Q. भारत के उच्चतम न्यायालय ने अधिकार-आधारित मुद्दों पर निर्णय देने में मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में 'संवैधानिक नैतिकता' का उपयोग तेजी से किया है। हालिया निर्णयों के आलोक में सामाजिक नैतिकता और व्यक्तिगत अधिकारों को संतुलित करने में इसकी भूमिका की आलोचनात्मक जाँच कीजिए। (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • इस बात पर प्रकाश डालिये कि किस प्रकार भारत के उच्चतम न्यायलय  ने अधिकार-आधारित मुद्दों पर निर्णय देने में ‘संवैधानिक नैतिकता’ को मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में तेजी से उपयोग किया है।
  • हाल के निर्णयों के उदाहरणों के साथ सामाजिक नैतिकता और व्यक्तिगत अधिकारों के बीच संतुलन बनाने में इसकी सकारात्मक भूमिका का परीक्षण कीजिए।
  • हालिया निर्णयों के उदाहरणों के साथ सामाजिक नैतिकता और व्यक्तिगत अधिकारों के बीच संतुलन बनाने में इसकी कमियों का परीक्षण कीजिए।
  • आगे की राह लिखिये।

उत्तर

संवैधानिक नैतिकता का तात्पर्य व्यक्तिगत अधिकारों और सामाजिक मानदंडों के बीच संतुलन बनाए रखते हुए संवैधानिक सिद्धांतों, विधि शासन और संस्थागत अखंडता का पालन करना है। जॉर्ज ग्रोट के संवैधानिक रूपों के प्रति श्रद्धा के विचार में निहित, यह भारत के उच्चतम न्यायलय  का मार्गदर्शन करता है। हालाँकि, इसकी व्यक्तिपरक व्याख्या, न्यायिक अतिक्रमण और सामाजिक स्वीकृति के संबंध में चिंताएँ उत्पन्न करती है।

अधिकार-आधारित मुद्दों में उच्चतम न्यायलय  द्वारा ‘संवैधानिक नैतिकता’ का उपयोग

  • असंवैधानिक कानूनों को खत्म करना: उच्चतम न्यायलय  ने मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कानूनों को खत्म करने के लिए संवैधानिक नैतिकता का सहारा लिया है, यह सुनिश्चित करते हुए कि कानूनी प्रावधान संविधान की प्रगतिशील भावना के अनुरूप हों। 
    • उदाहरण के लिए: नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018) ने धारा 377 को अपराध से मुक्त कर दिया और परंपरागत सार्वजनिक नैतिकता के बजाय व्यक्तिगत गरिमा को कायम रखते हुए LGBTQ + अधिकारों को मान्यता दी।
  • लैंगिक समानता सुनिश्चित करना: न्यायालय ने महिलाओं के अधिकारों को बनाए रखने के लिए संवैधानिक नैतिकता का उपयोग किया है  और सामाजिक परंपराओं व धार्मिक मान्यताओं के आधार पर लैंगिक भेदभावपूर्ण प्रथाओं को समाप्त किया है। 
    • उदाहरण के लिए: इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन बनाम केरल राज्य (2018) वाद में पितृसत्तात्मक धार्मिक रीति-रिवाजों के बजाय लैंगिक समानता को प्राथमिकता देते हुए, सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति दी गई।
  • वैवाहिक स्वायत्तता की रक्षा: संवैधानिक नैतिकता पर बल देकर, न्यायालय ने विवाह में व्यक्तिगत पसंद की रक्षा की है और स्वायत्तता को सीमित करने वाले सामाजिक या धार्मिक मानदंडों को दरकिनार कर दिया है। 
    • उदाहरण के लिए: शफीन जहान बनाम अशोकन केएम (2018) वाद में हादिया के अपनी पसंद के व्यक्ति से विवाह करने के अधिकार को बरकरार रखा गया और व्यक्तिगत निर्णयों में राज्य के अनियंत्रित हस्तक्षेप को खारिज कर दिया।
  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विस्तार: न्यायालय ने वाक् स्वतंत्रता के लिए संवैधानिक नैतिकता को लागू किया है, यह सुनिश्चित करते हुए कि कानूनी प्रतिबंध बहुसंख्यक भावनाओं के बजाय संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप हों।
    • उदाहरण के लिए: श्रेया सिंघल बनाम भारत संघ (2015) वाद IT अधिनियम की धारा 66A को रद्द कर दिया, जिससे असहमति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन करने के लिए इसके दुरुपयोग पर रोक लग गई।
  • व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कायम रखना: संवैधानिक नैतिकता ने गोपनीयता की रक्षा करने में न्यायालय का मार्गदर्शन किया है, यह सुनिश्चित किया है कि राज्य शक्ति की व्यापक व्याख्याओं के तहत व्यक्तिगत अधिकारों से समझौता न किया जाए। 
    • उदाहरण के लिए: न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) वाद में गोपनीयता को मौलिक अधिकार घोषित किया तथा राज्य की अनुचित निगरानी से व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा की गई।

