प्रश्न की मुख्य माँग
- चर्चा कीजिए कि भारतीय न्यायिक सेवा (IJS) का प्रस्ताव किस प्रकार न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच तनाव का प्रतिनिधित्व करता है।
- इससे संबंधित संभावित संवैधानिक चुनौतियों पर प्रकाश डालिये।
- परीक्षण कीजिए कि IJS उच्च न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व, पारदर्शिता और अखंडता के मुद्दों को कैसे संबोधित कर सकता है।
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उत्तर
भारतीय न्यायिक सेवा (IJS) प्रस्ताव का उद्देश्य न्यायपालिका के लिए अखिल भारतीय सेवाओं की तरह एक केंद्रीय भर्ती कैडर बनाना है। हालांकि यह दक्षता और एकरूपता बढ़ाने का प्रयास करता है, लेकिन न्यायिक स्वतंत्रता पर इसके प्रभाव को लेकर चिंताएं बनी हुई हैं। 2023 तक, भारत में न्यायाधीश-जनसंख्या अनुपात 21 प्रति मिलियन है।
न्यायिक स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच तनाव
- कॉलेजियम प्रणाली बनाम कार्यकारी निरीक्षण: मौजूदा कॉलेजियम प्रणाली न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा करती है, जबकि IJS न्यायिक नियुक्तियों में कार्यकारी हस्तक्षेप ला सकती है।
- उदाहरण के लिए: सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायपालिका की नियुक्तियों पर कार्यपालिका के नियंत्रण के जोखिम का हवाला देते हुए वर्ष 2015 में NJAC अधिनियम को रद्द कर दिया था।
- न्यायपालिका का संभावित नौकरशाहीकरण: UPSC के नेतृत्व वाली भर्ती, न्यायपालिका को सिविल सेवाओं के समान बना सकती है , जिससे इसकी स्वायत्त निर्णय लेने की क्षमता कमजोर हो सकती है।
- उदाहरण के लिए: भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) कार्यपालिका के अधीन काम करती है और यदि इसी प्रकार का मॉडल अपनाया जाता है तो न्यायिक तटस्थता से समझौता हो सकता है।
- शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को बाधित करना: IJS के माध्यम से चुने गए न्यायाधीशों को अपने पदों पर कार्यपालिका-नियंत्रित तंत्र का पालन करना पड़ सकता है जिससे शासन-संबंधी मामलों में निष्पक्षता प्रभावित हो सकती है।
- न्यायिक विशेषज्ञता बनाम सामान्यीकृत भर्ती: IJS के माध्यम से सीधी भर्ती में कानूनी विशेषज्ञों की तुलना में सामान्य लोगों को प्राथमिकता दी जा सकती है, जिससे कानूनी व्याख्याएँ और निर्णय प्रभावित हो सकते हैं।
- उदाहरण के लिए: संवैधानिक और आपराधिक कानून में विशेषज्ञता सुनिश्चित न करने के लिए अखिल भारतीय न्यायिक सेवा (AIJS) प्रस्ताव की आलोचना की गई है।
- न्यायपालिका का प्रतिरोध: न्यायपालिका, IJS को अपने स्व-नियमन और स्वायत्तता के लिए चुनौती के रूप में देख सकती है, जिससे न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच घर्षण उत्पन्न हो सकता है।
- उदाहरण के लिए: सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1990 में राष्ट्रीय न्यायिक आयोग विधेयक का विरोध किया था, क्योंकि उसे इससे स्वतंत्रता कमजोर होने की चिंता थी।
संभावित संवैधानिक चुनौतियाँ
- अनुच्छेद 124 और 217 का उल्लंघन: ये अनुच्छेद राष्ट्रपति को न्यायपालिका के परामर्श से न्यायाधीशों की नियुक्ति करने की शक्ति प्रदान करते हैं, जिससे IJS संवैधानिक रूप से संदिग्ध हो जाता है।
- उदाहरण के लिए: सर्वोच्च न्यायालय ने द्वितीय न्यायाधीश वाद (वर्ष 1993) में निर्णय दिया कि नियुक्तियों में प्राथमिकता न्यायपालिका के पास ही रहनी चाहिए।
- संशोधन की आवश्यकता (अनुच्छेद 312): अखिल भारतीय सेवा के लिए संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता होती है, जिसके लिए संसदीय स्वीकृति और राज्य अनुमोदन की आवश्यकता होती है।
- उदाहरण के लिए: अखिल भारतीय न्यायिक सेवा का प्रस्ताव वर्ष 1972 में रखा गया था, लेकिन राज्य की सहमति के अभाव में यह असफल हो गया।
