प्रश्न की मुख्य माँग
- ध्वनि प्रदूषण के प्रभावी नियंत्रण में बाधा डालने वाली चुनौतियों पर चर्चा कीजिए।
- ध्वनि प्रदूषण को कम करने के लिए आवश्यक उपाय सुझाइए।
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उत्तर
भारतीय शहरों में ध्वनि प्रदूषण एक मूक, लेकिन गंभीर जन स्वास्थ्य और पर्यावरणीय चुनौती बन गया है। ध्वनि प्रदूषण नियम, 2000 और राष्ट्रीय परिवेशी ध्वनि निगरानी नेटवर्क (NANMN) जैसे सुरक्षा उपायों के बावजूद, स्कूलों, अस्पतालों और आवासीय क्षेत्रों के आस-पास ध्वनि का बढ़ता डेसिबल स्तर कमजोर प्रवर्तन और व्यवस्थागत उपेक्षा को दर्शाता है।
ध्वनि प्रदूषण के प्रभावी नियंत्रण में बाधा डालने वाली चुनौतियाँ
- कमजोर प्रवर्तन एवं जवाबदेही: ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं नियंत्रण) नियम, 2000 के बावजूद प्रवर्तन केवल औपचारिक रह गया है। चिकित्सालयों, विद्यालयों और आवासीय क्षेत्रों के निकट क्षेत्रों में होने वाले उल्लंघनों पर शायद ही कोई ठोस कार्रवाई होती है।
- उदाहरण के लिए: विश्व स्वास्थ्य संगठन ने साइलेंट जोन्स के लिए दिन में 50 dB(A) और रात में 40 dB(A) की सीमा निर्धारित की है, जबकि दिल्ली और बंगलूरू जैसे नगरों में संवेदनशील क्षेत्रों के निकट यह स्तर अक्सर 65–70 dB(A) तक पहुँच जाते हैं।
- खंडित संस्थागत समन्वय: प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, यातायात पुलिस और नगर निकाय अक्सर अलग-अलग कार्य करते हैं। इस प्रकार से समन्वय में कमी के कारण नियमों के अनुपालन और निगरानी में गंभीर खामियाँ रह जाती हैं।
- दोषपूर्ण निगरानी प्रणाली: राष्ट्रीय परिवेशीय शोर निगरानी नेटवर्क प्रायः एक निष्क्रिय भंडार की तरह कार्य करता है। सेंसरों की स्थिति उचित नहीं होती और एकत्रित आँकड़ों का सार्थक उपयोग नहीं किया जाता है।
- उदाहरण के लिए: कई सेंसर 25–30 फीट ऊँचाई पर लगाए गए हैं, जो CPCB के 2015 के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन है।
- विनियामक और कानूनी खामियाँ: नियम पुराने हो चुके हैं और उन्हें वर्तमान शहरी वास्तविकताओं जैसे 24×7 निर्माण, रसद-संचालित यातायात और बढ़ते शहरी घनत्व को प्रतिबिंबित करने के लिए शायद ही कभी अद्यतन किया जाता है।
- नागरिक उदासीनता और सामान्यीकरण: हॉर्न बजाना, ड्रिलिंग और लाउडस्पीकर का उपयोग लोगों के लिए सामान्य दिनचर्या जैसी बातें बन चुकी हैं। इस कारण इस संदर्भ में न तो सार्वजनिक आक्रोश दिखाई देता है और न ही सामूहिक सुधार की माँग।
- प्रदूषक के रूप में शोर की अदृश्यता: वायु या ठोस अपशिष्ट प्रदूषण के विपरीत, शोर कोई दृष्टिगोचर निशान नहीं छोड़ता है, जिससे नागरिकों और नीति निर्माताओं दोनों के लिए इसके स्वास्थ्य तथा पारिस्थितिकी प्रभाव कम मूर्त हो जाते हैं।
आवश्यक उपाय
- निगरानी और प्रवर्तन को मजबूत करना: राष्ट्रीय परिवेशीय शोर निगरानी नेटवर्क के आँकड़ों का विकेंद्रीकरण कर स्थानीय निकायों तक पहुँचाना चाहिए और निगरानी को केवल औपचारिक न रखकर उसे वास्तविक दंड, निर्माण गतिविधियों पर रोक और यातायात नियमन से जोड़ा जाना आवश्यक है।
- राष्ट्रीय ध्वनिकी नीति (National Acoustic Policy): सभी प्रकार के क्षेत्रों (औद्योगिक, वाणिज्यिक, आवासीय तथा साइलेंट जोन) के लिए स्पष्ट एवं नियमित रूप से अद्यतन की गई शोर सीमा तय की जानी चाहिए। इसके अलावा वायु गुणवत्ता मानकों की भाँति इन शोर स्तरों का अनिवार्य ऑडिट भी समय-समय पर कराया जाना चाहिए।
- ध्वनिकी प्रत्यास्थता के साथ शहरी नियोजन: नगर नियोजन में ध्वनि-रोधी तंत्र को समाहित किया जाना चाहिए। इसके अंतर्गत हरे पट्टे (green belts), ध्वनि-रोधक दीवारें , और क्षेत्रीय जोनिंग सुधार जैसे उपाय लागू किए जा सकते हैं।
- जन जागरूकता और व्यवहार परिवर्तन: जागरूकता को संस्थागत रूप दिया जाना चाहिए, तथा केवल प्रतीकात्मक “नो हॉकिंग डे” (No Honking Day) पर्याप्त नहीं है, बल्कि इसे दीर्घकालिक जनआंदोलन के रूप में परिवर्तित कर व्यवहारगत परिवर्तन सुनिश्चित करना होगा।
- न्यायिक एवं संवैधानिक सुदृढ़ीकरण: अत्यधिक शोर को अनुच्छेद-21 (गरिमा के साथ जीवन के अधिकार) का उल्लंघन माना जाना चाहिए और इस संदर्भ में न्यायालयों को कठोर अनुपालन के लिए सक्रिय भूमिका निभानी होगी, ताकि नागरिकों को स्वस्थ एवं शांत वातावरण उपलब्ध हो सके।
निष्कर्ष
ध्वनि प्रदूषण पर नियंत्रण केवल कानूनों के सहारे संभव नहीं है; इसके लिए प्रभावी प्रवर्तन, सुनियोजित शहरी पुनर्रचना तथा सांस्कृतिक-व्यवहारगत परिवर्तन की आवश्यकता है। यदि मौन और शांति को नागरिकों का मौलिक अधिकार माना जाए और शोर नियंत्रण को शासन व्यवस्था तथा नागरिक आचरण का अभिन्न अंग बनाया जाए, तो भारतीय नगर अधिक स्वस्थ, शांत एवं गरिमापूर्ण जीवन पर्यावरण की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं।
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