प्रश्न की मुख्य माँग
- इस बात पर प्रकाश डालिये कि संसदीय स्थायी समितियों को ‘लघु संसद’ क्यों कहा जाता है।
- उन चुनौतियों का विश्लेषण कीजिए जिनके कारण पिछले कुछ वर्षों में इन समितियों की प्रभावशीलता में कमी आई है।
- भारत में संसदीय लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए आवश्यक सुधारों का सुझाव दीजिए।
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उत्तर
संसदीय स्थायी समितियों को अक्सर ‘लघु संसद’ के रूप में संदर्भित किया जाता है क्योंकि वे नीतिगत मामलों की समीक्षा, जाँच और विस्तार से बहस करने में अपनी भूमिका ठीक उसी प्रकार से निभाते हैं जैसे कि वास्तविक संसद । इन समितियों में दोनों सदनों के सदस्य होते हैं जो कानून, बजट और नीतियों का परीक्षण करते हैं तथा शासन को उन्नत बनाने के लिए सिफारिशें प्रदान करते हैं। भारत में, ये समितियाँ प्रमुख राष्ट्रीय मुद्दों पर पारदर्शिता और गहन विचार-विमर्श सुनिश्चित करके जवाबदेही बनाए रखने और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को मजबूत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
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‘लघु संसद’ के रूप में संसदीय स्थायी समितियाँ
- विस्तृत विधायी जाँच: समितियां, संसद की तरह प्रस्तावित कानून की विस्तार से जाँच करती हैं, खामियों की पहचान करती हैं और प्रभावी विधिक निर्माण सुनिश्चित करने के लिए सुधार का सुझाव देती हैं।
- उदाहरण के लिए: खाद्य और उपभोक्ता मामलों की समिति ने उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 में कुछ महत्त्वपूर्ण संशोधनों का सुझाव दिया, जैसे भ्रामक विज्ञापनों के लिए सख्त दंड का प्रावधान।
- गैर-पक्षपातपूर्ण बहस:इन स्थायी समितियों द्वारा गैर-पक्षपातपूर्ण चर्चायें होती हैं, जिससे सदस्यों को वस्तुनिष्ठ बहस में शामिल होने का एक मंच मिलता है। ऐसी चर्चायें बड़े संसदीय सत्रों में देखे जाने वाले राजनीतिक दबाव से मुक्त होती हैं।
- उदाहरण के लिए: लोक लेखा समिति (PAC) अक्सर दलीय पक्षपात किये बिना सरकारी व्यय की जाँच करती हैं और वित्तीय जवाबदेही को मजबूत करती हैं।
- विशेषज्ञ परामर्श और गवाहों की गवाही: ये समितियाँ कानूनों पर अंतर्दृष्टि प्रदान करने के लिए विशेषज्ञों, हितधारकों और नागरिक समाज के प्रतिनिधियों को आमंत्रित करती हैं, ताकि निर्णय लेने से पहले एक व्यापक दृष्टिकोण सुनिश्चित किया जा सके।
- उदाहरण के लिए: स्वास्थ्य और परिवार कल्याण समिति ने सरोगेसी (विनियमन) विधेयक, 2016 की समीक्षा की, जिसमें सरोगेसी में नैतिक और चिकित्सा मानकों को संतुलित करने वाले विनियमनों की सिफारिश की गई।
- नीति कार्यान्वयन की निरंतर निगरानी: कार्यान्वयन के बाद नीतियों की समीक्षा करके ये समितियाँ सरकार को जवाबदेह ठहराती हैं और नीति के प्रभाव का आकलन करती हैं। इस तरह से ये समितियां संसद की तरह नियंत्रण और संतुलन की भूमिका भी निभाती हैं।
- उदाहरण के लिए: सार्वजनिक उपक्रमों की समिति, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के प्रदर्शन का मूल्यांकन करती है और दक्षता बढ़ाने के लिए सुधारों का सुझाव देती हैं।
- पार्टी लाइन से अलग जाकर समावेशी प्रतिनिधित्व: इन समितियों में कई पार्टियों के सदस्य शामिल होते हैं, जिससे निर्णय प्रक्रिया में विविध प्रतिनिधित्व और दृष्टिकोण सुनिश्चित होते हैं जो संसद की लोकतांत्रिक व्यवस्था को दर्शाता है।
- उदाहरण के लिए: रक्षा संबंधी स्थायी समिति में विभिन्न दलों का प्रतिनिधित्व होता है, जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर व्यापक विचार-विमर्श संभव हो पाता है।
संसदीय स्थायी समितियों के सम्मुख आने वाली चुनौतियाँ, जिनके कारण उनकी प्रभावशीलता कम हो रही है:
- बैठकों की आवृत्ति और उपस्थिति में कमी: कई समितियों की बैठकें कम बार होती हैं, और सदस्यों की कम उपस्थिति से चर्चाओं की गहनता और सिफारिशों की गुणवत्ता कम होती है।
- उदाहरण के लिए: एक PRS रिपोर्ट के अनुसार संसदीय स्थायी समितियों की बैठकों में सांसदों की उपस्थिति लगभग 50% है, जो संसद की बैठकों के दौरान सांसदों की होने वाली 84% उपस्थिति से कम है।
- विधायी समीक्षा के लिए अपर्याप्त समय: समीक्षा के लिए जटिल विधेयकों को अक्सर सीमित समय के लिये इन समितियों को भेजा जाता है, जिससे उनके विश्लेषण और सिफारिशों की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
