प्रश्न की मुख्य माँग
- भारत-चीन भू-राजनीति में बौद्ध धर्म की भूमिका का परीक्षण कीजिए।
- पुनर्जन्म की राजनीति एवं भारत-चीन संबंधों पर इसके प्रभाव का उल्लेख कीजिए।
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उत्तर
हिमालयी भू-राजनीति में बौद्ध धर्म एक प्रभावशाली सॉफ्ट पॉवर के रूप में उभर रहा है, जिससे भारत और चीन के बीच आध्यात्मिक वर्चस्व की प्रतिस्पर्द्धा तेज हो गई है। इस संघर्ष में बौद्ध संस्थानों, पुनर्जन्म की मान्यताओं और मठवासी नेटवर्कों पर नियंत्रण केवल सांस्कृतिक नहीं, बल्कि रणनीतिक और सुरक्षा दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण बन गया है।
भारत-चीन भू-राजनीति में बौद्ध धर्म की भूमिका
- मठों के माध्यम से सॉफ्ट पॉवर का विस्तार: मठवासी संस्थाएँ क्षेत्रीय निष्ठा को प्रभावित करने वाले सामाजिक-सांस्कृतिक केंद्रों के रूप में कार्य करती हैं।
- उदाहरण: तिब्बत एवं भूटान में चीन द्वारा वित्तपोषित मठ, बीजिंग समर्थक आख्यानों को बढ़ावा देने वाले वैचारिक केंद्रों के रूप में कार्य करते हैं।
- बौद्ध कूटनीति बनाम शासन कला: जहाँ भारत बौद्ध विरासत को बढ़ावा देता है, वहीं चीन राज्य नियंत्रण के लिए धर्म का उपयोग करता है।
- बौद्ध स्थलों का रणनीतिक उपयोग: धार्मिक स्थलों को भू-राजनीतिक संपत्तियों में बदला जा रहा है।
- उदाहरण: नेपाल में लुंबिनी के आस-पास बीजिंग के बुनियादी ढाँचे में निवेश उसकी सीमाओं से परे प्रभाव को मजबूत करता है।
- मठवासी प्रतिद्वंद्विता: मठों के भीतर व्याप्त संप्रदायगत विवादों का रणनीतिक रूप से उपयोग कर वफादार अनुयायियों को विभाजित किया जाता है तथा उन्हें विशिष्ट विचारधाराओं के अनुरूप संरेखित किया जाता है। इससे सामाजिक और धार्मिक नियंत्रण की प्रक्रिया को बल मिलता है।
- उदाहरण: चीन द्वारा दोर्जे शुग्देन संप्रदाय व प्रतिद्वंद्वी करमापा का समर्थन तिब्बती निर्वासित समुदाय को विभाजित करने की रणनीति है।
- रणनीतिक हानि/लाभ के रूप में मठों की निष्ठा में परिवर्तन: आध्यात्मिक निष्ठाओं में बदलाव भू-राजनीतिक संतुलन को प्रभावित कर सकता है।
- उदाहरण: लद्दाखी मठ भारत के प्रति वफादार हैं पर चीन के रणनीतिक प्रलोभन से यह संतुलन बदल सकता है।
- संप्रभुता के दावे के एक साधन के रूप में धार्मिक नियंत्रण: चीन, तिब्बत में अपना प्रभुत्व मजबूत करने के लिए पुनर्जन्मों पर नियंत्रण का दावा करता है।
- उदाहरण: वर्ष 2007 का कानून “जीवित बुद्ध” की मान्यता के लिए चीनी राज्य की स्वीकृति अनिवार्य कर, तिब्बती बौद्ध धर्म पर संप्रभुता स्थापित करता है।
पुनर्जन्म की राजनीति एवं भारत-चीन संबंधों पर इसका प्रभाव
- रणनीतिक विवाद के रूप में दलाई लामा का उत्तराधिकार: अगले दलाई लामा पर प्रतिस्पर्द्धी दावे क्षेत्रीय एकता को खंडित कर सकते हैं।
- उदाहरण: दो प्रतिद्वंद्वी दलाई लामाओं का उदय होने की संभावना, एक ल्हासा में चीन समर्थित एवं दूसरा भारत में निर्वासित समर्थित।
- राज्य द्वारा अनुमोदित आध्यात्मिक वैधता: नियंत्रण को संस्थागत बनाने के लिए चीन पुनर्जन्मों पर विशेष अधिकार का दावा करता है।
- उदाहरण: चीन द्वारा अनुमोदित आध्यात्मिक नेताओं को स्थापित करने के लिए “स्वर्ण कलश” पद्धति का उपयोग।
- भारत की नैतिक बनाम रणनीतिक स्थिति: दलाई लामा की मेजबानी से भारत को नैतिक लाभ तो मिलता है, लेकिन रणनीतिक परिणाम सीमित हैं।
- उदाहरण: मठों एवं सांस्कृतिक आदान-प्रदान को वित्तपोषित करने के भारत के हालिया कदमों का उद्देश्य सॉफ्ट पॉवर को रणनीतिक गहराई में बदलना है।
- हिमालय के पार भू-राजनीतिक परिणाम: पुनर्जन्म का मुद्दा वैश्विक बौद्ध-बहुल देशों को प्रभावित कर सकता है।
- उदाहरण: मंगोलिया, श्रीलंका जैसे देश दलाई लामाओं में से किसी एक को मान्यता देने के लिए बाध्य हो सकते हैं, जिससे राजनयिक समीकरण प्रभावित होंगे।
- निष्ठाओं को परिवर्तित करने के लिए पुनर्जन्म संबंधी आख्यानों पर नियंत्रण: प्रतिस्पर्द्धी आख्यान युवाओं की पहचान एवं दीर्घकालिक निष्ठा को आकार देते हैं।
- उदाहरण: चीनी मठों में शिक्षित तिब्बती युवा बीजिंग की बौद्ध धर्म की व्याख्या के प्रति तेजी से वफादार होते जा रहे हैं।
- क्षेत्रीय नियंत्रण के प्रतिनिधि के रूप में पुनर्जन्म विवाद: आध्यात्मिक उत्तराधिकार विवादों के पीछे अक्सर भू-राजनीतिक उद्देश्य छिपे होते हैं।
- उदाहरण: करमापा एवं दोर्जे शुग्देन संप्रदाय पर विवाद इस क्षेत्र में भारत-चीन के बीच व्यापक प्रतिद्वंद्विता को दर्शाते हैं।
हिमालय आज आध्यात्मिक भू-राजनीति का एक महत्त्वपूर्ण मंच बन चुका है, जहाँ धार्मिक वैधता, पुनर्जन्म की मान्यता तथा मठवासी नेटवर्क पर नियंत्रण सीमावर्ती क्षेत्रों की जननिष्ठा को प्रभावित करता है। ऐसे संदर्भ में, भारत के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वह अपनी रणनीति की पुनः समीक्षा करे और निष्क्रिय मेजबानी से आगे बढ़कर एक सक्रिय व दूरदर्शी भागीदारी अपनाए।
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