Q. सुरक्षा चिंताओं के कारण महिलाओं पर निरंतर सतर्कता का मनोवैज्ञानिक बोझ व्यक्तियों एवं समाज दोनों के लिए दूरगामी निहितार्थ रखता है। भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की हालिया घटनाओं के आलोक में इस कथन की आलोचनात्मक परीक्षण कीजिये। (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • व्यक्तिगत सुरक्षा के लिए निरंतर सतर्कता की आवश्यकता के कारण, महिलाओं को जो मनोवैज्ञानिक बोझ का सामना करना पड़ता है, उसके दूरगामी प्रभावों का परीक्षण कीजिए।
  • सामाजिक स्तर पर सुरक्षा के लिए सतर्कता की निरंतर आवश्यकता के कारण महिलाओं को जिस मनोवैज्ञानिक बोझ का सामना करना पड़ता है, उसके दूरगामी प्रभावों का परीक्षण कीजिए।
  • इसमें शामिल चुनौतियों पर प्रकाश डालिये।
  • आगे की राह सुझाएँ।

 

उत्तर:

भारत में महिलाओं के खिलाफ हिंसा की हालिया घटनाएँ, जैसे कि कोलकाता में एक महिला डॉक्टर के साथ बलात्कार और हत्या की क्रूर घटना, महिलाओं द्वारा सामना किए जाने वाले स्थायी मनोवैज्ञानिक बोझ को उजागर करती हैं। यह बोझ सुरक्षा के लिए निरंतर सतर्कता की आवश्यकता से उत्पन्न हुआ है, जो उनके मानसिक स्वास्थ्य और स्वतंत्रता को प्रभावित करता है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के अनुसार, वर्ष 2021 में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 7.3% की वृद्धि हुई, जिसने इन चिंताओं को और अधिक बढ़ा दिया।

मनोवैज्ञानिक बोझ के व्यक्तिगत निहितार्थ

  • मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव: निरंतर सतर्कता की आवश्यकता महिलाओं में चिंता और तनाव की स्थिति उत्पन्न करती है, जिससे अवसाद और ‘पोस्ट-ट्रॉमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर’ (PTSD) जैसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
    • उदाहरण के लिए: ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एँड न्यूरोसाइंसेज’ (NIMHANS) द्वारा वर्ष 2022 में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि जो महिलाएँ नियमित रूप से उत्पीड़न का सामना करती हैं, उनमें चिंता और PTSD की दर अधिक होती है।
  • कैरियर के अवसरों पर सीमाएँ: व्यक्तिगत सुरक्षा का डर महिलाओं को देर रात तक या दूरदराज के स्थानों पर कार्य करने से रोकता है, जिससे करियर विकास और आय के अवसर सीमित हो जाते हैं।
  • संयमित सामाजिक संपर्क: महिलाएँ अक्सर उत्पीड़न के डर से सामाजिक कार्यक्रमों या सार्वजनिक समारोहों, विशेषकर रात्रि के समय, से बचती हैं, जिसके परिणामस्वरूप सामाजिक अलगाव होता है, और जीवन की गुणवत्ता कम हो जाती है।
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर प्रभाव: सुरक्षा चिंताओं का मनोवैज्ञानिक बोझ महिलाओं की आवाजाही की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करता है, जिससे स्वायत्तता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का नुकसान होता है।
    • उदाहरण के लिए: महिला विकास अध्ययन केंद्र (2021) ने इस बात पर प्रकाश डाला कि भारत में 70% महिलाएँ अंधेरे के बाद अकेले यात्रा करने में असुरक्षित महसूस करती हैं, जिससे उनकी गतिशीलता सीमित हो जाती है।
  • शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रभाव: निरंतर सतर्कता से होने वाले दीर्घकालिक तनाव से उच्च रक्तचाप और हृदय संबंधी बीमारियों सहित विभिन्न शारीरिक स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न हो सकती हैं।

मनोवैज्ञानिक बोझ के सामाजिक निहितार्थ

  • सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भागीदारी में कमी: हिंसा और उत्पीड़न का डर महिलाओं को सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में भाग लेने से रोकता है, जिससे महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम होता है और लैंगिक असमानता बढ़ती है।
    • उदाहरण के लिए: भारत के चुनाव आयोग के वर्ष 2022 के आँकड़ों के अनुसार , लोकसभा में कुल सदस्यों में महिलाओं की संख्या केवल 14% है, जो उनकी सीमित भागीदारी को दर्शाता है।
  • आर्थिक प्रभाव : सुरक्षा संबंधी चिंताओं के कारण महिलाओं की सीमित गतिशीलता और रोजगार के अवसरों के परिणामस्वरूप आर्थिक योगदान कम हो जाता है और निर्भरता दर बढ़ जाती है।
  • लैंगिक रूढ़िवादिता: निरंतर सतर्कता से पारंपरिक लैंगिक भूमिकाएँ सुदृढ़ होती हैं, जहाँ महिलाओं को कमजोर और संरक्षण की आवश्यकता वाली वस्तु समझा जाता है, जिससे पितृसत्तात्मक मानदंड कायम रहते हैं।
  • सार्वजनिक संसाधनों पर दबाव: सुरक्षा चिंताओं के कारण सुरक्षा और निगरानी की बढ़ती आवश्यकता ,सार्वजनिक संसाधनों और कानून प्रवर्तन पर अतिरिक्त दबाव डालती है।
    • उदाहरण के लिए: गृह मंत्रालय (2022) के अनुसार, शहरी क्षेत्रों में महिला सुरक्षा कार्यक्रमों पर ₹500 करोड़ से अधिक खर्च किए गए, जो संसाधन पर दवाव को उजागर करता है।
  • सामाजिक प्रगति में बाधा : सुरक्षा चिंताओं के कारण महिलाओं द्वारा सामना किए जाने वाले भय और प्रतिबंध, समानता और विकास की दिशा में सामाजिक प्रगति में बाधा डालते हैं।
    • उदाहरण के लिए: WEF ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट 2023 में भारत को 156 देशों में से 127वें स्थान पर रखा गया है, जो लैंगिक समानता की दिशा में धीमी प्रगति को दर्शाता है, जिसका आंशिक कारण सुरक्षा संबंधी चिंताएँ हैं।

