Q. समानता का संवैधानिक अधिकार के बावजूद, उच्च न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अत्यंत कम है, वर्ष 1950 से अब तक सर्वोच्च न्यायालय में केवल 11 महिलाएँ नियुक्त हुई हैं। इस असंतुलन के क्या कारण हैं और न्यायपालिका में लैंगिक समावेशिता सुनिश्चित करने के लिए किन सुधारों की आवश्यकता है? (10 अंक, 150 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • उच्च न्यायपालिका में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व के पीछे के मुद्दे/कारण पर चर्चा कीजिए।
  • न्यायपालिका में लैंगिक समावेशिता सुनिश्चित करने के लिए किन सुधारों की आवश्यकता है।

उत्तर

संवैधानिक समानता की गारंटी के बावजूद, भारतीय न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व अत्यंत सीमित और असमान बना हुआ है। वर्तमान परिदृश्य में सर्वोच्च न्यायालय के कुल 34 न्यायाधीशों में से केवल एक ही महिला न्यायाधीश कार्यरत हैं। उच्च न्यायालयों में महिलाओं की हिस्सेदारी लगभग 13% तक सीमित है, जबकि जिला न्यायपालिका में यह अनुपात कुछ बेहतर होकर लगभग 35% तक पहुँचता है। ये आँकड़े स्पष्ट रूप से संकेत करते हैं कि जैसे-जैसे न्यायपालिका का स्तर ऊँचा होता है, वैसे-वैसे महिलाओं का प्रतिनिधित्व तीव्र गति से घटता चला जाता है।

उच्च न्यायपालिका में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व के पीछे मुद्दे/कारण

  • ऐतिहासिक रूप से कम प्रतिनिधित्व: वर्ष 1950 से अब तक सर्वोच्च न्यायालय में केवल 11 महिलाओं की नियुक्ति हुई है, जो कुल न्यायाधीशों का मात्र 3.8% है। यह आँकड़ा न्यायपालिका में गहरे स्तर पर मौजूद लैंगिक असंतुलन को दर्शाता है।
    उदाहरण के लिए: वर्तमान में न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना 34 सदस्यीय पीठ में एकमात्र महिला न्यायाधीश हैं।
  • कॉलेजियम नियुक्तियों में पक्षपात: कोलेजियम प्रणाली में वरिष्ठता, क्षेत्र और जाति को प्राथमिकता दी जाती है, किंतु “लैंगिक प्रतिनिधित्व” को अब तक एक संस्थागत मानदंड के रूप में स्वीकार नहीं किया गया। परिणामस्वरूप, महिला न्यायाधीशों को अक्सर नियुक्ति प्रक्रिया से बाहर रखा जाता है।
  • नियुक्ति की अधिक आयु: महिलाओं को प्रायः उनके कॅरियर के बहुत बाद के चरणों में नियुक्त किया जाता है, जिसके कारण उनका कार्यकाल छोटा रह जाता है और नेतृत्वकारी भूमिकाओं  तक पहुँचने की संभावना कम हो जाती है।
    उदाहरण के लिए: न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना सितंबर 2027 में भारत की मुख्य न्यायाधीश (CJI) बनेंगी, किंतु उनका कार्यकाल केवल 36 दिनों का होगा।
  • बार काउंसिल में सीधे पदोन्नति न होना: सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों में प्रैक्टिस करने वाली महिला वकीलों को सीधे पदोन्नत करने की प्रक्रिया लगभग न के बराबर रही है, जबकि अनेक योग्य महिला वरिष्ठ अधिवक्ता मौजूद हैं।
  • सामाजिक-सांस्कृतिक बाधाएँ: लैंगिक पूर्वाग्रह, परिवार एवं देखभाल की भूमिकाएँ और मार्गदर्शन/मेंटॉरशिप की कमी महिलाओं के कानूनी कॅरियर को सीमित करती है। इसके कारण वे शीर्ष न्यायिक पदों तक पहुँचने में पीछे रह जाती हैं।
  • महिला न्यायाधीशों में विविधता का अभाव: अब तक किसी भी अनुसूचित जाति/जनजाति (SC/ST) पृष्ठभूमि से कोई महिला सर्वोच्च न्यायालय तक नहीं पहुँच पाई है और अल्पसंख्यक समुदायों  की महिलाओं का प्रतिनिधित्व भी अत्यंत न्यूनतम रहा है।

