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दृष्टिकोण
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अर्जुन का कर्त्तव्य महाभारत का युद्ध लड़ना था । वह अपने समय का सबसे कुशल योद्धा था और जिस कारण से वह लड़ रहा था, वह भी उचित था। फिर भी, जब वह कौरवों की सेना का सामना करने के लिए खड़ा हुआ, जिसमें कोई और नहीं, बल्कि उसका अपना परिवार, शिक्षक और दोस्त शामिल थे, तो उसके मन में कई संदेह मंडराने लगे। यदि उसका पक्ष युद्ध जीत भी गया, तो क्या वह खुश होगा? क्या अपने धर्म का पालन करने से सुख का मार्ग नहीं मिलना चाहिए?
जैसे मोक्ष प्राप्त करना किसी के पूरे जीवन का लक्ष्य है, वैसे ही खुश रहना उसके दैनिक जीवन का लक्ष्य है। हमारा हर कार्य खुश रहने की चाहत में होता है। हालाँकि खुश रहने का लक्ष्य बहुत स्पष्ट और सरल लगता है, लेकिन सच्ची प्रसन्नता का अर्थ समझना उतना ही कठिन है। प्रसन्नता क्या है और अच्छा जीवन क्या है, यह एक ऐसा प्रश्न है जिसके बारे में हर दार्शनिक तब से सोचता रहा है जब से मानवता में चेतना का उदय हुआ है।
यह संभव हो सकता है कि समस्त धन–संपदा वाला व्यक्ति दुखी, चिंतित और निराश महसूस करता हो, जबकि जिस व्यक्ति के पास लगभग कोई भौतिक संपत्ति न हो, उसके दिल में शांति, प्रसन्नता ,और संतुष्टि हो । इस दुनिया में, जिसमें हम रहते हैं, हम अक्सर अपनी भौतिक संपत्ति, जीवन स्तर और समाज में उनकी स्थिति से खुश होने की अवधारणा को जोड़ते हैं। हालाँकि, प्रसन्नता एक बहुआयामी अवधारणा है जो इस मानदंड में फिट नहीं बैठती है।
पिछली कुछ शताब्दियों में, दुनिया ने बहुत अधिक आर्थिक प्रगति देखी है और लगभग हर देश की प्रति व्यक्ति आय के साथ-साथ जीवन स्तर में भी वृद्धि हुई है। फिर भी, जब हम आज देखते हैं, तो अवसाद, अकेलापन और अन्य मानसिक परेशानियों के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, WHO के अनुसार आज 280 मिलियन लोग अवसादग्रस्त हैं। यह संभव हो सकता है क्योंकि भौतिक प्रगति की दौड़ में, हम कहीं न कहीं सादगी और प्रामाणिकता के विचार से विमुख हो गए हैं जो किसी के जीवन में संपूर्णता लाता है।
जब किसी व्यक्ति के विचार, शब्द और कार्य एक समान होते हैं, तो वे पूर्णता और सच्चाई की भावना का प्रतीक होते हैं। चाहे बुद्ध हों या महावीर, दोनों को अपने हृदय की उन गहराईयों का एहसास हुआ जिन्हें कोई भी धन-संपत्ति नहीं भर सकती, और वे जीवन का सही अर्थ खोजने के मार्ग पर निकल पड़े। जीवन के सही अर्थ की तलाश में वर्षों तक भटकने के बाद, बुद्ध को अंततः एहसास हुआ कि दुनिया दुख से भरी हुई है और जन्म से मृत्यु तक हर चीज जीवन में दुख लाती है। दुःख का कारण इच्छा है। यह मनुष्य की इच्छाओं की पूर्ति न होना ही है जो उसे जन्म और पुनर्जन्म के दुष्चक्र में ले जाता है।
इस प्रकार, किसी को इच्छाओं की पूर्ति को प्रसन्नता के सर्वश्रेष्ठ मार्ग के रूप में नहीं जोड़ना चाहिए, बल्कि अपने आंतरिक स्व के साथ गहरा संबंध विकसित करने और संज्ञानात्मक असंगति के कारण होने वाले आंतरिक संघर्षों को कम करने के लिए प्रामाणिक रूप से जीने का प्रयास करना चाहिए। यह दर्शन हम बाद में महात्मा गांधी में देखते हैं , जिन्होंने सबसे ऊपर एक कठोर जीवन शैली और आत्मा की पवित्रता को चुना। उनके लिए, ख़ुशी तब है जब आप जो सोचते हैं, जो कहते हैं और जो करते हैं उनमें सामंजस्य हो।
