Q. लोकतांत्रिक व्यवस्था में शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत आवश्यक है। 'नियंत्रण और संतुलन' की अवधारणा पर जोर देते हुए भारत में इसके महत्व पर चर्चा कीजिए। (15 अंक, 250 शब्द) अतिरिक्त

उत्तर:

दृष्टिकोण:

  • प्रस्तावना: भारतीय संघ में शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत के बारे में लिखिए।।
  • मुख्य विषयवस्तु:
    • भारत की शक्ति पृथक्करण के चरित्र पर प्रकाश डालिए।
    • जाँच या नियंत्रण एवं संतुलन के महत्व के बारे में लिखिए ।
  • निष्कर्ष: उपरोक्त बिंदुओं के आधार पर उचित निष्कर्ष निकालिए।

 

प्रस्तावना:

शक्तियों का पृथक्करण एक सिद्धांत है जो सरकार के कार्यों और शक्तियों को अलग-अलग शाखाओं, अर्थात् विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में विभाजित करता है। यह विभाजन यह सुनिश्चित करता है कि सत्ता के दुरुपयोग को रोकने के लिए किसी एक शाखा के पास पूर्ण नियंत्रण और अधिकार नहीं है।

मुख्य विषयवस्तु:

भारत में शक्तियों के पृथक्करण का कड़ाई से पालन नहीं किया जाता है जैसा कि भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधानों से स्पष्ट है।

  • प्रमुख पदों की नियुक्ति: राष्ट्रपति द्वारा प्रतिनिधित्व की जाने वाली कार्यकारी शाखा, प्रधान मंत्री और मंत्रिपरिषद के अन्य सदस्यों की नियुक्ति करती है, जो विधायी शाखा के कामकाज को प्रभावित करती है। यह शक्ति कार्यपालिका को विधायी शाखा के कामकाज पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालने की अनुमति देती है।
  • विधान में कार्यपालिका की भागीदारी: किसी विधेयक को कानून बनाने के लिए राष्ट्रपति की सहमति आवश्यक है, जिससे कार्यपालिका को विधायी प्रक्रिया में भूमिका मिलती है।
  • न्यायिक समीक्षा: न्यायपालिका न्यायिक समीक्षा की शक्ति का प्रयोग करती है, जिससे यह विधायी क्षेत्र का अतिक्रमण करते हुए कानूनों या कार्यकारी कार्यों को असंवैधानिक घोषित करने में सक्षम हो जाती है।

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  • न्यायिक सक्रियता: न्यायपालिका कभी-कभी व्याख्या से परे जाकर कानून बनाने और कार्यान्वयन में लग जाती है। दूसरे शब्दों में कहें तो न्यायिक सक्रियता नागरिकों के अधिकारों की रक्षा में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका को दर्शाती है। उदाहरण के लिए पुराने डीजल वाहनों पर प्रतिबंध लगाने और राजमार्गों पर शराब की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने जैसे मामलों में यह देखा गया है।
  • न्यायाधीशों के आचरण पर विधायिका में चर्चा नहीं की जा सकती, जिससे न्यायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित होती है और विधायकों को अपने भाषण और वोट के लिए अदालती सवालों से छूट मिलती है, जिससे संसदीय विशेषाधिकार की रक्षा होती है।

यह सुनिश्चित करता है कि किसी भी एक शाखा के पास अनियंत्रित प्राधिकार नहीं है। प्रत्येक शाखा अपने निर्दिष्ट क्षेत्र के भीतर संचालित होती है। यह सिद्धांत इस विश्वास पर आधारित है कि शक्ति को एक व्यक्ति या समूह में केंद्रित करने से दुरुपयोग हो सकता है और सिद्धांत कमजोर हो सकता है।

भारत में जाँच और संतुलन का महत्व: 

  • लोकतंत्र की सुरक्षा: शक्तियों का पृथक्करण लोकतांत्रिक व्यवस्था (उदाहरण के लिए, भारत की विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका) को बनाए रखते हुए, सत्ता के संकेन्द्रण को रोकता है।
  • जाँच और संतुलन: विधायिका के प्रति कार्यकारी जवाबदेही को बजट अनुमोदन में देखा जाता है, जिससे पारदर्शिता सुनिश्चित होती है।
  • मौलिक अधिकारों की सुरक्षा: न्यायपालिका की न्यायिक समीक्षा अधिकारों की रक्षा करती है (उदाहरण के लिए, समलैंगिक संबंधों को अपराध से मुक्त करना)।
  • प्रभावी शासन: प्रत्येक शाखा अपने कार्य में विशेषज्ञता रखती है, जिससे कुशल शासन प्राप्त होता है।
  • संवैधानिक स्थिरता: शक्तियों का पृथक्करण संवैधानिक ढांचे की अखंडता को बनाए रखता है।
  • न्यायिक स्वतंत्रता की सुरक्षा: शक्तियों का पृथक्करण न्यायपालिका द्वारा निष्पक्ष निर्णय सुनिश्चित करता है।
  • भ्रष्टाचार का शमन: जाँच और संतुलन से जवाबदेही बनती है, जिससे भ्रष्टाचार के जोखिम कम होते हैं।
  • विधायी निरीक्षण को बढ़ावा: शक्तियों का पृथक्करण विधायिका द्वारा कार्यपालिका की प्रभावी जांच की अनुमति देता है।
  • विशेषज्ञता की सुविधा: प्रत्येक शाखा की विशेषज्ञता निर्णय लेने और विशेषज्ञता को बढ़ाती है।
  • संघवाद का संरक्षण: शक्तियों का पृथक्करण केंद्र और राज्य सरकार की शक्तियों को संतुलित करता है।
  • कार्यकारी अतिरेक के खिलाफ सुरक्षा: एक शाखा को हावी होने से रोकता है और शक्ति के दुरुपयोग के खिलाफ सुरक्षा करता है।
  • सार्वजनिक विश्वास को बढ़ावा देना: शक्तियों का पृथक्करण लोकतांत्रिक संस्थानों में विश्वास, पारदर्शिता को बढ़ावा देता है और सत्तावादी शासन को रोकता है।

निष्कर्ष:

मिनर्वा मिल्स मामले के बाद नियंत्रण और संतुलनका सिद्धांत प्रमुख हो गया, जहां न्यायपालिका ने माना कि न्यायिक समीक्षा संविधान की एक बुनियादी विशेषता है। कुल मिलाकर, यह सुनिश्चित करता है कि राज्य का कोई भी अंग इतना शक्तिशाली न हो जाए जिसे संवैधानिक ढांचे में अन्य अंगों द्वारा समाहित न किया जा सके।

 

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