सामाजिक नैतिकता और व्यक्तिगत अधिकारों के बीच संतुलन बनाने में सकारात्मक भूमिका

  • बहुसंख्यक नैतिकता को निष्प्रभावी बनाना: संवैधानिक मूल्यों को प्राथमिकता देकर, न्यायालय ने यह सुनिश्चित किया है कि अल्पसंख्यकों के अधिकार बरकरार रहें, तथा बदलती जन भावनाओं के आधार पर कानून बनाने पर रोक लगाई जा सके।
  • आस्था और समानता में सामंजस्य स्थापित करना: न्यायालय ने धार्मिक स्वतंत्रता और समानता के अधिकार के बीच संतुलन स्थापित करने के लिए संवैधानिक नैतिकता का उपयोग किया है, तथा यह सुनिश्चित किया है कि आस्था आधारित प्रथाएं मौलिक अधिकारों का उल्लंघन न करें।
  • मनमाने सरकारी कार्यवाई पर अंकुश लगाना: यह सुनिश्चित करके कि कानून लोकलुभावन दावो के बजाय संवैधानिक सिद्धांतों का पालन करते हैं, व्यक्तिगत स्वतंत्रता में
    राज्य के अतिक्रमण को रोकता है। 

    • उदाहरण के लिए: पुट्टस्वामी निर्णय (2017) ने गोपनीयता अधिकारों को सुरक्षित करते हुए, बिना सहमति के व्यक्तिगत डेटा एकत्र करने की सरकार की शक्ति को सीमित कर दिया।
  • लोकतांत्रिक मूल्यों को मजबूत करना: कानून के शासन पर बल देकर, न्यायालय सत्ता के दुरुपयोग को रोकता है और भीड़ के शासन या राजनीतिक स्वार्थ पर संवैधानिक शासन को मजबूत करता है। 
    • उदाहरण के लिए: श्रेया सिंघल वाद (2015) ने यह सुनिश्चित किया कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने वाले कानूनों की संवैधानिकता की जाँच की जाए, जिससे मनमाने अपराधीकरण को रोका जा सके।
  • सुधार और स्थिरता में संतुलन: संवैधानिक नैतिकता कानूनी निरंतरता और विकास सुनिश्चित करती है तथा परंपराओं का सम्मान करते हुए मौलिक अधिकारों के विपरीत प्रथाओं में सुधार करती है। 
    • उदाहरण के लिए: जोसेफ शाइन बनाम भारत संघ (2018) ने व्यभिचार को अपराध से मुक्त कर दिया, तथा यह सुनिश्चित किया कि विवाह पुराने लैंगिक पूर्वाग्रहों के बजाय समानता पर आधारित हो।