- उदाहरण के लिए: हाल के वर्षों में, संसद की बैठक औसतन केवल 67 दिनों तक ही हुई, जिससे समिति के विचार-विमर्श के लिए उपलब्ध समय सीमित हो गया।
- पर्याप्त संसाधनों और विशेषज्ञता का अभाव: समितियों के पास अक्सर डेटा, संसाधनों और शोध सहायता तक पहुँच की कमी होती है, जिससे जटिल विधायी प्रस्तावों का गहन
विश्लेषण करने की उनकी क्षमता बाधित होती है ।
- उदाहरण के लिए: पर्यावरण समिति को रियलटाइम जलवायु डेटा प्राप्त करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जिससे उसकी नीतिगत सिफारिशें प्रभावित होती हैं।
- समिति के निर्णयों में राजनीतिक हस्तक्षेप: राजनीतिक एजेंडे कभी-कभी इन समितियों के निर्णयों को प्रभावित करते हैं, जिससे चर्चाओं की निष्पक्षता और गैर-पक्षपातपूर्ण प्रकृति कम हो जाती है।
- समिति की रिपोर्ट तक जनता की सीमित पहुँच: समिति की रिपोर्ट तक जनता की सीमित पहुँच होने से पारदर्शिता कम हो जाती है, जिससे नागरिक प्रमुख मुद्दों पर समिति की सिफारिशों को समझने में असमर्थ हो जाते हैं।
- उदाहरण के लिए: रक्षा खरीद पर समिति की रिपोर्ट गोपनीय रहती है, जिससे सार्वजनिक जाँच सीमित हो जाती है।
- रिपोर्ट प्रस्तुत करने में देरी: रिपोर्ट प्रस्तुत करने में देरी से समिति के निष्कर्षों की प्रासंगिकता कम हो जाती है , विशेषकर तब जब त्वरित विधायी कार्रवाई की आवश्यकता होती है।
- समिति की शक्तियों का कम उपयोग: कई समितियाँ अपनी शक्तियों का कम उपयोग करती हैं जिससे उनकी जाँच की गहनता कम हो जाती है।
- उदाहरण के लिए: कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वयन का मूल्यांकन करने के लिए निरंतर क्षेत्र के दौरे न करने से जमीनी हकीकत की समझ सीमित हो जाती है।
भारत में संसदीय लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए सुधार
- नियमित बैठकें और रिपोर्टिंग समयसीमा को अनिवार्य करना: अनिवार्य न्यूनतम बैठक आवृत्तियों और रिपोर्टिंग समयसीमाओं को लागू करने से सही समय पर प्रासंगिक जानकारी प्रस्तुत की जा सकती है।
- उदाहरण के लिए: इन समितियाँ की नियमित बैठकों से व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक, 2022 जैसे महत्त्वपूर्ण विधेयकों का समय पर विश्लेषण सुनिश्चित हो सकता है।
- संसाधन आवंटन और अनुसंधान सहायता बढ़ाना: समितियों को समर्पित अनुसंधान कर्मचारी और डेटा संसाधन आवंटित करने से साक्ष्य-आधारित मूल्यांकन करने की उनकी क्षमता में सुधार हो सकता है।
- उदाहरण के लिए: वित्त समिति को पर्याप्त संख्या में आर्थिक शोधकर्ता प्रदान करने से राजकोषीय नीति विश्लेषण में सुधार हो सकता है।
- विशिष्ट नीतियों के लिए समिति की सिफ़ारिशों को बाध्यकारी बनाना: स्वास्थ्य सेवा और रक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर इन समितियों की सिफारिशों को बाध्यकारी बनाने से इनका प्रभाव बढ़ेगा।
- उदाहरण के लिए: शिक्षा समिति के लिए बाध्यकारी सिफारिशें NEP 2020 जैसी नीतियों के प्रभाव को बढ़ा सकती हैं।
- रिपोर्ट और कार्यवाही तक सार्वजनिक पहुँच बढ़ाना: समिति की रिपोर्ट प्रकाशित करने और सत्रों तक सीमित सार्वजनिक पहुँच प्रदान करने से पारदर्शिता और सार्वजनिक जवाबदेही बढ़ा सकता है ।
- उदाहरण के लिए: सार्वजनिक व्यय पर PAC रिपोर्ट को नागरिकों के लिए सुलभ बनाने से वित्तीय जवाबदेही में सुधार हो सकता है।
- अंतर-दलीय सहयोग पहलों को प्रोत्साहित करना: समितियों के भीतर अंतर-दलीय सहयोग को प्रोत्साहित करने वाले कार्यक्रमों के माध्यम से पक्षपात कम हो सकता है और आम सहमति से संचालित नीतिगत सिफारिशों को बढ़ावा मिल सकता है।
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संसदीय स्थायी समितियाँ विधायी जाँच और नीति मूल्यांकन के माध्यम से भारत के संसदीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने में एक अभिन्न भूमिका निभाती हैं । हालाँकि, संसाधन की कमी, पारदर्शिता की कमी और राजनीतिक प्रभाव के कारण उनकी कम होती प्रभावशीलता लक्षित सुधारों की आवश्यकता को उजागर करती है। नियमित बैठकें सुनिश्चित करके, सार्वजनिक पहुँच बढ़ाकर और पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराकर, भारत समावेशी लोकतांत्रिक भविष्य के लिए जवाबदेह, पारदर्शी और प्रभावी शासन को बढ़ावा देने हेतु इन ‘लघु–संसदों’ का लाभ उठा सकता है।
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