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निबंध लिखने का दृष्टिकोण
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यह उद्धरण जर्मन दार्शनिक मार्टिन हाइडेगर का है। हाइडेगर का कार्य मुख्य रूप से अस्तित्ववादी दर्शन और अस्तित्व की प्रकृति से संबंधित है। यह उद्धरण वर्णित करता है कि लोग अनेक संभावनाओं और संभावित पहचानों के साथ जन्म लेते हैं, लेकिन जीवन के दौरान, विकल्प और अनुभव इन्हें सीमित कर देते हैं, जिससे मृत्यु के समय मनुष्य को एक एकल, परिभाषित पहचान प्राप्त होती है।
अगर आज आपको स्वयं को पहचानना हो, तो आप ऐसा किस प्रकार करेंगे? प्रत्येक मनुष्य अनेक पहचानों से परिभाषित होता है, कुछ उसने स्वयं चुनी होती हैं, तथा कुछ उसे दी जाती हैं। जब एक बच्चे का जन्म होता है, तो वह अकल्पनीय क्षमताओं के साथ जन्म लेता है और जैसे–जैसे वह वयस्क होता है, उसकी पहचान में अनेक परतें जुड़ती जाती हैं। हालाँकि, जब वे मृत्यु को प्राप्त होते हैं तो क्या होता है? क्या वे एक ही पहचान के साथ मृत्यु को प्राप्त होते हैं, अथवा क्या वे अपने जीवन में अर्जित विभिन्न पहचानों को अपने साथ लेकर चलते हैं?
मनुष्य का जीवन व्यक्तिगत पहचान और अस्तित्व की यात्रा है। जन्म के समय, एक व्यक्ति में जीवन भर आगे बढ़ने, बदलने और विभिन्न भूमिकाएँ और पहचान अपनाने की क्षमता होती है। हालाँकि, जीवन भर के अनुभवों और पहचानों की बहुलता के बावजूद, मृत्यु एक एकीकृत घटना है जो इन विविध भूमिकाओं और पहचानों को दूर कर देती है। मृत्यु में, व्यक्ति एक विलक्षण अवस्था में लौट जाता है, जहाँ व्यक्तित्व अब बाहरी भूमिकाओं या पहचानों द्वारा परिभाषित नहीं होता है।
बचपन में हम अपने परिवेश, माता–पिता और संस्कृति से प्रभावित होकर विभिन्न व्यक्तित्वों को अपनाने की कोशिश करते हैं। इसका उदाहरण प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक कार्ल जंग ने दिया है, उन्होंने वैयक्तिकरण की अवधारणा प्रस्तुत की, जिसमें एक व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को एक सुसंगत स्वरूप में एकीकृत करता है। अर्थात समय के साथ, अनुभवों और विकल्पों के माध्यम से, हम एक मूल पहचान विकसित करते हैं। जीवन के अंत में, कई भूमिकाएँ निभाने के बावजूद, हमें इस सार के आधार पर याद किया जाता है कि हम कौन बन गए हैं।
यह समझा जा सकता है कि जीवन में मानव की खोज विभिन्न दृष्टिकोणों से स्वयं को जानने पर आधारित होती है। सुकरात, जिन्होंने आत्म–ज्ञान की अवधारणा का अन्वेषण किया, एक दार्शनिक, सैनिक और नागरिक की भूमिका में रहे। फिर भी उनकी विलक्षण पहचान एक दार्शनिक के रूप में है, जिन्होंने सत्य और ज्ञान की खोज की, जो उनके प्रसिद्ध कथन, “स्वयं को जानिए“ में समाहित है। जन्म के समय अनंत संभावनाओं के बावजूद, मृत्यु में हमारा जीवन एक विलक्षण कथा या सार में परिवर्तित हो जाता है जो हमारे अस्तित्व को परिभाषित करता है।