सामाजिक नैतिकता और व्यक्तिगत अधिकारों के बीच संतुलन की कमियाँ

  • न्यायिक अतिक्रमण की चिंताएँ: न्यायालयों को विधायी अधिकार को दरकिनार करते हुए संवैधानिक नैतिकता पर आधारित कानूनों को अमान्य करके अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाते हुए देखा जा सकता है। 
    • उदाहरण के लिए: सबरीमाला मंदिर प्रवेश वाद (2018) में सभी उम्र की महिलाओं को मंदिर में प्रवेश की अनुमति दी गई, लेकिन जनता के कड़े विरोध के कारण न्यायिक अतिक्रमण पर प्रश्न उठाते हुए कानूनी और राजनीतिक संघर्ष भी हुये।
  • आवेदन में अस्पष्टता: सटीक परिभाषा की कमी व्यक्तिपरक न्यायिक व्याख्याओं को अनुमति देती है, जिससे असंगत निर्णय और अधिकार न्यायनिर्णयन में अनिश्चितता उतपन्न होती है। 
    • उदाहरण के लिए: नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018) ने समलैंगिक संबंधों को अपराध से मुक्त कर दिया, लेकिन बाद के फैसलों, जैसे विवाह समता वाद (2023) ने समलैंगिक विवाह को नकार दिया, जो अधिकारों की व्याख्या में असंगतता दर्शाता है।
  • धार्मिक अधिकारों के साथ संघर्ष: संवैधानिक नैतिकता को लागू करने से धार्मिक रीति-रिवाजों को दरकिनार किया जा सकता है, जिससे कानूनी आदेशों और धार्मिक स्वतंत्रता के बीच तनाव उत्पन्न हो सकता है।
  • सीमित सामाजिक स्वीकृति: कानूनी मान्यता हमेशा सामाजिक स्वीकृति में तब्दील नहीं होती, जिससे प्रगतिशील निर्णयों का प्रतिरोध और अप्रभावी कार्यान्वयन होता है। 
    • उदाहरण के लिए: ट्रिपल तलाक केस (2019) में तत्काल ट्रिपल तलाक को असंवैधानिक घोषित किए जाने के बावजूद, कुछ समुदायों में ये अभी भी जारी है, जो सामाजिक प्रतिरोध को दर्शाता है।
  • प्रवर्तन में राज्य की अनिच्छा: राजनीतिक और सामाजिक दबाव के कारण कार्यपालिका, संवैधानिक नैतिकता पर आधारित निर्णयों को लागू करने में हिचकिचा सकती है।

आगे की राह 

  • स्पष्ट न्यायिक ढाँचा: न्यायालयों को संवैधानिक नैतिकता को लागू करने के लिए संरचित दिशा-निर्देश विकसित करने चाहिए ताकि स्थिरता सुनिश्चित हो सके और व्यक्तिपरक व्याख्याओं से बचा जा सके। 
    • उदाहरण के लिए: मूल संरचना के सिद्धांत के समान एक सुपरिभाषित ढाँचा, नवतेज सिंह जौहर (2018 ) जैसे वाद में देखे गए विरोधाभासों को रोक सकता है।
  • सुधारों के लिए विधायी समर्थन: विवादास्पद मुद्दों पर संसद द्वारा पारित कानून, संवैधानिक नैतिकता को सुदृढ़ कर सकते हैं जिससे व्यापक वैधता और स्वीकृति सुनिश्चित होती है। 
    • उदाहरण के लिए: ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 ने NALSA बनाम भारत संघ (2014) द्वारा लैंगिक पहचान को मान्यता दिए जाने के बाद ट्रांस अधिकारों के लिए कानूनी समर्थन प्रदान किया।
  • सार्वजनिक सहभागिता और जागरूकता: सामाजिक स्वीकृति के लिए न्यायिक निर्णयों को सामाजिक समझ के साथ संरेखित करने हेतु संवाद और संवेदनशीलता की आवश्यकता होती है।
  • क्रमिक सामाजिक सुधार: न्यायालयों को सामाजिक अनुकूलन के साथ अधिकारों के प्रवर्तन को संतुलित करने के लिए निर्णयों के चरणबद्ध कार्यान्वयन को प्रोत्साहित करना चाहिए। 
    • उदाहरण के लिए: शायरा बानो बनाम भारत संघ (2017) वाद में, न्यायालय ने संसद को तत्काल सामाजिक परिवर्तन लागू करने के बजाय मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए कानून बनाने का सुझाव दिया।
  • मजबूत कार्यकारी भूमिका: सरकारों को नीतिगत उपायों और संवाद के माध्यम से जनता के आक्रोश को कम करते हुए निर्णयों को सक्रिय रूप से लागू करना चाहिए।

संवैधानिक नैतिकता न्याय की संरक्षक है, जो व्यक्तिगत अधिकारों और सामाजिक नैतिकता के बीच एक संवेदनशील संतुलन सुनिश्चित करती है। न्यायिक स्पष्टता को मजबूत करना, सार्वजनिक संवाद को बढ़ावा देना और शासन में संवैधानिक मूल्यों को शामिल करना, इसकी प्रभावकारिता को बढ़ाएगा। एक सामंजस्यपूर्ण लोकतंत्र का निर्माण तब होता है जब प्रगतिशील व्याख्याएँ सामाजिक लोकाचार को अलग किए बिना अधिकारों को बनाए रखती हैं और सभी  के लिए न्याय, स्वतंत्रता और गरिमा सुनिश्चित करती हैं।

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