के उत्कृष्ट मलमल और छींट को प्रतिस्थापित कर चुका था।
- भारतीय निर्यात बाजारों का विनाश: इंग्लैंड में यंत्रीकृत उत्पादन से भारतीय हस्तनिर्मित वस्त्र वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर पाए।
- उदाहरण: 19वीं शताब्दी के प्रारंभ तक यूरोप को भारत के वस्त्र निर्यात में तीव्र गिरावट आई।
- औपनिवेशिक नीतियों के माध्यम से औद्योगीकरण का ह्रास: ब्रिटिश नीतियाँ कच्चे माल के निर्यात और तैयार माल के आयात को बढ़ावा देती थीं, जिससे भारत की आत्मनिर्भर कारीगरी अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो गई।
- उदाहरण: भारत से ब्रिटेन को जाने वाले वस्त्रों पर भारी कर लगाया गया, जबकि ब्रिटिश वस्तुओं को भारत में करमुक्त प्रवेश मिला।
- राजकीय और अभिजात संरक्षण का ह्रास: ब्रिटिश प्रभुत्व के साथ ही देशी रियासतों और जमींदारी नेटवर्क का पतन हुआ, जो पारंपरिक रूप से कारीगरों को संरक्षण देते थे।
- उदाहरण: वर्ष 1857 के बाद मुगल दरबार के पतन से कालीन, मिनिएचर चित्रकला और आभूषण शिल्प जैसी कार्यशालाएँ बंद हो गईं।
- रेलवे और परिवहन का प्रसार: परिवहन सुविधाओं के विस्तार से ब्रिटिश वस्तुएँ देश के हर हिस्से में शीघ्र पहुँचने लगीं, जिससे स्थानीय उत्पादन तेजी से कमजोर हुआ।
अन्य सहायक कारक — हस्तशिल्प और कुटीर उद्योगों के पतन में
- शोषणकारी औपनिवेशिक राजस्व नीतियाँ: स्थायी बंदोबस्त जैसी नीतियों ने किसानों और कारीगरों पर अत्यधिक राजस्व बोझ डाला।
- उदाहरण: ग्रामीण क्षेत्रों के बुनकरों ने कर्ज और भूख से तंग आकर करघे छोड़ कृषि करना प्रारंभ किया।
- तकनीकी अनुकूलन का अभाव: भारतीय हस्तशिल्प पारंपरिक तकनीकों पर आधारित रहा, जिससे वह ब्रिटिश कारखानों की दक्षता और पैमाने से मुकाबला नहीं कर सका।
- अकाल और ग्रामीण संकट: औपनिवेशिक शासन के दौरान बार-बार आने वाले अकालों ने ग्रामीण आय घटाई और हस्तशिल्प की माँग कम की।
- उदाहरण: वर्ष 1876–78 के अकाल से दक्षिण भारत के कई क्षेत्रों में आर्थिक पतन हुआ।
- राज्य संरक्षण का अभाव: इंग्लैंड में जहाँ औद्योगिक पूँजीपतियों को राज्य संरक्षण मिला, वहीं भारत में मुगल साम्राज्य के पतन के बाद कारीगर संरक्षण से वंचित रह गए।
- पारंपरिक व्यापार मार्गों का विघटन: ब्रिटिश नियंत्रण और राजनीतिक अस्थिरता ने व्यापार मार्गों को बाधित किया, जिससे कारीगरों की जीविका पर सीधा असर पड़ा।
- नई शहरी मध्यमवर्गीय रुचियाँ: पाश्चात्य शिक्षा और जीवनशैली के प्रभाव से शिक्षित भारतीयों ने विदेशी वस्त्रों और उत्पादों को अपनाना शुरू किया।
- उदाहरण: ब्रिटिश शैली के फर्नीचर और वस्त्र भारतीय समाज में प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गए, जिससे हस्तनिर्मित खादी और लकड़ी के शिल्प की माँग घटी।
निष्कर्ष
इंग्लैंड की औद्योगिक क्रांति भारत के लिए हानिकारक सिद्ध हुई, परंतु भारत की औपनिवेशिक व्यवस्था में संरक्षण और अनुकूलन के तंत्रों का अभाव इसके प्रभाव को और गहरा कर गया। अतः यह स्पष्ट है कि भारत के हस्तशिल्प और कुटीर उद्योगों का पतन केवल वैश्विक औद्योगिक क्रांति का परिणाम नहीं था, बल्कि औपनिवेशिक नीतियों और आंतरिक संरचनात्मक कमजोरियों का संयुक्त प्रभाव था।
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