Q. जाति प्रतीकों के सार्वजनिक प्रदर्शन पर प्रतिबंध का उद्देश्य सामाजिक समरसता को बढ़ावा देना है, लेकिन यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जाति पहचान के दावे के बारे में गंभीर प्रश्न उठाता है। आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए। (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • जाति प्रतीकों के सार्वजनिक प्रदर्शन पर प्रतिबंध का उद्देश्य सामाजिक समरसता को कैसे बढ़ावा देता है।
  • यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जातिगत पहचान के दावे पर कैसे गंभीर प्रश्न उठाता है?
  • आगे की राह

उत्तर

उत्तर प्रदेश सरकार ने केंद्रीय मोटर वाहन अधिनियम के अंतर्गत जाति-आधारित राजनीतिक रैलियों, जातिगत नारे या वाहनों पर लगाए जाने वाले स्टिकर्स पर प्रतिबंध लगाया है तथा जाति-गौरव को बढ़ावा देने वाले साइनबोर्ड हटाने के आदेश दिए हैं। सामाजिक सौहार्द को बढ़ावा देने के उद्देश्य से उठाए गए इस कदम ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जातिगत पहचान अभिव्यक्ति के अधिकार पर महत्त्वपूर्ण प्रश्न उत्पन्न कर दिए हैं।

किस प्रकार जाति-प्रतीकों के सार्वजनिक प्रदर्शन पर प्रतिबंध सामाजिक सौहार्द को बढ़ावा देता है

  • जातिगत संघर्षों में कमी: जातिगत प्रतीकों का सार्वजनिक प्रदर्शन समुदायों के बीच तनाव को बढ़ा सकता है और हिंसा को भड़का सकता है।
    • उदाहरण: उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जाति-आधारित साइनबोर्ड, रैलियों और नारों पर प्रतिबंध सांप्रदायिक टकराव रोकने का प्रयास है।
  • राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा: जाति-गौरव की सीमा तय करना एकीकृत और धर्मनिरपेक्ष समाज की अवधारणा को मजबूत करता है, जो जातिगत विभाजनों से परे है।
    • उदाहरण: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि जातिगत गर्व धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्र की अखंडता को कमजोर करता है।
  • राजनीतिक दुरुपयोग की रोकथाम: जातिगत प्रदर्शनों पर प्रतिबंध से जातिगत पहचान का उपयोग चुनावी लामबंदी और वोट बैंक की राजनीति में नहीं किया जा सकेगा।
  • समानता को प्रोत्साहन: सार्वजनिक रूप से जाति-चिह्नों पर अंकुश लगाने से समावेशिता में वृद्धि होती है और विशेषकर वंचित समुदायों के खिलाफ भेदभाव घटता है।
    • उदाहरण: पुलिस प्रपत्रों से जाति उल्लेख हटाना, कानून प्रवर्तन में निष्पक्षता सुनिश्चित करता है।

किस प्रकार यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और जातिगत पहचान अभिव्यक्ति पर गंभीर प्रश्न उठाता है

  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की चिंता: नागरिक इसे अपनी पहचान और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के अधिकार पर अंकुश मान सकते हैं।
  • सामाजिक पहचान अभिव्यक्ति पर प्रभाव: वंचित समुदाय अपने ऐतिहासिक संघर्षों और उपलब्धियों को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने असमर्थ होंगे।
    • उदाहरण: अनुसूचित जाति/जनजाति अपने सामुदायिक आयोजनों को सार्वजनिक रूप से मनाने में प्रतिबंधित महसूस कर सकते हैं।
  • कानून के दुरुपयोग की संभावना: अधिकारी इस प्रतिबंध की मनमानी व्याख्या कर सकते हैं, जिससे वैध सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का दमन हो सकता है।
  • राष्ट्रीय एकता और पहचान के बीच संतुलन: सामाजिक एकता को बढ़ावा देने और भारत की बहुल सामाजिक संरचना को मान्यता देने के बीच तनाव उत्पन्न होता है।
    • उदाहरण: यह बहस जारी है कि पहचान चिह्नों को विनियमित करने में राज्य का हस्तक्षेप अधिकारों का उल्लंघन किए बिना कितना प्रभावी हो सकता है।

आगे की राह

  • लक्षित विनियमन: पहचान-चिह्नों पर पूर्ण प्रतिबंध के बजाय केवल घृणा और हिंसा को भड़काने वाले जातिगत गौरव पर रोक लगाई जानी चाहिए।
    • उदाहरण: राजनीतिक लामबंदी और भड़काऊ संदर्भों में ही जातिगत गौरव का सार्वजनिक प्रदर्शन प्रतिबंधित हो।
  • कानूनी स्पष्टता: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सुनिश्चित करते हुए जातिगत घृणा या हिंसा को हतोत्साहित करने के लिए विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए जाएँ।
    • उदाहरण: केंद्रीय मोटर वाहन नियमों और आईटी दिशा-निर्देशों में संशोधन कर प्रतिबंधित कृत्यों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाए।
  • सामाजिक जागरूकता अभियान: मीडिया साक्षरता, युवा कार्यक्रम और शैक्षिक हस्तक्षेपों के माध्यम से जातिगत पूर्वाग्रह को कम किया जाए।
    • उदाहरण: इंस्टाग्राम, यूट्यूब और व्हाट्सऐप पर एंटी-कास्टिज्म जागरूकता अभियान।
  • नागरिक रिपोर्टिंग तंत्र: जाति-आधारित घृणा की शिकायत दर्ज करने हेतु ऐसे प्लेटफॉर्म विकसित किए जाएँ, जहाँ शिकायतकर्ता की पहचान छुपाने की गारंटी हो।
    • उदाहरण: मोबाइल ऐप और पोर्टल, जिनके माध्यम से नागरिक उल्लंघनों को रिपोर्ट कर सकें और अनुपालन की निगरानी हो सके।
  • समावेशी सामुदायिक सहभागिता: समुदायों के साथ संवाद को प्रोत्साहित किया जाए ताकि पहचान अभिव्यक्ति और सामाजिक सौहार्द में संतुलन बना रहे।
    • उदाहरण: ग्रामसभा और स्थानीय मंचों पर जातिगत पहचान पर रचनात्मक विमर्श।

निष्कर्ष

जातिगत गौरव पर अंकुश सामाजिक एकता के लिए आवश्यक है, किंतु दीर्घकालिक परिवर्तन के लिए कानून, जागरूकता और संवाद जरूरी हैं। एंटी-कास्ट शिक्षा और सामुदायिक सहभागिता सौहार्द स्थापित कर सकती है। स्पष्ट दिशा-निर्देश पहचान अभिव्यक्ति को संरक्षित रखते हुए एकता सुनिश्चित कर सकते हैं।

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