Q. सत्ता का बढ़ता केंद्रीकरण, संवैधानिक पदों पर राजनीतिक प्रभाव के उदाहरण और सहकारी संघवाद पर दबाव भारत के संवैधानिक लोकतंत्र के कामकाज के लिए उल्लेखनीय चुनौतियाँ प्रस्तुत करते हैं। हाल के घटनाक्रमों के आलोक में, राज्य की स्वायत्तता के लिए इन प्रवृत्तियों के निहितार्थों की आलोचनात्मक जाँच कीजिए। (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • भारत के संवैधानिक लोकतंत्र के कार्यान्वयन में सत्ता के बढ़ते केंद्रीकरण की चुनौतियों का उल्लेख कीजिये।
  • राज्य स्वायत्तता के लिए इन प्रवृत्तियों के निहितार्थों का परीक्षण कीजिए।
  • भारत में संघवाद की सुरक्षा के लिए सुझावात्मक उपाय प्रस्तुत कीजिए।

उत्तर

भारतीय संविधान के अनुच्छेद-1 के अंतर्गत, भारत को ‘राज्यों का संघ’ माना गया है, जो एकात्मक झुकाव वाली एक संघीय व्यवस्था है और यह केंद्र-राज्य शक्तियों के बीच सावधानीपूर्वक संतुलन स्थापित करती है। अनुच्छेद 245-263 इस व्यवस्था को स्थापित करते हैं। यद्यपि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इस बात पर बल दिया था कि ‘राज्य केंद्र के मात्र उपांग नहीं हैं फिर भी, केंद्रीकरण की हालिया प्रवृत्तियाँ, संवैधानिक पदों का राजनीतिक दुरुपयोग और सहकारी संघवाद में कमी इत्यादि जैसी समस्याएँ इस संतुलन को खतरे में डाल रहे हैं।

सत्ता के बढ़ते केंद्रीकरण की चुनौतियाँ

  • चुनावी सुधारों के माध्यम से राज्य की स्वायत्तता का हनन: लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों का एक साथ आयोजन, विधानसभाओं के कार्यकाल को संक्षिप्त करने का जोखिम उत्पन्न करता है तथा उनकी निर्वाचन संबंधी संप्रभुता को कमजोर करता है।
    • उदाहरण: “वन नेशन, वन इलेक्शन” का प्रस्ताव राज्य विधानसभाओं के कार्यकाल को मध्यावधि में ही समाप्त कर सकता है।
  • केंद्रीय एजेंसियों का राज्य क्षेत्राधिकार में हस्तक्षेप: प्रवर्तन निदेशालय (ED), केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) तथा अन्य एजेंसियों का निरंतर हस्तक्षेप, संविधान द्वारा राज्यों हेतु आरक्षित विषयों पर अतिक्रमण करता है। 
  • राजकोषीय केंद्रीकरण और निर्भरता: GST सुधारों के पश्चात् राज्यों की राजस्व-स्वायत्तता सीमित हो गई है, जिससे उनकी संघीय हस्तांतरण पर निर्भरता बढ़ गई है तथा कल्याणकारी व्यय सीमित हुआ है।
    • उदाहरण: COVID-19 के दौरान राज्यों को GST मुआवजे प्रदान करने में हुई देरी ने राजकोषीय भेद्यता को उजागर किया।
  • राज्यपाल कार्यालय का राजनीतिक दुरुपयोग: ऐसे कई मामले देखने को मिल रहे हैं जिसमें राज्यपाल केंद्र के पक्षपाती अभिकर्त्ताओं की तरह कार्य कर रहे हैं, विधेयकों को रोक रहे हैं और संवैधानिक सीमाओं से परे प्रशासन में दखल दे रहे हैं। 
    • उदाहरण: केरल और तमिलनाडु के राज्यपालों ने अनुच्छेद 200 के प्रावधानों का उल्लंघन करते हुए राज्य के विधेयकों को महीनों तक रोके रखा।
  • नीतिगत एकरूपता विविधता को कमजोर कर रही है: केंद्र द्वारा निर्मित योजनाएँ ‘वन-साइज-फिट्स-ऑल’ मॉडल पर आधारित होती हैं, जिससे शिक्षा, कृषि और कल्याण में क्षेत्रीय प्राथमिकताओं की अनदेखी होती है।  
    • उदाहरण के लिए: पर्याप्त राज्य परामर्श के बिना राष्ट्रीय शिक्षा नीति के कार्यान्वयन की आलोचना हुई है।
  • संवाद हेतु संघीय संस्थाओं का कमजोर होना: सहकारी संघवाद हेतु बनी संस्थाएँ, जैसे अंतर-राज्यीय परिषद, का कम प्रयोग हो रहा है, जिससे सहमति निर्माण की संभावना कम हो रही है। 
    • उदाहरण: अनुच्छेद 263 में केंद्र-राज्य के बीच नियमित संवाद की इच्छा के बावजूद, अंतरराज्यीय परिषद की बैठकें कम ही हुई हैं।