प्रमुख चुनौतियाँ 

  • अपर्याप्त कानून प्रवर्तन: प्रभावी पुलिसिंग का अभाव और विलंबित न्यायिक प्रक्रिया, महिलाओं में निरंतर भय और असुरक्षा को बढ़ावा देती है।
  • सांस्कृतिक मानदंड और दृष्टिकोण: पितृसत्तात्मक मानदंड लैंगिक पूर्वाग्रहों को कायम रखते हैं, जिससे महिलाओं की सुरक्षा और स्वायत्तता के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण को बदलना मुश्किल हो जाता है।
  • बुनियादी ढाँचे का अभाव: खराब रोशनी वाली सड़कें, अपर्याप्त सार्वजनिक परिवहन, तथा शहरों और कस्बों में सुरक्षित स्थानों का अभाव महिलाओं हेतु सुरक्षा संबंधी चिंताओं को बढ़ाता है।
  • अपर्याप्त जागरूकता कार्यक्रम : लैंगिक समानता और महिला अधिकारों के संबंध में समुदायों को शिक्षित करने के लिए व्यापक जन जागरूकता अभियानों का अभाव है।
  • आर्थिक असमानताएँ: आर्थिक असमानताएँ महिलाओं के लिए (विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में) सुरक्षा संसाधनों और सहायता प्रणालियों तक पहुँच को बाधित करती हैं।
    • उदाहरण के लिए: वर्ष 2023 के आर्थिक सर्वेक्षण में पाया गया कि पुरुष आकस्मिक कर्मचारी महिलाओं की तुलना में प्रति घंटे 23% अधिक कमाते हैं।

आगे की राह

  • कानूनी ढाँचे को मजबूत बनाना: सख़्त कानून और तीव्र न्यायिक प्रक्रिया लागू करने से महिलाओं की सुरक्षा बढ़ सकती है और उनका मनोवैज्ञानिक बोझ कम हो सकता है।
    • उदाहरण के लिए: निर्भया फंड के तहत स्थापित फास्ट -ट्रैक कोर्ट ने महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों में समय पर न्याय देने में कुछ सकारात्मक परिणाम दिखाये है।
  • शहरी बुनियादी ढाँचे में सुधार: अच्छी रोशनी वाली सड़कें, विश्वसनीय सार्वजनिक परिवहन और सुरक्षित सार्वजनिक स्थल विकसित करने से महिलाओं की सुरक्षा संबंधी चिंताओं को कम करने में मदद मिल सकती है।
  •  लिंग संवेदनशीलता कार्यक्रमों को बढ़ावा देना: लिंग समानता और महिला अधिकारों के बारे में समुदायों को शिक्षित करने से सामाजिक दृष्टिकोण बदलने और लिंग आधारित हिंसा को कम करने में मदद मिल सकती है।
    • उदाहरण के लिए: ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ अभियान, लिंग समानता और महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने में सफल रहा है।
  • आर्थिक अवसरों में वृद्धि: महिलाओं को समान रोजगार के अवसर और वित्तीय स्वतंत्रता प्रदान करने से उनकी निर्भरता कम हो सकती है और उन्हें सशक्त बनाया जा सकता है।
    • उदाहरण के लिए: ‘स्टैंड अप इंडिया’ योजना महिला उद्यमियों का समर्थन करती है, जिससे उन्हें वित्तीय स्वतंत्रता और सुरक्षा प्राप्त करने में मदद मिलती है।
  • सामुदायिक पुलिसिंग को प्रोत्साहित करना: पुलिसिंग में समुदाय के सदस्यों को शामिल करने से सतर्कता बढ़ सकती है और महिलाओं के लिए सुरक्षित माहौल बन सकता है।
    • उदाहरण के लिए: ‘महिला पुलिस स्वयंसेवक योजना’ महिलाओं को सामुदायिक सुरक्षा और संरक्षण बढ़ाने के लिए पुलिस के साथ कार्य करने के लिए प्रोत्साहित करती है।

महिलाओं के लिए सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित करने के लिए, भारत को बहुआयामी दृष्टिकोणों को प्राथमिकता देनी चाहिए जो मनोवैज्ञानिक और शारीरिक सुरक्षा दोनों चिंताओं को संबोधित करते हों कानूनी ढाँचे, शहरी बुनियादी ढाँचे, जागरूकता कार्यक्रमों और आर्थिक अवसरों को बढ़ाकर , भारत एक ऐसे भविष्य की दिशा में कार्य कर सकता है जहाँ महिलाएँ निरंतर सतर्कता के मनोवैज्ञानिक बोझ से मुक्त हों और समाज के सभी पहलुओं में पूरी तरह से भाग ले सकें।

 

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