Q. बदलती विश्व व्यवस्था के संदर्भ में, भारत और जापान के बीच अभिसरण के क्षेत्र कौन से हैं? साझेदारी में कौन सी प्रमुख चुनौतियाँ बाधा उत्पन्न करती हैं, और द्विपक्षीय संबंधों को सुदृढ़ और गहरा करने के लिए किन उपायों की आवश्यकता है? (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • भारत और जापान के बीच अभिसरण के क्षेत्र का उल्लेख कीजिए।
  • भारत और जापान के बीच साझेदारी में बाधा डालने वाली चुनौतियाँ।
  • द्विपक्षीय संबंधों को सुदृढ़ एवं गहन बनाने के लिए आवश्यक उपाय। 

उत्तर

बदलती हुई वैश्विक व्यवस्था और परिवर्तित विश्व परिदृश्य के बीच हाल ही में भारत और जापान के प्रधानमंत्रियों की बैठक ने उनकी साझेदारी के रणनीतिक महत्त्व को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया। दोनों देशों के बीच मुक्त और समावेशी इंडो–पैसिफिक (Indo-Pacific) की अवधारणा, सशक्त एवं प्रत्यास्थ आपूर्ति शृंखलाओं का निर्माण तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी सहयोग जैसे साझा हित, आपसी सामंजस्य और निकटता को और अधिक सुदृढ़ बनाते हैं।

भारत और जापान के बीच सामंजस्य के क्षेत्र

  • साझा हिंद-प्रशांत दृष्टिकोण: भारत और जापान दोनों ही हिंद–प्रशांत क्षेत्र को अपनी सुरक्षा तथा स्थिरता का मूल आधार मानते हैं। वे चीन की आक्रामक और विस्तारवादी नीतियों का विरोध करते हुए एक स्वतंत्र, खुले और नियम-आधारित समुद्री क्षेत्र का समर्थन करते हैं।
    • उदाहरण के लिए: क्वाड समूह, मालाबार नौसैनिक अभ्यास तथा “मिलन” जैसे बहुपक्षीय सैन्य अभियानों में उनका संयुक्त सहयोग यह दर्शाता है कि दोनों राष्ट्र क्षेत्रीय भू-राजनीति को संतुलित और स्थिर बनाने के लिए एकमत हैं।
  • आर्थिक और प्रौद्योगिकीय सहयोग: जापान, भारत के विकास के लिए ऊर्जा, आधारभूत संरचना, विज्ञान और डिजिटल परिवर्तन जैसे प्रमुख क्षेत्रों में निवेश कर रहा है। इसके माध्यम से भारत की आपूर्ति शृंखलाओं को भी अधिक प्रत्यास्थ व सुरक्षित बनाया जा रहा है।
    • उदाहरण के लिए: हाल ही में हुई भारतीय प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान, जापान ने महत्त्वपूर्ण खनिजों और अंतरिक्ष में 68 बिलियन डॉलर के निवेश और सहयोग का आश्वासन दिया।
  • चीन के लिए रणनीतिक विकल्प: भारत और जापान, एशिया और अफ्रीका में चीन-प्रधान परियोजनाओं के विकल्प तैयार करने के लिए एकजुट होकर कार्य कर रहे हैं। इससे विकासशील देशों को केवल चीन पर निर्भर रहने की बाध्यता नहीं रहती।
    • उदाहरण के लिए: दक्षिण एशिया तथा अफ्रीका में दोनों देशों का तृतीय राष्ट्रों के साथ त्रिपक्षीय सहयोग इसी दिशा में उनके साझा दृष्टिकोण को मजबूत करता है।
  • सम्मानजनक कूटनीति और पारस्परिक संवेदनशीलता: भारत–जापान संबंधों की विशेषता यह है कि वे परस्पर सम्मान, सहनशीलता और विवेकपूर्ण आचरण पर आधारित हैं। दोनों देश आपसी मतभेदों को सार्वजनिक रूप से उभारने के बजाय शांति और गोपनीयता के साथ सुलझाना अधिक उपयुक्त मानते हैं।
  • एकध्रुवीयता का साझा विरोध: भारत और जापान, एशिया में चीन द्वारा निर्मित एकध्रुवीय व्यवस्था को स्वीकार नहीं करते। दोनों का मानना है कि एशिया में बहुध्रुवीय शक्ति-संतुलन ही क्षेत्रीय स्थिरता और न्यायपूर्ण व्यवस्था को सुनिश्चित कर सकता है।
    • उदाहरण के लिए: भारत एक उभरती हुई शक्ति के रूप में और जापान एक पूर्व महान शक्ति के रूप में मिलकर यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि चीन संपूर्ण एशिया पर प्रभुत्व न स्थापित कर पाए।