जर्मनी में जन्मे अल्बर्ट आइंस्टीन को स्कूल में अपने खराब प्रदर्शन के कारण अपने परिवार में एक कुल कलंक माना जाता था। उन्होंने अपना करियर एक पेटेंट क्लर्क के रूप में शुरू किया, और अपने परिवार को आश्चर्यचकित करते हुए वे अपने सापेक्षता के सिद्धांत के साथ एक अभूतपूर्व सैद्धांतिक भौतिक विज्ञानी बन गए, जिसने दुनिया को बदल दिया जैसा कि हम जानते हैं । बाद में वे नागरिक अधिकारों और शांति के मुखर समर्थक बन गए। इससे यह स्पष्ट होता है कि किसी व्यक्ति की क्षमता पूर्व–निर्धारित नहीं होती, बल्कि समय बीतने के साथ–साथ बढ़ती है। हालाँकि, उनके विविध योगदानों के बावजूद, उन्हें सबसे महानतम वैज्ञानिक मस्तिष्क में से एक के रूप में विलक्षण रूप से याद किया जाता है, जो जिज्ञासा और बुद्धि की शक्ति का प्रतीक है।
समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो व्यक्ति विभिन्न सामाजिक भूमिकाओं का निर्वहन करते हैं जो उनकी पहचान को आकार देती हैं– बच्चा, छात्र, कर्मचारी, साथी, आदि। मृत्यु के बाद, अक्सर, किसी व्यक्ति के सामाजिक योगदान और समाज पर उनके द्वारा किए गए प्रभाव उनकी एकमात्र विरासत बन जाते हैं। ऐसा ही एक उदाहरण हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी हैं। उनकी विरासत, हालांकि बहुआयामी है, मुख्य रूप से अहिंसक प्रतिरोध और नैतिक नेतृत्व के प्रतीक के रूप में उनकी पहचान में समाहित है, जबकि पिता, जीवनसाथी, पुत्र आदि के रूप में उनकी सामाजिक और व्यक्तिगत पहचान पर कम चर्चा होती है।
जीन–पॉल सार्त्र जैसे अस्तित्ववादी तर्क देते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति जीवन की शुरुआत अनेक संभावनाओं के साथ करता है साथ ही उसे अपने भाग्य को आकार देने की मौलिक स्वतंत्रता होती है, लेकिन इस स्वतंत्रता के साथ हमारे निर्णयों के लिए जिम्मेदारी का बोझ भी आता है। जैसे–जैसे हम वयस्क होते हैं, हम अपने अनुभवों, रिश्तों और प्रतिबिंबों के माध्यम से एक अधिक सुसंगत पहचान बनाना शुरू करते हैं।
हाइडेगर की “अस्तित्व“ की अवधारणा प्रामाणिक रूप से जीवन व्यतीत करने, स्वयं की वैयक्तिकता को अपनाने और स्वयं की नश्वरता (अस्तित्व–मृत्यु की ओर) को पहचानने के महत्व पर बल देती है। इस प्रकार, अंत में, मृत्यु व्यक्ति द्वारा किए गए विविध अनुभवों और भूमिकाओं के लिए एक एकीकृत निष्कर्ष लाती है। अलास्डेयर मैकइंटायर जैसे दार्शनिकों ने जीवन के विचार पर एक कथा के रूप में चर्चा की है। किसी व्यक्ति के जीवन का टेलोस (उद्देश्य या अंत) विभिन्न प्रकरणों और भूमिकाओं को सुसंगति प्रदान करता है, तथा उनके अस्तित्व को अर्थ प्रदान करता है।