न्यायपालिका में लैंगिक समावेशिता सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक सुधार 

  • नियुक्तियों में लैंगिक प्रतिनिधित्व को संस्थागत बनाना:  कोलेजियम की अनुशंसाओं में अब तक क्षेत्र और विशेष वर्ग के लोगों को महत्त्व दिया जाता रहा है, लेकिन महिलाओं के प्रतिनिधित्व को अनिवार्य मानदंड के रूप में शामिल करना आवश्यक है। इससे यह सुनिश्चित होगा कि योग्य महिला न्यायाधीशों को चयन प्रक्रिया में समान अवसर मिलें।
  • कॉलेजियम प्रक्रिया में पारदर्शिता: वर्तमान में नियुक्ति की प्रक्रिया काफी हद तक अपारदर्शी है। यदि स्पष्ट और सार्वजनिक मानदंड बनाए जाएँ और उनमें विविधता को प्रमुख आधार बनाया जाए, तो निर्णय प्रक्रिया निष्पक्ष एवं विश्वसनीय बनेगी।
  • प्रारंभिक और मध्य स्तरीय कैरियर नियुक्तियों को बढ़ावा देना: महिलाओं को अक्सर बहुत देर से न्यायपालिका के उच्च स्तर पर पहुँचाया जाता है, जिसके कारण उनका कार्यकाल छोटा रह जाता है। समय पर पदोन्नति देने से उनका कार्यकाल लंबा होगा और उन्हें नेतृत्वकारी पदों, जैसे कि मुख्य न्यायाधीश या कोलेजियम सदस्य बनने का अवसर मिलेगा।
  • महिलाओं के लिए बार काउंसिल में प्रत्यक्ष पदोन्नति को प्रोत्साहन देना: सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में  बार काउंसिल से प्रत्यक्ष रुप से पदोन्नति करके भी न्यायाधीश बनाए जाते हैं, लेकिन महिलाओं को इस प्रक्रिया में बहुत कम जगह मिलती है। सक्षम महिला अधिवक्ताओं को सीधे पदोन्नत करना न्यायपालिका में संतुलन लाने के लिए आवश्यक है।
  • विविधता कोटा या मानक: न्यायपालिका में महिलाओं के साथ-साथ अनुसूचित जाति, जनजाति और अल्पसंख्यक समुदायों का न्यूनतम प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने हेतु नीतिगत या विधायी स्तर पर आरक्षण अथवा मानक तय किए जाने चाहिए। इससे न्यायपालिका समाज के वास्तविक स्वरूप को बेहतर ढंग से प्रतिबिंबित करेगी।
  • मार्गदर्शन और संस्थागत सहयोग: महिला न्यायाधीशों और अधिवक्ताओं के लिए संरचित मेंटरशिप, प्रशिक्षण और नेतृत्व विकास कार्यक्रम की आवश्यकता है। इससे एक मजबूत ढाँचा तैयार होगा, जो भविष्य में उच्च न्यायपालिका तक उनकी निरंतर भागीदारी सुनिश्चित करेगी।

निष्कर्ष

सच्चे अर्थों में एक समावेशी न्यायपालिका के निर्माण के लिए आवश्यक है कि सुधार पारदर्शी और लैंगिक-संवेदनशील नियुक्तियों पर केंद्रित हों, बार काउन्सिल और निचली अदालतों में कार्यरत महिलाओं के लिए प्रभावी मार्गदर्शन एवं मेंटरशिप उपलब्ध कराई जाए, तथा कोलेजियम की चयन प्रक्रिया में विविधता को एक महत्त्वपूर्ण मानदंड बनाया जाए। एक लिंग-संतुलित न्यायपालिका न केवल न्यायिक प्रणाली की वैधता और विश्वसनीयता को मजबूत करती है, बल्कि यह संवेदनशीलता, सहानुभूति और सभी के लिए समान न्याय के लोकतांत्रिक वादे को भी पूरा करती है।

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