राज्य की स्वायत्तता पर प्रभाव

  • विधायी  अधिकार का संकुचन: राज्यपालों द्वारा विधेयकों पर स्वीकृति रोकना या उन्हें अनिश्चितकाल तक लंबित रखना, निर्वाचित राज्य विधानसभाओं की विधायी संप्रभुता को कमजोर करता है।
  • शैक्षणिक स्वायत्तता का हनन: विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों को मंजूरी देने में केंद्रीय नियंत्रण, उच्च शिक्षा संस्थानों पर राज्यों के अधिकार को कमजोर करती है। 
    • उदाहरण: पश्चिम बंगाल और केरल में राज्यपालों से संबंधित विवादों के कारण कुलपतियों की नियुक्तियों में देरी हुई।
  • राजकोषीय निर्भरता कल्याणकारी भूमिका को सीमित कर रही है: GST के बाद राजस्व शक्तियों में कमी और संघीय हस्तांतरण पर निर्भरता के कारण, राज्यों को गरीबी और कुपोषण के खिलाफ कल्याणकारी उपायों के लिए धन जुटाने में कठिनाई हो रही है।
  • जनादेश को दरकिनार करना: विभिन्न एजेंसियों, राज्यपाल के पद या अनुच्छेद 356 के माध्यम से केंद्र का हस्तक्षेप, राज्य सरकारों के चुनावी जनादेश को दरकिनार करता है। 
    • उदाहरण: वर्ष 2016 के अरुणाचल प्रदेश संकट में एक निर्वाचित सरकार को बर्खास्त किया गया, जिसे बाद में नबाम रेबिया बनाम उपाध्यक्ष  वाद में निरस्त कर दिया गया।
  • सहयोगात्मक से प्रतिस्पर्धात्मक केंद्रीकरण की ओर परिवर्तन: वास्तविक साझेदारी के बजाय, केंद्र-राज्य संबंधों में एकतरफा निर्देशों का प्रभाव बढ़ रहा है, जिससे संघीय व्यवस्था पर विश्वास कम हो रहा है।
    • उदाहरण: केंद्र द्वारा निर्देशित कृषि कानून (2020) राज्यों से व्यापक परामर्श के बिना पारित कर दिए गए, जिससे बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए।
  • बढ़ता क्षेत्रीय अलगाव: संघ द्वारा कथित अतिक्रमण क्षेत्रीय असंतोष को बढ़ावा देता है, जिससे भारत की ‘विविधता में एकता’ और संघीय संतुलन को खतरा  होता है।