हालाँकि, मृत्यु के समय यह विलक्षणता हमेशा संभव नहीं हो सकती है। आधुनिक मनोविज्ञान यह मानता है कि व्यक्ति प्रायः जटिल, परिवर्तनशील पहचान बनाए रखते हैं। लोग एक साथ अपने व्यक्तित्व की कई भूमिकाएँ और पहलुओं को आत्मसात कर सकते हैं, और ये विकसित होते रह सकते हैं। मृत्यु के समय “एकल स्व“ की अवधारणा मानव पहचान की सतत जटिलता को अतिसरलीकृत कर सकती है।
कार्ल जंग के सामूहिक अचेतन और आर्कटाइप्स के सिद्धांत से पता चलता है कि व्यक्ति कई अलग–अलग पहलुओं और व्यक्तित्वों से बने होते हैं, जैसे कि छाया, एनिमा/एनिमस और व्यक्तित्व। ये पहलू एक व्यक्ति के जीवन भर एक साथ रह सकते हैं और एक दूसरे से जुड़ सकते हैं, न कि एक एकीकृत पहचान में बदल सकते हैं। यहां तक कि सामाजिक रूप से भी लोग विभिन्न सामाजिक भूमिकाएं निभाते हैं, जो एक ही पहचान में विलीन हुए बिना भी सह–अस्तित्व में रह सकती हैं। सामाजिक मानदंडों और व्यक्तिगत परिस्थितियों में बदलाव के कारण सामाजिक भूमिकाएँ तेज़ी से बदल सकती हैं, जो यह सुझाव देती हैं कि व्यक्ति की पहचान बहुआयामी बनी रहती है।
इसी प्रकार, गिल्स डेल्यूज़ और फेलिक्स गुआटारी जैसे दार्शनिक बहुलता की अवधारणा के पक्ष में तर्क देते हैं, जहां व्यक्तियों को विभिन्न प्रभावों और अनुभवों के समूह के रूप में देखा जाता है, जो जरूरी नहीं कि एक ही पहचान में परिवर्तित हो जाएं। एकल मनुष्यों की पहचान की ऐसी बहुलता को प्रायः साहित्यिक और सिनेमाई रूप में चित्रित किया जाता है, जो हमारे समाजों का प्रतिबिंब मात्र है।
लियो टॉल्स्टॉय के “वॉर एंड पीस“ में पियरे बेजुखोव और नताशा रोस्तोवा जैसे पात्र महत्वपूर्ण परिवर्तनों से गुजरते हैं और विभिन्न भूमिकाओं का निर्वहन करते हैं। उपन्यास के अंत में भी, वे अपनी जटिलता को बनाए रखते हैं, यह दर्शाता है कि मानव की पहचान बहुआयामी बनी हुई है।
किसी व्यक्ति के भौतिक अस्तित्व के अतरिक्त , उसकी आध्यात्मिक पहचान भी उसके सच्चे स्वरूप को परिभाषित करने में मौलिक है। हिंदू दर्शन के षड दर्शन सहित कई आध्यात्मिक परंपराएं आत्मा को एक जटिल इकाई के रूप में देखती हैं जिसे आसानी से एक पहचान में बांधा नहीं जा सकता है। पुनर्जन्म या आत्मा की अनेक जन्मों की यात्रा में विश्वास यह सुझाव देता है कि पहचान एक जीवनकाल से परे भी बहुआयामी बनी रहती है। इस प्रकार, यह सुझाव दिया जा सकता है कि पहचान परिवर्तनशील, बहुआयामी और विकासशील बनी रह सकती है, जो जीवन के अंत में एकल, एकीकृत आत्म की धारणा को चुनौती दे सकती है।
इस प्रकार किसी की पहचान की विलक्षणता व्यक्तिपरक और व्याख्या के लिए निर्बाध रहती है। हालाँकि, एक चीज़ जो स्थिर रहती है वह है मनुष्य के बढ़ने और विकसित होने की क्षमता। प्रत्येक प्रत्येक मनुष्य की यात्रा स्वाभाविक रूप से विशिष्ट होती है और व्यक्तिगत अनुभव, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, रिश्ते और व्यक्तिगत विकल्पों सहित कई कारकों द्वारा निर्धारित होती है। व्यक्तिगत विकास और आत्म–साक्षात्कार के लिए इस विशिष्टता को पहचानना और बढ़ावा देना महत्वपूर्ण हो जाता है।
