Q. सूचना का अधिकार (RTI) अधिनियम की घटती प्रभावशीलता संस्थागत अस्पष्टता और कार्यपालिका की गैर-जवाबदेही के गहरे मुद्दों को दर्शाती है। भारत में पारदर्शिता और नागरिक सशक्तिकरण के संदर्भ में इस कथन का विश्लेषण कीजिए। (15 अंक, 250 शब्द)

प्रश्न की मुख्य माँग

  • RTI की प्रभावशीलता में कमी से पारदर्शिता पर क्या प्रभाव पड़ता है?
  • RTI की प्रभावशीलता में कमी से नागरिक सशक्तीकरण पर क्या प्रभाव पड़ता है?

उत्तर

सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI), 2005 ने नागरिकों को सरकार को जवाबदेह ठहराने की शक्ति दी और लोकतांत्रिक पारदर्शिता को गहरा किया। परंतु हाल के वर्षों में हुए बदलाव, विशेषकर डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम (DPDPA), 2023, ने सार्वजनिक सूचना तक पहुँच को सीमित कर इसके दायरे को कमजोर कर दिया है। यह परिवर्तन खुले और जवाबदेह शासन में हुई दशकों की प्रगति को उलटने का खतरा पैदा करता है।

मुख्य भाग

RTI की प्रभावशीलता में कमी से पारदर्शिता पर प्रभाव

  • लोक जवाबदेही का क्षरण:  “व्यक्तिगत डेटा संरक्षण” के नाम पर सूचना की पहुँच सीमित करने से भ्रष्टाचार और प्रशासनिक कदाचार को उजागर करने की नागरिक शक्ति घटती है।
    • उदाहरण: DPDPA की धारा 44(3) अधिकारियों के नामों के प्रकटीकरण को रोकती है, जिससे दोषी अधिकारियों की पहचान छिप जाती है।
  • सार्वजनिक हित सिद्धांत का कमजोर होना:  नया अधिनियम गोपनीयता और सार्वजनिक हित के बीच RTI द्वारा स्थापित संतुलन को समाप्त करता है, जिससे शासन संबंधी निर्णयों पर निगरानी घट जाती है।
    • उदाहरण: धारा 8(2) के हटने से नागरिक अब शासन और व्यय से जुड़ी सूचनाओं तक पहुँच नहीं पा रहे हैं।
  • संस्थागत पारदर्शिता का ह्रास:
    RTI अधिनियम के कमजोर पड़ने से सरकारी संस्थानों को सूचना पर नियंत्रण वापस मिल गया है, जिससे वर्ष 2005 से विकसित हुई खुलेपन की संस्कृति उलट रही है।

    • उदाहरण: कार्यकर्ताओं का कहना है कि अब RTI “खोखला पात्र” बन गया है — नागरिकों को आंशिक या चयनित जानकारी ही दी जाती है।
  • जाँच पत्रकारिता और नागरिक निगरानी का कमजोर होना:  पत्रकारों और सामाजिक संगठनों के पास अब सरकारी रिकॉर्ड तक पहुँच सीमित हो गई है, जिससे भ्रष्टाचार या शक्ति के दुरुपयोग को उजागर करना कठिन हो गया है।
    • उदाहरण: DPDPA में “व्यक्तिगत जानकारी” की सर्वव्यापी सुरक्षा पत्रकारों और शोधकर्ताओं को प्रशासनिक दुरुपयोग उजागर करने से रोकती है।
  • विधानिक समानता में कमी: RTI अधिनियम में नागरिकों के सूचना के अधिकार को संसद के अधिकार के समान माना गया था; इस प्रावधान के हटने से जनता और प्रतिनिधियों के बीच लोकतांत्रिक समानता घट गई है।

RTI की प्रभावशीलता में कमी से नागरिक सशक्तीकरण पर प्रभाव

  • जवाबदेही माँगने की क्षमता में कमी: नागरिक अब भ्रष्टाचार में शामिल अधिकारियों की पहचान  नहीं कर सकते, जिससे अधिकारियों को जवाबदेह ठहराने की उनकी शक्ति कमजोर पड़ती है।
  • जनआंदोलनों का कमजोर होना:  RTI ने कभी ग्राम स्तर पर शासन पारदर्शिता को बढ़ाया था पर इन प्रतिबंधों से स्थानीय लोकतांत्रिक उपलब्धियाँ जोखिम में हैं।
    • उदाहरण: राजस्थान में MKSS आंदोलन ने RTI का उपयोग कर लोक निर्माण योजनाओं में धोखाधड़ी का खुलासा किया और मजदूरों को भुगतान सुनिश्चित कराया।
  • कार्यपालिका की मनमानी में वृद्धि: अब सूचना के प्रकटीकरण का निर्णय पूरी तरह सरकार के विवेक पर निर्भर है, जिससे नागरिकों की मनमाने निर्णयों को चुनौती देने की क्षमता घट गई है।
  • सूचनादाताओं और कार्यकर्ताओं पर भय का प्रभाव:  सूचना उजागर करने पर भारी दंड का खतरा होने से पत्रकारों, RTI उपयोगकर्ताओं और शोधकर्ताओं में भय उत्पन्न होता है।
  • लोकतांत्रिक भागीदारी में गिरावट:
    जब नागरिकों को सूचना नहीं मिलती, तो वे सूचित बहस में भाग नहीं ले पाते और शासन में सार्थक भागीदारी घट जाती है।

निष्कर्ष

RTI की आत्मा को पुनर्जीवित करने के लिए मजबूत पारदर्शिता सुरक्षा उपायों, स्वतः प्रकटीकरण (Proactive Disclosure), और सूचनादाताओं की सुरक्षा आवश्यक है।  गोपनीयता और सार्वजनिक हित के बीच संतुलन ही जवाबदेही बनाए रखने की कुंजी है।  केवल खुलेपन और सूचना तक नागरिक पहुँच के माध्यम से ही भारत सच्चे अर्थों में सहभागी लोकतंत्र को बनाए रख सकता है।

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