साझेदारी में बाधा डालने वाली चुनौतियाँ

  • अमेरिका-चीन कारक: अमेरिका की प्रतिबद्धता की अनिश्चितता और चीन के साथ उसके संबंध सीधे तौर पर भारत-जापान रणनीतिक गतिशीलता को प्रभावित करते हैं।
    • उदाहरण के लिए: यदि अमेरिका, चीन को प्रभावी ढंग से रोकने में सक्षम रहता है, तो जापान की निर्भरता भारत पर कम हो सकती है। वहीं यदि चीन भारत को कुछ रियायतें देता है, तो नई दिल्ली जापान को अपेक्षाकृत कम प्राथमिकता दे सकती है।
  • विभिन्न रणनीतिक दृष्टिकोण: भारत बहुध्रुवीयता (Multi-Alignment) की नीति अपनाता है, अर्थात् विभिन्न शक्तियों से समान दूरी बनाकर संतुलन साधना चाहता है। जबकि जापान अधिकतर अमेरिकी प्राथमिकताओं और उसकी सुरक्षा नीति के अनुरूप अपनी स्थिति तय करता है। इस भिन्नता के कारण दोनों देशों के बीच रणनीतिक सोच में पूर्ण सामंजस्य नहीं बन पाता।
  • कमजोर व्यापार संबंध: मजबूत रणनीतिक और राजनीतिक सहयोग के बावजूद, भारत और जापान के बीच व्यापारिक संबंध अपेक्षाकृत सीमित हैं।
    • उदाहरण के लिए: दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार केवल 23 अरब डॉलर का है, जबकि भारत और चीन के बीच यह आँकड़ा 130 अरब डॉलर तक पहुँच चुका है और जापान तथा चीन का आपसी व्यापार 300 अरब डॉलर से भी अधिक है। यह अंतर भारत–जापान आर्थिक साझेदारी की भेद्यता को दर्शाता है।
  • बाह्य गतिशीलता पर निर्भरता: भारत और जापान के संबंधों की दिशा अक्सर हिंद–प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी नीतियों से निर्धारित होती है। स्वतंत्र और स्वायत्त द्विपक्षीय पहल की अपेक्षा, इन रिश्तों पर बाहरी शक्ति–संतुलन का प्रभाव कहीं अधिक देखा जाता है।

संबंधों को मजबूत और गहरा करने के उपाय

  • व्यापार और निवेश का विस्तार: दोनों देशों को द्विपक्षीय आर्थिक जुड़ाव को और मजबूती देनी होगी, विशेषकर उन क्षेत्रों में जहाँ भारत को व्यापार घाटे की चुनौती का सामना करना पड़ता है।
    • उदाहरण के लिए: जापान द्वारा पूर्व में किए गए 68 अरब डॉलर के निवेश से आगे बढ़कर अवसंरचना, डिजिटल सहयोग, हरित ऊर्जा और नवीकरणीय संसाधनों में और निवेश करना आवश्यक है। इससे आर्थिक संतुलन तथा दीर्घकालिक विकास दोनों संभव होंगे।
  • सुरक्षा सहयोग को मजबूत करना: संयुक्त घोषणाओं को कार्यान्वयन योग्य सैन्य और रक्षा पहलों में परिवर्तित करना चाहिए।
  • रणनीतिक साझेदारियों में विविधता लाना: अमेरिका पर अत्यधिक निर्भरता कम करने के लिए भारत और जापान को क्षेत्रीय देशों जैसे- ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया और वियतनाम के साथ मजबूत संबंध बनाने चाहिए।
    • उदाहरण के लिए: महत्त्वपूर्ण खनिजों (Critical Minerals) के लिए एक “एशियाई क्वाड” (Asian Quad) की स्थापना, संसाधन–सुरक्षा के क्षेत्र में वैश्विक शक्ति–संतुलन को नया आयाम दे सकती है।
  • रणनीतिक वार्ता को संस्थागत बनाना: उच्चस्तरीय वार्ताओं और कार्यसमूहों को नियमित आधार पर आयोजित किया जाना चाहिए, ताकि चुनौतियों का समाधान और प्रगति की निरंतर समीक्षा संभव हो सके।
    • उदाहरण के लिए: हालिया संयुक्त घोषणा में उल्लिखित 41 संभावित विचारों पर ठोस क्रियान्वयन और उनकी नियमित समीक्षा आवश्यक है।
  • लोगों के मध्य आपसी संपर्क और सॉफ्ट पॉवर संबंधों को बढ़ावा देना: सांस्कृतिक, शैक्षिक, वैज्ञानिक–प्रौद्योगिकीय और व्यावसायिक आदान–प्रदान को बढ़ावा देना, दोनों देशों के बीच विश्वास और दीर्घकालिक सहयोग की मजबूत नींव बनेगा।
    • उदाहरण के लिए: भारत में जापानी व्यवसायों और कंपनियों की बढ़ती उपस्थिति इस बात का प्रमाण है कि ‘सॉफ्ट पॉवर’ (Soft Power) स्थायी और भरोसेमंद संबंधों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

निष्कर्ष

भारत और जापान के लिए आपसी सहयोग को और सुदृढ़ करना केवल एक विकल्प नहीं, बल्कि एशियाई और वैश्विक व्यवस्था को आकार देने की रणनीतिक अनिवार्यता है। यदि दोनों देश मौजूदा चुनौतियों को पार कर आर्थिक, रक्षा तथा जन–से–जन संबंधों को और प्रगाढ़ बनाते हैं, तो यह साझेदारी न केवल हिंद–प्रशांत क्षेत्र (Indo-Pacific) की आधारशिला सिद्ध होगी, बल्कि शांति, स्थिरता और समृद्धि की प्रमुख प्रेरक शक्ति भी बन सकती है।

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