इसके लिए शिक्षा प्राथमिक साधन बन जाती है। कला, विज्ञान और मानविकी को संतुलित तरीके से शामिल करके रचनात्मकता और आलोचनात्मक सोच को प्रोत्साहन देना आवश्यक है। मारिया मोंटेसरी का शैक्षिक दृष्टिकोण व्यक्तिगत शिक्षा पर जोर देता है, जहां बच्चे अपनी गति से अन्वेषण और सीखने के लिए स्वतंत्र होते हैं, जिससे स्वतंत्रता और सीखने के लिए स्वाभाविक प्रेम दोनों को बढ़ावा मिलता है।
इसके अतिरिक्त, व्यक्तियों को अपनी विविध क्षमताओं का पता लगाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। यह न केवल आत्म–खोज और आत्म–साक्षात्कार के लिए मार्ग खोलता है, बल्कि मानवता में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए भी आवश्यक है। उदाहरण के लिए, जब लियोनार्डो दा विंची जैसे लोगों को, जो एक बहुश्रुत व्यक्ति थे, कला, विज्ञान और इंजीनियरिंग जैसे विभिन्न क्षेत्रों में अन्वेषण करने में सहायता की गई, तो उन्होंने कई क्षेत्रों में अभूतपूर्व योगदान दिया, जिससे मानवता आधुनिक युग में आगे बढ़ी।
मृत्यु सभी सार्वभौमिक सत्यों में सबसे मौलिक सत्य है। जबकि हम मृत्यु को किसी व्यक्ति की सभी मौजूदा पहचानों और क्षमताओं के अंत के रूप में देखते हैं, जीवन में व्यक्ति द्वारा बनाई गई विरास आगे बढ़ती रहती है। इस प्रकार मानव क्षमता असीम है और किसी व्यक्ति के निधन के बाद भी वह अपने विचारों, योगदानों और विरासत के स्थायी प्रभाव के माध्यम से विकसित हो सकती है तथा विश्व को प्रभावित कर सकती है।
एलन ट्यूरिंग एक ब्रिटिश गणितज्ञ, तर्कशास्त्री और क्रिप्ट विश्लेषक थे जिनके कार्य ने कंप्यूटर विज्ञान के आधारभूत सिद्धांतों की नींव रखी। इनके द्वारा आविष्कृत ट्यूरिंग मशीन की अवधारणा ने गणना और एल्गोरिदम को समझने के लिए एक सैद्धांतिक ढांचा प्रदान किया। यद्यपि ट्यूरिंग के योगदान को उनके जीवनकाल में उनके युद्धकालीन कार्यों की गोपनीयता और उनके द्वारा सामना किए गए सामाजिक पूर्वाग्रहों के कारण पूरी तरह से मान्यता नहीं मिली, फिर भी उनके विचार आज तक एआई, मशीन लर्निंग और कम्प्यूटेशनल सिद्धांत में अनुसंधान को प्रभावित करते रहे हैं। मानवीय विचार प्रक्रियाओं का अनुकरण करने वाली मशीनों का उनका दृष्टिकोण आज भी AI विकास के लिए एक मार्गदर्शक सिद्धांत बना हुआ है।
गांधीजी, सुकरात, ट्यूरिंग, आइंस्टीन और शेक्सपियर की तरह, इतिहास ऐसी हस्तियों से भरा पड़ा है जो यह उदाहरण देते हैं कि किसी व्यक्ति का योगदान किस प्रकार उसके निधन के काफी समय बाद भी बढ़ता, प्रेरित करता और भविष्य को आकार देता रहता है। यह सतत प्रभाव मानव क्षमता की गहन और स्थायी प्रकृति को दर्शाता है, तथा यह सुझाव देता है कि यद्यपि व्यक्ति अंततः मर सकता है, परन्तु उसकी विरासत अनिश्चित काल तक विकसित और फलती–फूलती रह सकती है।
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