हालाँकि सभी इच्छाओं को नष्ट करना अस्वाभाविक लग सकता है , लेकिन विचार इन्हें नष्ट करने का नहीं, बल्कि उन पर विजय पाने और उन्हें नियंत्रण में रखने का है। यह तभी संभव है जब हम अपने विचारों, विश्वासों और कार्यों के बीच एकरूपता स्थापित करने के लिए सचेत होकर प्रयास करें। आज, हम जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण से लड़ने की बात करते हैं , लेकिन रोजमर्रा की जिंदगी में हमारा व्यवहार हम जो मानते हैं और चाहते हैं, उसके विपरीत है। सभी प्रतिबंधों के बावजूद , हम अभी भी प्लास्टिक का उपयोग करते हैं, अपशिष्ट प्रबंधन की परवाह नहीं करते हैं, और संसाधनों के विवेकपूर्ण उपयोग की वास्तव में परवाह नहीं करते हैं। हमारा लालच हमारी ज़रूरतों पर हावी हो गया है और यह प्रति व्यक्ति उत्पन्न कचरे की मात्रा तथा कार्बन फ़ुटप्रिंट में परिलक्षित होता है, यह बढ़ती आय के साथ बढ़ता रहता है।
विचारों, शब्दों और कार्यों के बीच सामंजस्य की ऐसी कमी संज्ञानात्मक मतभेद की ओर ले जाती है जो ऐसी विसंगतियों के कारण होने वाली मानसिक परेशानी को दर्शाता है। इसके फलस्वरूप यह आंतरिक संघर्ष, चिंता और तनाव को जन्म देता है । भारत में, हम हर साल बड़ी संख्या में छात्रों को आत्महत्या करते हुए देखते हैं, एक रिपोर्ट के अनुसार 15-29 आयु वर्ग के 35 छात्र आत्महत्या करते हैं। यह न केवल दुखद है क्योंकि हम उनकी महान क्षमता को खो रहे हैं, बल्कि हम अपने छात्रों को मौलिक जीवन कौशल यानी खुश कैसे रहें, के बारे में शिक्षित करने में भी सक्षम नहीं हैं । हम एक मछली को पेड़ पर चढाने की कोशिश करते हैं और जब वह संघर्ष करती है, तो हम उसके प्रयास या प्रतिभा की कमी के लिए उसे दोषी ठहराते हैं। यह हमारी गलती है कि काल्पनिक प्रसन्नता की तलाश में हम वास्तविक प्रसन्नता का त्याग कर देते हैं।
ख़ुशी केवल एक व्यक्ति का गुण नहीं है, बल्कि यह पूरे समाज के लिए जीवन जीने का एक तरीका होना चाहिए। ऐसे समाज को, जहाँ विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता है, एक खुशहाल नागरिक वर्ग के लिए प्रयत्न करना चाहिए । यह केवल दो व्यक्तियों या वर्गों आदि के बीच स्वतंत्रता और खुलेपन के बारे में नहीं है, बल्कि सरकार और उसके नागरिकों के बीच है जो एक विश्वास आधारित एवं खुशहाल लोकतांत्रिक समाज की आधारशिला बनाता है। एक पारदर्शी, निष्पक्ष और उत्तरदायी सरकार अपने लोगों के लक्ष्यों और आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित करेगी तथा उन्हें हासिल करने में सक्षम बनाएगी।
हाल के दिनों में, हमने अपने समाज को फिर से एक खुशहाल बनाने के लिए नागरिकों और सरकारों दोनों की ओर से ऐसी जिम्मेदारीपूर्ण भूमिकाओं की आवश्यकता में वृद्धि देखी है। हम इतने सारे पूर्वाग्रहों, असमानताओं और असहिष्णुता से दबे हुए हैं कि हम अपनी भावनाओं की लहर में अपने कार्यों के परिणाम को देखने में असफल हो जाते हैं। चाहे कृत्रिम बुद्धिमत्ता का मुद्दा हो, चाहे अंतरिक्ष की दौड़ हो, चाहे भू–राजनीतिक युद्ध हो या कोई जातीय संघर्ष , चाहे आर्थिक संकट हो या चाहे जलवायु की स्थिति , आज हम अत्यधिक निराशा और असंतोष के कगार की ओर बढ़ रहे हैं ।
इस प्रकार, हमें अपने विचारों, विश्वासों और कार्यों को सामान्यतः अच्छे और अधिक मानवीय उद्देश्यों की ओर समन्वित करने की आवश्यकता है । इसकी शुरुआत व्यक्तिगत स्तर पर सुधार से होती है । आत्म–चिंतन और सचेतनता एकरूपता प्राप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आत्मनिरीक्षण करना व्यक्तियों को अपने आंतरिक परिदृश्य का पता लगाने, विसंगतियों की पहचान करने और खुद को पुनः व्यवस्थित करने में मदद करता है। दूसरी ओर, सचेतनता वर्तमान क्षण की जागरूकता और सचेत निर्णय लेने को प्रोत्साहित करती है।