संघवाद की रक्षा के लिए सुझावात्मक उपाय

  • राज्यपाल के विवेकाधिकार की सीमाओं को संहिताबद्ध करना: राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ प्रायः निर्वाचित राज्य सरकारों को दरकिनार करती हैं; स्पष्ट संहिताकरण इस तरह के मनमाने दुरुपयोग को रोक सकता है। 
    • उदाहरण: पुंछी आयोग (2010) और नबाम रेबिया (2016) वाद में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयानुसार, राज्यपाल को केवल मंत्रिमंडल की सलाह पर ही कार्य करना चाहिए।
  • अंतर-राज्यीय परिषद को सुदृढ़ करना (अनुच्छेद 263): केंद्र-राज्य संवाद के लिए एक प्रमुख संवैधानिक मंच होने के बावजूद, अंतर-राज्यीय परिषद का अभी तक अपर्याप्त रूप से प्रयोग हुआ है; नियमित सक्रियता से तनाव कम किया जा सकता है।  
    • उदाहरण: सरकारिया आयोग (1988) ने केंद्र और राज्यों के बीच निरंतर परामर्श के लिए इसे सक्रिय करने की सिफरिश की थी।
  • राजकोषीय संघवाद को सुदृढ़ करना: राजकोषीय केंद्रीकरण राज्यों की विकासात्मक क्षमता को सीमित करता है अतः वित्तीय विकेंद्रीकरण को सुदृढ़ करना और GST सहयोग को स्थिर बनाना आवश्यक है।
    • उदाहरण: वित्त आयोग के फॉर्मूले को पारदर्शी तरीके से लागू किया जाना चाहिए और राज्यों के लिए GST मुआवजे की अवधि बढ़ानी चाहिए।
  • संस्थागत स्वतंत्रता सुनिश्चित करना: शक्ति संतुलन के लिए तटस्थ संस्थाएँ आवश्यक हैं; उन्हें पक्षपातपूर्ण प्रभाव से बचाकर संघीय विश्वास की रक्षा की जा सकती है। 
    • उदाहरण: निर्वाचन आयोग, CAG, ED को केंद्र के अधिकार से बचाया जाना चाहिए, जैसा कि केशवानंद भारती (1973) के “मूल संरचना” सिद्धांत में प्रतिपादित है।
  • केंद्र-राज्य विवादों पर न्यायिक निगरानी: संघीय संतुलन सुनिश्चित करने और कार्यपालिका के अतिक्रमण को रोकने के लिए न्यायपालिका को विवादों में सक्रिय रूप से मध्यस्थता करनी चाहिए।
  • बहुलवाद और सहिष्णुता को बढ़ावा देना: संघवाद सांस्कृतिक और राजनीतिक बहुलवाद पर आधारित होता है; असहमति की रक्षा लोकतांत्रिक विविधता को सशक्त करती है। 
    • उदाहरण: अनुच्छेद 19(1)(a) के अधिकारों को बनाए रखते हुए असहमति को लोकतांत्रिक कर्तव्य माना जाए, न कि राष्ट्रविरोधी गतिविधि।
  • GST परिषद जैसे सहकारी मंचों को सुदृढ़ करना: साझा संस्थाओं में निर्णय सर्वसम्मति से लिए जाने चाहिए, न कि बहुसंख्यक प्रभुत्व से। 
    • उदाहरण के लिए: GST परिषद संघवाद की सहकारी भावना को मज़बूत करने के लिए सर्वसम्मति-आधारित मतदान को अपना सकती है।

निष्कर्ष

भारत का संघीय लोकतंत्र समान भागीदारों के ऐसे संघ के रूप में परिकल्पित किया गया था, जो सहयोग से बंधा हो, न कि दबाव से। संवैधानिक पदों के केंद्रीकरण और राजनीतिकरण की वर्तमान प्रवृत्तियाँ इस भावना को कमजोर कर रही हैं। राज्य की स्वायत्तता की रक्षा के लिए संवैधानिक नैतिकता के प्रति पुनः प्रतिबद्ध होना, अंतर्राज्यीय परिषद जैसी संस्थाओं को सक्रिय करना, स्वतंत्र कार्यालय सुनिश्चित करना और बहुलवाद को अपनाना आवश्यक है। यदि इसे गंभीरता से लागू किया जाए, तो यह समावेशिता और गरिमा की राष्ट्रवादी विरासत को पुनर्स्थापित कर सकता है, और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक जीवंत तथा सुदृढ़ गणराज्य सुनिश्चित कर सकता है।

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