प्रश्न की मुख्य माँग
- इस जुड़ाव (वैश्विक शांति पहल) के पीछे रणनीतिक प्रेरणा।
- मध्यम शक्ति वाले देशों के लिए उभरती चुनौतियाँ।
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उत्तर
आगामी बुसान शिखर सम्मेलन में डोनाल्ड ट्रंप और शी जिनपिंग की मुलाकात टकराव से सावधानीपूर्ण सहयोग की ओर एक बदलाव को दर्शाती है। प्रस्तावित “ग्लोबल पीस इनिशिएटिव” का उद्देश्य महाशक्तियों की प्रतिद्वंद्विता को “नियंत्रित सह-अस्तित्व” के ढाँचे में बदलना है। यह पहल जहाँ वैश्विक स्थिरता का संकेत देती है, वहीं यह वैश्विक व्यवस्था के पुनर्गठन और भारत जैसे मध्यम शक्तिशाली देशों के लिए नए रणनीतिक परीक्षणों को भी जन्म देती है।
संलग्नता के पीछे रणनीतिक उद्देश्य
- प्रतिस्पर्द्धा को सहयोग के रूप में पुनर्परिभाषित करना: दोनों नेता अपनी शक्ति प्रतिद्वंद्विता को शांति और साझा जिम्मेदारी के संदेश में बदलकर सकारात्मक वैश्विक छवि प्रस्तुत करना चाहते हैं।
- उदाहरण: ट्रंप का शी के साथ शांति रूपरेखा और व्यापार समझौते की संयुक्त घोषणा का प्रस्ताव अमेरिका-चीन साझेदारी को एक स्थिरकारी शक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है।
- वैश्विक वैधता और घरेलू छवि: ट्रंप स्वयं को “शांति राष्ट्रपति” के रूप में स्थापित करना चाहते हैं, जबकि शी चीन को एक जिम्मेदार वैश्विक नेता और शांतिदूत के रूप में दिखाना चाहते हैं।
- उदाहरण: शी के विकास, सुरक्षा, सभ्यता और शासन पर चार वैश्विक पहल चीन की वैश्विक संरक्षक की छवि को मजबूत करती हैं।
- आर्थिक एवं रणनीतिक परस्पर निर्भरता: अमेरिका और चीन की अर्थव्यवस्थाएँ एक-दूसरे पर गहराई से निर्भर हैं। सहयोगात्मक दृष्टिकोण पूर्ण व्यापार युद्ध से बचने और स्थिरता बनाए रखने में मदद करता है।
- वैश्विक सुरक्षा जोखिमों में कमी: परमाणु नियंत्रण, कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) और अंतरिक्ष सुरक्षा पर वार्ता को पुनः प्रारंभ करना दोनों को जिम्मेदार शक्तियों के रूप में प्रस्तुत करता है।
- अन्य शक्तियों को भू-राजनीतिक संकेत: यह शांति योजना अमेरिका और चीन को वैश्विक एजेंडा निर्धारक के रूप में स्थापित करती है और उन गठबंधनों के प्रभाव को घटाती है, जो उन्हें बाहर रखते हैं।
- उदाहरण: एक संयुक्त “शांति घोषणा” वाशिंगटन और बीजिंग को समान वैश्विक नेता के रूप में प्रस्तुत करेगी, जिससे G7 या क्वाड जैसे समूहों की भूमिका सीमित होगी।
मध्यम शक्तियों (विशेषकर भारत) के लिए उभरती चुनौतियाँ
- रणनीतिक उपेक्षा: यदि अमेरिका और चीन मिलकर कार्य करते हैं, तो मध्यम शक्तियों का प्रभाव घट सकता है और उन्हें उनकी संयुक्त नीतियों के अनुरूप ढलना पड़ सकता है।
- उदाहरण: यदि वाशिंगटन और बीजिंग इंडो-पैसिफिक मुद्दों पर सीधे सहयोग करें, तो भारत की क्षेत्रीय आवाज कमजोर हो सकती है।
- रणनीतिक स्वायत्तता का क्षरण: भारत की “सभी प्रमुख शक्तियों के साथ संतुलित संबंध” की नीति पर दबाव बढ़ेगा, क्योंकि विश्व दो मुख्य शक्ति केंद्रों की ओर बढ़ रहा है।
- उदाहरण: अमेरिका के साथ क्वाड सहयोग और चीन के साथ ब्रिक्स (BRICS) में भागीदारी के बीच संतुलन बनाए रखना कठिन होगा।
- आर्थिक संवेदनशीलताएँ: यदि अमेरिका–चीन व्यापारिक संबंध मजबूत होते हैं, तो वैश्विक आपूर्ति शृंखला बदल सकती हैं, जिससे भारत के व्यापारिक अवसरों पर असर पड़ेगा।
- उदाहरण: अमेरिका–चीन व्यापार समझौते के पुनर्जीवन से भारत की वैकल्पिक विनिर्माण केंद्र बनने की भूमिका सीमित हो सकती है।
- इंडो-पैसिफिक में सुरक्षा दुविधाएँ: भले ही अमेरिका और चीन “शांति वार्ता” करें, परंतु सीमा और समुद्री विवाद बने रह सकते हैं विशेषकर भारत जैसे पड़ोसी देशों के लिए।
- कूटनीतिक संतुलन की थकान: भारत को अनेक वैश्विक मंचों (G20, ब्रिक्स, क्वाड) पर एक साथ सक्रिय रहना पड़ता है, जिससे राजनयिक दबाव और रणनीतिक भ्रम दोनों बढ़ते हैं।
निष्कर्ष
बुसान शांति वार्ता एक व्यावहारिक युद्धविराम का संकेत हो सकती है, न कि महाशक्तियों के बीच प्रतिस्पर्द्धा का अंत। भारत जैसी मध्यम शक्तियों के लिए, आगे का कार्य रणनीतिक स्वायत्तता को संरक्षित करना, क्वाड तथा I2U2 जैसे क्षेत्रीय गठबंधनों को गहरा करना और AI, व्यापार और सुरक्षा पर उभरते वैश्विक मानदंडों को आकार देना है। उनका लचीलापन यह निर्धारित करेगा कि प्रबंधित सह-अस्तित्व एक स्थिर व्यवस्था बनेगा या निर्भरता का एक नया रूप बनेगा।
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