जब किसी के विचारों, शब्दों और कार्यों में ईमानदारी और सद्भाव होता है, तो प्रामाणिकता की भावना जीवन में व्याप्त हो जाती है। आत्म-जागरूकता से पैदा हुई यह प्रामाणिकता स्वयं के साथ और, विस्तार से, दूसरों के साथ एक गहरे संबंध को बढ़ावा देती है। एक व्यक्ति जो इस सद्भाव का प्रतीक है, वह अखंडता की आभा उत्सर्जित करता है , जो लोगों को उनकी वास्तविकता में अंतर्निहित विश्वास के साथ आकर्षित करता है। सम्राट अशोक जैसे नेतृत्वकर्त्ताओं की विरासत , जिन्होंने करुणा का प्रचार करने के लिए हिंसा का त्याग किया, युगों-युगों तक गूंजती रही है। सहिष्णुता और कल्याण को बढ़ावा देने वाले उनके आदेश एक ऐसे शासक के प्रमाण के रूप में विद्यमान हैं, जिसने अपने कार्यों को अपने मूल्यों के साथ जोड़ा, जिससे उसका राज्य और दुनिया समृद्ध हुई।
इसी प्रकार, हमें संचार के अधिक प्रभावी साधन स्थापित करने की आवश्यकता है जो व्यक्तिगत, पेशेवर और राजनीतिक सभी स्तरों पर इस तरह के समन्वय में मदद करते हैं। पारदर्शी संचार विश्वास और खुलेपन का माहौल बनाने में मदद करता है, जिससे व्यक्ति खुद को ईमानदारी और प्रामाणिकता से व्यक्त कर पाते हैं। वास्तव में अब समय आ गया है कि जीडीपी और मानव विकास सूचकांक के साथ वैश्विक प्रसन्नता सूचकांक को भी बराबर महत्व दिया जाए । दिल्ली सरकार का हैप्पीनेस पाठ्यक्रम बच्चों के बीच समान लक्ष्य रखता है और समाज में इस तरह के सुधार लाने की शुरुआत करने के लिए यह बिल्कुल सही जगह है।
हम कह सकते हैं कि सुखी जीवन के लिए नैतिकता और नीति-शास्त्र आवश्यक है, उसी प्रकार दिल की प्रसन्नता नीति-शास्त्र और नैतिक होना आसान बनाती है। इस प्रकार, जब हम जो नैतिक विकल्प चुनते हैं वह हमारे आंतरिक मूल्यों के साथ प्रतिध्वनित होते हैं, तो हम अखंडता और प्रसन्नता की भावना का अनुभव करते हैं। यह अखंडता न केवल हमारे जीवन को समृद्ध बनाती है, बल्कि समाज में उद्वेग लाती है, और दूसरों को लगातार अपने विश्वासों को बनाए रखने के लिए प्रेरित करती है। यह बदले में हमें दूसरों के प्रति अधिक सहानुभूतिपूर्ण और दयालु बनाता है। मदर टेरेसा, फ्लोरेंस नाइटिंगेल, कैलाश सत्यार्थी आदि जैसे उदाहरण दूसरों की सेवा करने के जुनून को प्रसन्नता का सच्चा रास्ता बताते हैं।
एक विचार के रूप में प्रसन्नता स्वार्थी नहीं हो सकती। यह कुछ समझौते या कुछ त्याग की माँग कर सकती है। यह धैर्य की माँग करती है। क्षणिक ख़ुशी और कुछ नहीं, बल्कि संतुष्टि है जो जल्दी ही समाप्त हो जाती है। निरंतर आनंद की स्थिति के लिए, हमें अन्य महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। ऐसा ही एक पहलू है निष्काम कर्म का सदियों पुराना ज्ञान यानी लक्ष्य के प्रति बिना किसी इच्छा के अपना कर्त्तव्य निभाना। यह परम प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए हमारे विचारों, विश्वासों और कार्यों को एक समकालिक तरीके से रखने का एक और तरीका है। इसलिए, हम यह निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि प्रसन्नता कोई मंजिल नहीं है, बल्कि एक पूरी यात्रा है जो व्यक्ति करता है।
जैसा कि रूमी कहते थे, “जब आप अपनी आत्मा से काम करते हैं, तो आप अपने अंदर एक नदी, एक आनंद की अनुभूति महसूस करते हैं।“
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