- संघीय संरचना पर प्रभाव: उच्च न्यायालयों को अनुच्छेद 229 के तहत स्वायत्तता प्राप्त है और केंद्रीय भर्ती प्रक्रिया लागू करने के निर्णय का राज्यों द्वारा विरोध किया जा सकता है।
- उदाहरण के लिए: तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल ने संघीय चिंताओं का हवाला देते हुए न्यायाधीशों की केंद्रीय भर्ती का विरोध किया है।
- मौजूदा न्यायिक नियुक्तियों से संबंधित चुनौतियाँ: IJS में परिवर्तन से वर्तमान कॉलेजियम-आधारित नियुक्तियाँ बाधित होंगी , जिससे प्रशासनिक और कानूनी बाधाएँ उत्पन्न होंगी।
- उदाहरण के लिए: नियुक्ति प्रणाली में परिवर्तन की चिंताओं के कारण 99वें संविधान संशोधन (वर्ष 2014) को रद्द कर दिया गया था।
- न्यायिक समीक्षा का दायरा: न्यायिक स्वतंत्रता पर सर्वोच्च न्यायालय के पिछले रुख को देखते हुए, IJS बनाने वाले किसी भी कानून को संभवतः सर्वोच्च न्यायालय की जांच का सामना करना पड़ेगा।
- उदाहरण के लिए: प्रथम न्यायाधीश वाद (वर्ष 1981) में कार्यपालिका की प्रधानता को बरकरार रखा गया, लेकिन बाद के मामलों में इसे उलट दिया गया, जिससे न्यायिक व्याख्या में बदलाव दिखा।
प्रतिनिधित्व, पारदर्शिता और सत्यनिष्ठा को संबोधित करने में IJS की भूमिका
प्रतिनिधित्व
- विविध प्रतिभा पूल: एक राष्ट्रव्यापी चयन प्रक्रिया यह सुनिश्चित कर सकती है कि महिलायें, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और क्षेत्रीय उम्मीदवार भी उचित संख्या में न्यायिक पदों पर आसीन हो, जिससे न्यायिक अभिजात्यवाद कम हो सके।
- उदाहरण के लिए: वर्तमान समय में उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों में महिलाओं की संख्या 12% से भी कम है; IJS इस लैंगिक असंतुलन को ठीक कर सकता है।
- न्यायिक वंशवाद को तोड़ना: वर्तमान प्रणाली पारिवारिक विरासत को तरजीह देती है , जिससे प्रथम पीढ़ी के वकीलों के लिए अवसर सीमित हो जाते हैं। IJS वंशानुगत न्यायिक करियर की तुलना में योग्यता-आधारित चयन सुनिश्चित करेगा।
- उदाहरण के लिए: लगभग 33% उच्चतम न्यायलय के न्यायाधीश न्यायिक परिवारों से आते हैं , जिससे विविध पृष्ठभूमि से नए न्यायाधीशों का प्रवेश प्रतिबंधित हो जाता है।
पारदर्शिता
- योग्यता आधारित परीक्षा: UPSC जैसी प्रक्रिया से चयन मानदंडों का सार्वजनिक रूप से खुलासा होगा, जिससे न्यायिक नियुक्तियों में पूर्वाग्रह और पक्षपात समाप्त हो जाएगा।
- उदाहरण के लिए: सिविल सेवा परीक्षा ने प्रशासनिक सेवाओं के लिए एक पारदर्शी, प्रतिस्पर्धी भर्ती मॉडल बनाने में मदद की है।
- व्यक्तिपरकता की अपेक्षा वस्तुनिष्ठ चयन: कॉलेजियम की बैठकें बंद दरवाजे के पीछे होती हैं , जबकि IJS ढांचे में संरचित मूल्यांकन, साक्षात्कार और पृष्ठभूमि जाँच शामिल होगी।
- उदाहरण के लिए: द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने संस्थागत विश्वसनीयता में सुधार के लिए खुली चयन प्रक्रिया की सिफारिश की थी।
सत्यनिष्ठा
- नैतिक जाँच: एक औपचारिक IJS चयन प्रक्रिया में पृष्ठभूमि की जाँच और सत्यनिष्ठा का आकलन शामिल होगा, जिससे न्यायिक नियुक्तियों में भ्रष्टाचार के जोखिम को कम किया जा सकेगा।
- जवाबदेही तंत्र: IJS के माध्यम से भर्ती किए गए न्यायाधीश संरचित प्रदर्शन समीक्षा के अधीन हो सकते हैं जिससे नैतिक आचरण सुनिश्चित होगा और न्यायिक कदाचार पर अंकुश लगेगा।
भारतीय न्यायिक सेवा (IJS) अधिक विविधतापूर्ण और संरचित भर्ती प्रक्रिया सुनिश्चित करके प्रतिनिधित्व, पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ा सकती है। हालाँकि, न्यायिक स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिए इसे सावधानीपूर्वक तैयार किया जाना चाहिए। अनुचित प्रभाव को रोकने, न्यायपालिका की सत्यनिष्ठा को बनाए रखने और समावेशिता को बढ़ावा देने के लिए एक मजबूत चयन ढाँचा और संवैधानिक सुरक्षा उपाय आवश्यक हैं।
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